सवाल पत्रकार पर नहीं पत्रकारिता पर उठ रहे हैं
योगेन्द्र पटेल-
इस वक्त देश में पत्रकारों के असली एवं फर्जी पर बहस छिड़ी है। इस बीच कोई यह जानने की कोशिश नहीं कर रहा है कि आखिर पत्रकार होने का मतलब क्या है। क्या सिर्फ आरएनआई में पंजीयन कर के, पत्र-पत्रिका निकालकर आप पत्रकार बन गए,या किसी मीडिया संस्थान से आईडी या पेपर एजेंसी खरीदकर आप पत्रकार बन गए,या आपने एक वेब चैनल या पोर्टल बनाकर पत्रकारिता का धंधा चालू कर दिया। या आपने किसी संस्था से मीडिया की पढ़ाई कर प्रेस का प्रमाण लेकर आपने आप के लिए पत्रकारिता का लायसेंस ले लिया।
ऐसा बिल्कुल भी नहीं है पर ऐसा हो रहा है। पत्रकारिता में सुचिता गायब है एवं भाषाओं के प्रयोग में "गुड़ गोबर कर दिया जा रहा है। तथ्यविहीन खबरों का चलन बढ़ रहा है। पत्रकारिता का ध्येय मानवीय कल्याण न होकर व्यक्तिवादी होता प्रतीत हो रहा है। चार शब्द बोलना क्या आ गया बन गए पत्रकार,चार शब्द लिखना क्या आ गया बन गए पत्रकार, इन सब से आप पत्रकार तो बन सकते हैं,बनना भी चाहिए लेकिन पत्रकारिता नहीं कर सकते। पत्रकार गली-गली में पैदा हो सकते हैं लेकिन पत्रकारिता आत्मा से निकलती है,पत्रकार बनता है लेकिन पत्रकारिता पैदा होती है।
पत्रकार वो है जो समाचार को समाचार कि तरह जनता तक पहुंचाए, उसमें पक्षपात न करें और निर्णय जनता पर छोड़ दें। पत्रकार की रिपोर्टिंग से जन आंदोलन तैयार होना चाहिए,लाग-लपेटे वाले समाचारों से अभिव्यक्ति का ध्वनि प्रदूषण ही हो सकता है,पत्तलकार से निकलकर पत्रकार को पत्रकारिता को बचाने अखबार के लेआउट से ज्यादा समाज के सुधार के ले-आउट पर ध्यान देने की जरूरत है। सामाजिक क्रांति तो एक पेज के अखबार से भी लायी जा सकती है,अगर पुट जन लाभ का हो।
पत्रकारिता में "जन " छूट रहा है
पत्रकार की भूमिका में एक जिम्मेदारी की श्रृंखला भी है जो हमें समाचारों के शोध एवं विष्लेषण करने एवं व्याख्या करने पर मजबूर करती है। पर इसे करेगा कौन,वर्तमान में रिपोर्टर ही सबकुछ है, अधिकतर न्यूज रूम आपरेटरों के भरोषे चल रहे हैं,जैसा गया ,वैसा छापा। समाचारों के संकलन एवं उसे प्रसारण-प्रिंट रूम तक पहुंचाने वाली कड़ी में भी सुधार की आवश्यकता लग रही है। अगर यह सब नहीं हो सक रहा हो तो यह समझों की आप लायसेंस के दम पर पत्रकार बन रहे हैं,पत्रकारिता के लिए आप कुछ भी नहीं कर रहे हैं।
मप्र में हर दिन सैकड़ों पंजीबद्ध हो रहे पत्र-पत्रिका एवं पोर्टल
जनसंपर्क विभाग के रिकार्ट के अनुसार पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गई है। कुछ पत्र तो सिर्फ विशेष विज्ञापन के लिए ही पंजीबद्व कर दो चार कापी अल्टर मोड पर निकल रहीं हैं। अगर अंदाजा लगाया जाए जितने पत्र-पत्रिका पंजीबद्व हैं वे सही से जन हितैशी प्रकाशन करने लगे तो मप्र में जन क्रांति आ जाती एवं अपराध,भ्रष्टाचार का ग्राफ बहुत नीचे हो गया होता। पर ऐसा दिखता नहीं है क्योंकि हम पत्रकार बन रहे हैं,प्रेस लिखा रहे हैं,प्रेस कार्ड दिखा रहे हैं पर पत्रकारिता के उद्देश्य से दूर जा रहे हैं।
काॅरपोरेट मीडिया को मसाला चाहिए
बात मीडिया की करें तो यह काॅरपोरेट घरानों के हाथ में है। मुझे लगता है इसका पत्रकारिता से वास्ता कम अपना उल्लू सीधा करने एवं विज्ञापन प्राप्त कर सकने की अभिव्यक्ति से कुछ ज्यादा नहीं है। खैर यह अलग मसला है,इस पर लंबी बहस की आवश्यकता है,पर आज जो हम इस लेख से आप को बताने की कोशिश की है,इस विषय पर गंभीर चिंतन-मनन की आवश्यकता है कि गंदी होती राजनीति में हम पत्रकारिता को गंदा न करें।