एससी वर्ग के मतदाता तय करेंगे ग्वालियर-चंबल की राजनीतिक दिशा
भोपाल । ग्वालियर-चंबल अंचल में एक बार फिर एससी वर्ग के मतदाता ही भाजपा-कांग्रेस का खेल बनाएंगे या फिर बिगाड़ देंगे। एट्रोसिटी एक्ट के विरोध में हुए आंदोलन के बाद से एससी मतदाता नाराज हैं। पहले वे भाजपा से नाराज थे और कमल नाथ सरकार बनने के बाद कांग्रेस से भी खफा हो गए। आंदोलन के दौरान इस वर्ग के जिन लोगों पर आपराधिक केस लगे थे, कांग्रेस सरकार ने वादा करने के बाद भी उन्हें वापस नहीं लिया। जबकि, इसी वजह से ग्वालियर-चंबल अंचल में भाजपा की सीटें इतनी कम हुई थीं कि उसे वर्ष 2018 में सत्ता तक गंवानी पड़ी।
पहले एससी वर्ग बसपा का मतदाता हुआ करता था, लेकिन वर्ष 2018 में कांग्रेस के साथ चला गया। अब बसपा फिर अपना वोटबैंक वापस लाने के प्रयास में है तो भाजपा-कांग्रेस दोनों एससी वर्ग को साधने में कोई कमी नहीं छोड़ रहे। इन्हीं प्रयासों के तहत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संत रविदास मंदिर की आधारशिला रखी। संत रविदास के सर्वाधिक अनुयायी इसी क्षेत्र में हैं। भाजपा को उम्मीद है कि इन प्रयासों का फायदा उसे मिशन 2023 में मिलेगा। इन्हीं परिस्थितियों को भांपकर ही केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ग्वालियर आ रहे हैं ताकि कार्यकर्ताओं में उत्साह जगा सकें। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष वीडी शर्मा, चुनाव प्रबंधन समिति के संयोजक व केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और प्रदेश की राजनीति के एक ध्रुव ज्योतिरादित्य सिंधिया का है इसलिए यह स्वाभाविक अपेक्षा है कि यहां पार्टी सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करके दूसरे अंचलों के सामने उदाहरण प्रस्तुत करे।
अपनी उपेक्षा से कार्यकर्ता विधायकों व मंत्रियों से नाराज हैं तो जनता भी तमाम दावों-वादों के बावजूद संतुष्ट दिखाई नहीं दे रही है। हालांकि बड़े नेताओं के साथ भाजपा अब तेजी से अंचल में सक्रिय हो रही है। इधर, कांग्रेस धीरे-धीरे महल (ज्योतिरादित्य सिंधिया) की छाया से बचाकर चुन-चुनकर अपने पुराने नेताओं को वापस ला रही है।
अंचल की 34 सीटों में से वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा का सूपड़ा साफ करते हुए 26 सीटों पर जीत दर्ज की थी। ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के बाद यहां 16 सीटों पर उपचुनाव हुए। इनमें भाजपा ने नौ और कांग्रेस ने सात सीटों पर जीत दर्ज की थी। यह जीत तब थी जब भाजपा सत्ता में रहते हुए चुनाव लड़ रही थी और कांग्रेस विधायक खोकर निहत्थी हो चुकी थी। आज की स्थिति में कांग्रेस कितनी मजबूत है इससे ज्यादा गौर करने वाली बात यह है कि अपने ही विभिन्न धड़ों के बीच भाजपा कितनी मजबूर है। दरअसल सिंधिया के आने के बाद नई और पुरानी भाजपा के बीच तालमेल बैठाना पार्टी के लिए कांग्रेस से मुकाबला करने से कम चुनौतीपूर्ण नहीं है।
ग्वालियर और चंबल, दोनों के संभागीय मुख्यालयों की स्थिति भाजपा के माथे पर चिंता की लकीरें खींच रही है। ग्वालियर की छह विधानसभा सीटों में से भाजपा के पास दो ही हैं। एक सीट से ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर सिंधिया कोटे से और दूसरी सीट से उद्यानिकी राज्य मंत्री भारत सिंह कुशवाह नरेंद्र सिंह तोमर कोटे से माने जाते हैं। फिलहाल दोनों को कड़े संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है। चंबल के मुख्यालय मुरैना में भी स्थिति ग्वालियर जैसी ही है। छह में से चार सीटों पर कांग्रेस जमी हुई है। 2018 के चुनाव में यहां भाजपा खाता भी नहीं खोल पाई थी। डेढ़ साल पहले ही दोनों शहरों के नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा अभूतपूर्व हार का सामना कर चुकी है जो चिंता बढ़ा रही है। भाजपा के लिए बस एक ही सुकून की बात है कि अंचल में कांग्रेस की हालत कैप्टन विहीन जहाज जैसी है, जहां हर विधानसभा सीट पर नेता कई गुटों में बंट गए हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ आए अंचल के चार बड़े नेताओं की कांग्रेस में वापसी से भाजपा के साथ-साथ सिंधिया भी असहज हैं। कुछ समय में कोलारस से धाकड़ समाज के नेता रघुराज धाकड़, शिवपुरी से सिंधिया का चुनाव प्रबंधन देखने वाले राकेश गुप्ता, चंदेरी से जयपाल व रघुराज सिंह यादव और शिवपुरी से बैजनाथ सिंह यादव कांग्रेस में वापसी कर चुके हैं। कारण यही बताया गया कि वे नई पार्टी यानी भाजपा की रीति-नीति से समन्वय नहीं कर पाए।