दिवाली पर उम्मीदों और उमंगों से सजी रंगोली केन्द्रीय मंत्री शिवराज सिंह  ने पत्नी संग  मांडना  बनाने में सहयोग किया। साथ ही एकता एवं भाइचारे का संदेश दिया। 

मांडना राजस्थान , मालवा और निमाड़ क्षेत्र की लोक कला है। इसे विशेष अवसरों पर महिलाएँ ज़मीन अथवा दीवार पर बनाती हैं।  लोक आस्था में मांडनो का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। त्योहारों, उत्सव और मांगलिक कार्यों में मांडणा प्रत्येक घर-आंगन की शोभा होता है। मांडणा कला का भारतीय संस्कृति में सदियों से विशिष्ठ स्थान है। दीपोत्सव के अवसर पर तो यह कला लोकप्रथा का स्वरूप धारण कर लेती है। इस उत्सव पर ग्रामीण अंचल में घरों की लिपाई, पुताई व रंगाई के साथ मांडने बनाना अनिवार्य समझा जाता है। राजस्थान में ग्रामीण अंचल के अलावा शहरी क्षेत्र में भी मांडणा अंकन के जीवंत दर्शन होते है किंतु कतिपय घरों में इनके अंकन का माध्यम बदल जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में मांडना उकेरने में गेरु या हिरमिच एवं खडिया या चूने का प्रयोग किया जाता है। इसके निर्माण में गेरु या हिरमिच का प्रयोग पार्श्व (बैकग्राउंड) के रूप में किया जाता है जबकि इसमें विभिन्न आकृतियों व रेखाओं का अंकन खड़िया अथवा चूने से किया जाता है। शहरी क्षेत्रों में मांडने चित्रण में गेरु व खडिया के स्थान पर ऑयल रंगों का अक्सर उपयोग होने लगा है। नगरों में सामान्यतः लाल ऑयल पेंट की जमीन पर विभिन्न रंगों से आकारों का अंकन किया जाता है। दीपावली पर प्रत्येक गृहणी अपने घर के द्वार, आंगन व दीवारों की लिपाई-पुताई के पश्चात भिन्न-भिन्न प्रकार के सुंदर व आकर्षक मांडने उकेरती है। हमारे जीवन में इनके सांस्कृतिक महत्व से कम ही लोग परिचित हैं, यहां तक कि इन्हें चित्रित करने वाली महिलाएँ भी अक्सर इसे नहीं जानती है।

हमारी संस्कृति में मांडनों को श्री एवं समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। यह माना जाता है कि जिस घर में इनका सुंदर अंकन होता है उस घर में लक्ष्मी जी का निवास रहता है।

 

मांडनो का अंकन सदियों से हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक आस्थाओं की प्रतीक रहा है। इसको आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। तभी तो हवन और यज्ञों में 'वेदी' का निर्माण करते समय भी मांडने बनाए जाते हैं। हमारी सांस्कृतिक परम्परा में यह भी है कि घर के आंगन को धोने व लीपने के बाद उसे खाली नहीं छोड़ते क्योंकि यह शुभ भी नहीं माना जाता। ऎसे में आंगन में मांडने बनाकर अति अल्प मात्रा में मूंग, चावल, जौ व गेहूं जैसी मांगलिक वस्तुएं फैला दी जाती है। 

मांडना (माण्डण्य या मंडन) प्राचीन काल में वर्णित 64 कलाओं में कलाओं में शामिल है जिसे अल्पना कहा गया है। मांडनों को कुछ लोग मुख्यतः चार प्रकारों में वर्गीकृत करते है- " स्थान आधारित, पर्व आधारित, तिथि आधारित और वर्ष पर्यन्त अंकित किए जाने वाले"।

राजस्थान के मांडनों में चौक, चौपड़, संझया, श्रवण कुमार, नागों का जोड़ा, डमरू, जलेबी, फीणी, चंग, मेहन्दी, केल, बहू पसारो, बेल, दसेरो, साथिया (स्वस्तिक), पगल्या, शकरपारा, सूरज, केरी, पान, कुण्ड, बीजणी (पंखे), पंच-नारेल, चंवरछत्र, दीपक, हटड़ी, रथ, बैलगाड़ी, मोर व अन्य पशु पक्षी आदि प्रमुख है।

मांडने के अंकन के लिए स्थान का विशेष ध्यान रखा जाता है। जैसे-

- दीवार पर केल, संझ्या व तुलसी, बरलो आदि।

- आंगन में खांडो, बावड़ी चौक, दीपावली की पांच पापड़ी, चूनर चौक।

- चबूतरे पर पंचनारेल।

- पूजा घर में नवदुर्गा।

- रसोई घर में छीका चौक।

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