योगेन्द्र पटेल 

सामाजिक राजनीतिक ,आर्थिक विश्लेषक

                          भारत की G-20 अध्यक्षता के तहत एक संगठित आर्थिक बहाली के कार्यक्रम की योजना बनाने को  एजेंडे में शामिल करने की आवश्यकता है,  यह बात अलग है कि इस तरह के आर्थिक बहाली के कार्यक्रम को तैयार करना और उसके लिए विश्वसनीय समर्थन जुटाना मौजूदा  बाजार के सहयोग के परिदृश्य के तहत एक बहुत ही मेहनत वाला काम है, इसी को देखते हुए  सरकारें कर्ज लेकर समुदाय की आर्थिक  दशा बदलने का प्रयास कर रही है। पर क्या यह सतत विकास लक्ष्य  हासिल करने में कारगर साबित होगा विचारणीय विषय है।

 हम बात करे मप्र के परिदृश्य  में तो यहां की सरकार लाड़ली बहना योजना के डिण्डौरे के माध्यम से महिलाओं के आर्थिक हालातों का बदलने की बात करती है, लेकिन भारत की सांस्कृति पृष्टभूमि कहती है की यहां उपहार में दिये पैसों का उपयोग सिर्फ चंद आनंद के लिए किया जाता हैं ऐसे में चिंता जाहीर होती है कि मप्र की लाड़ली बहने इन एक हजार रूपये महिना से अपने हालातों को बदलने  का प्रयास करेगी या फिर  कुछ और में उपयोग कर  आनंद का अनुभव लेती रहेगी। 

आज हमें यह नहीं भूलना चाहिए की आज हमारे आर्थिक हालात क्या हैं, महगाई चरम पर है, सरकारें कर्जतले दब रहीं हैं, सरकारी उपहारों से कृषि क्षेत्र में मानव संसाधन का संकट बढ़ता जा रहा है।  प्रोडक्शन इपुट कम होता जा रहा है जो हमारी जीडीपी को धड़ाम करने तैयार है।  इन सब हालातों के बीच  संकेत हैं कि कुछ  दिनों  में अल्पकालीन महंगाई लंबे समय के लिए उम्मीदों को बदल सकती है , मौद्रिक नीति आने वाले महीनों में ज़्यादा कड़ी हो सकती है,इसे देखते हुए ज़्यादा कर्ज़ लेने  राज्यों  में कर्ज़ का संकट और बढ़ सकता है।

  वोट के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा

खजाने से सरकार पैसे बांट रहीं है लेकिन वोट के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा उलटे बैंको का ब्याज दर बढ़ जाएगा।    व्यापक आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए बड़े बड़े वित्तीय पैकेज की उपयोगिता पर  सवाल ऐसे में लाजमी है।   एक बाजारू अनुभव के आधार पर परीक्षण  किया गया कि सार्वजनिक क़र्ज़ जितना बढ़ता है उतना ही  निवेश घटता है, वहीं, जितनी महंगाई बढ़ती है उतना ही खुले व्यापार में कमी आती है,इसलिए आज   सामने जो बड़ी आर्थिक चुनौतियां खड़ी हैं उनसे निपटने के लिए  सामुदायिक   स्तर पर तालमेल और तजुर्बे पर आधारित आर्थिक नीति की ज़रूरत है।

रोजगार और सृजन सिर्फ कागजों में

अब वक्त आ गया है कि हमारी सरकारें लोगों के औद्योगिक नीतियों पर रणनीति बनाकर समावेशी विकास के बारे में समझें। हमारी सबसे बड़ी राशि वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात से आती है और अब वह सालाना एक लाख करोड़ डॉलर का आंकड़ा पार कर चुकी है।  सम्पूर्ण भारत के परिपेक्ष में यह आकड़ कमतर है। समाज का एक धड़ा इस लिए कमजोर है कि उसे उपहार स्वररूप झुनझुना थमाया गया सतत विकास के लक्ष्यों को जमीन पर उतारने का प्रयास कम हुआ।

विकास दर घटना चिंता का विषय

ठेठ भाषा में समझे  तो विकास दर घटना मतलब हमारे उत्पादन का कम होना एवं उत्पादों का वैश्विक बाजार तक कम पहुंचना , या समुदाय का निरकुंश हो जाना माना जाता है। वर्तमान में जो हमारी विकास दर है वह मुस्कराने वाली नहीं है अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ़ ने भारत की आर्थिक विकास दर के अनुमान को साल 2022-23 के लिए 7.4 फीसदी से घटाकर 6.8 फीसदी कर दिया है, आईएमएफ़ ने दूसरी बार अपने अनुमान में कटौती की है,यह कटौति क्यों हो गई इस पर भी पंडालों से निकलकर चिंता करने की आवश्यकता है।

 

 

 

न्यूज़ सोर्स : ipm Bhopal