भारत में आज भी जिन विदेशियों पर गर्व किया जाता है उनमें भगिनी निवेदिता का नाम सबसे पहले आता है, जिन्होंने न केवल भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले देशभक्तों की खुलेआम मदद की बल्कि महिला शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।

भगिनी निवेदिता का भारत से परिचय स्वामी विवेकानन्द के जरिए हुआ था। 28 अक्टूबर, 1867 को जन्मीं निवेदिता का वास्तविक नाम ‘मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल’ था। एक अंग्रेजी-आइरिश सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, शिक्षक एवं स्वामी विवेकानन्द की शिष्या- मार्गरेट ने 30 साल की उम्र में भारत को ही अपना घर बना लिया।

मार्गरेट एक अच्छे परिवार से ताल्लुक रखती थीं। लेकिन मात्र 10 साल की उम्र में अपने पिता को खोने के बाद उनका जीवन गरीबी में बीता। उनकी शिक्षा इंग्लैंड के एक चैरिटेबल बोर्डिंग स्कूल में हुई। सिर्फ 17 साल की उम्र में अपनी पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने शिक्षक की नौकरी कर ली। ताकि वे अपनी माँ और भाई-बहनों का ख्याल रख सकें।

दीक्षा के समय स्वामी विवेकानंद ने उन्हें नया नाम ‘निवेदिता’ दिया, जिसका अर्थ है ‘समर्पित’ और बाद में वह पूरे देश में इसी नाम से विख्यात हुईं। दीक्षा प्राप्त करने के बाद निवेदिता कोलकाता के बागबाज़ार में बस गयीं। यहाँ पर उन्होंने लड़कियों के लिए एक स्कूल शुरू किया। जहाँ पर वे लडकियों के माता-पिता को उन्हें पढ़ने भेजने के लिए प्रेरित करती थी। निवेदिता स्कूल का उद्घाटन रामकृष्ण परमहंस की पत्नी मां शारदा ने किया था।

निवेदिता ने माँ शारदा के साथ बहुत समय बिताया। और माँ शारदा भी उनसे बेहद प्रेम करती थीं। उस समय बाल-विवाह की प्रथा प्रचलित थी और स्त्रियों के अधिकारों के बारे में तो कोई बात ही नहीं करता था। पर निवेदिता को पता था कि केवल शिक्षा ही इन कुरूतियों से लड़ने में मददगार हो सकती है।

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में बांग्ला विभाग के पूर्व अध्यक्ष अमरनाथ गांगुली ने एक बार कहा कि मार्गरेट नोबेल को स्वामी विवेकानंद ने निवेदिता नाम दिया था। इसके दो अर्थ हो सकते हैं एक तो ऐसी महिला जिसने अपने गुरु के चरणों में अपना जीवन अर्पित कर दिया, जबकि दूसरा अर्थ निवेदिता पर ज्यादा सही बैठता है कि एक ऐसी महिला जिन्होंने स्त्री शिक्षा के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया।

निवेदिता ने देशवासियों में राष्ट्रीयता की भावना को जागरूक किया। बागबाज़ार में उनका घर उस समय के प्रतिष्ठित भारतीयों जैसे रवींद्रनाथ टैगोर, जगदीश चंद्र बोस, गोपाल कृष्ण गोखले और अरबिंदो घोष के लिए विचार-विमर्श का स्थान बन गया था। उनके युवा प्रशंसकों में क्रांतिकारियों के साथ-साथ उभरते कलाकार और बुद्धिजीवी भी शामिल थे। उन्होंने रमेशचन्द्र दत्त और यदुनाथ सरकार को भारतीय नजरिए से इतिहास लिखने की प्रेरणा दी।

गोखले ने कहा कि उनसे मिलना “प्रकृति की कुछ महान शक्ति के संपर्क में आने जैसा था”। महान तमिल राष्ट्रवादी कवि सुब्रमण्य भारती, जिन्होंने केवल एक बार निवेदिता से मुलाकात की, उन्हें अपने गुरु के रूप में माना, उन्होंने लिखा कि “उन्होंने मुझे भारत माता की पूर्णता को दिखाया और मुझे अपने देश से प्यार करना सिखाया है।”

निवेदिता ने न केवल स्वदेशी अभियान का समर्थन किया बल्कि उन्होंने लोगों को भी इसके प्रति जागरूक किया। यहाँ तक कि जब ब्रिटिश सरकार ने ‘वन्दे मातरम’ के गायन पर रोक लगा दी, तब भी उन्होंने इसे अपने स्कूल में जारी रखा। उन्होंने सदैव हिन्दू-मुस्लिम एकता पर लिखा और कहा कि वे दोनों एक ही माँ की संताने हैं और उन्हें हमेशा मिलजुल कर रहना चाहिए।

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बताया जाता है कि 25 साल की उम्र में उन्होंने अपना भी एक स्कूल खोला और वे उस समय शिक्षा में अलग-अलग प्रयोग करने के लिए मशहूर थीं। इसके अलावा वे ज़िन्दगी का सच्चा सार जानना और समझना चाहती थीं और इसीलिए उन्हें महान विचारकों और सुधारकों की संगत बेहद पसंद थी।

साल 1895 में मार्गरेट के जीवन में सबसे बड़ा बदलाव आया। दरअसल, उन्हें एक निजी संगठन द्वारा एक ‘हिन्दू योगी’ का भाषण सुनने के लिए बुलाया गया था। इस योगी की बातों और विचारों ने मार्गरेट को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने भारत आने का फैसला कर लिया।

ये योगी और कोई नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद ही थे। विवेकानंद ने जीवन के संदर्भ में मार्गरेट के उन सवालों को सुलझाया, जिनकी उसे काफी समय से तलाश थी। विवेकानन्द ने गरीबों और जरुरतमंदों की मदद करने और लोगों की भलाई करने पर जोर दिया। मार्गरेट के मन में यह बात बैठ गयी।

जब विवेकानंद मार्गरेट से मिले तो उन्हें भी समझ में आ गया कि मार्गरेट भारतीय महिलाओं के उत्थान में योगदान कर सकती हैं। मार्गरेट ने उसी पल यह मान लिया कि भारत ही उनकी कर्मभूमि है। इसके तीन साल बाद, जनवरी, 1898 में मार्गरेट भारत आ गयीं। स्वामी विवेकानंद ने उन को 25 मार्च 1898 को दीक्षा देकर भगवान बुद्ध के करुणा के पथ पर चलने की प्रेरणा दी।

न्यूज़ सोर्स : ipm