समुद्र अपनी हदें तोड़ धरती पर चढ़ने की फिराक में
प्रकृति तथ्य होती है- तब "अम्फान" आकर गुजर गया था, अब "निसर्ग " आकर गुजर गया है। राहत की आवाज सुनाई दे रही है कि चलो गुजर गया! हिसाब यह लगाया जा रहा है कि "अम्फान " उड़ीसा से कटकर निकल गया, "निसर्ग" ने मुम्बई के चेहरे पर कोई गहरी खरोंच नहीं डाली तूफान कमजोर पड़ गया ! कैसे इसका हिसाब लगाया आपने कि तूफान कमजोर पड़ गया? जवाब तुरंत आया है, मौत के आंकड़े देखिए, इतने कम मरे तो क्या ताकत थी तूफान में! लेकिन यह हिसाब बहुत गलत ही नहीं है, बहुत खतरनाक भी है। कोई तुफान यूं ही नहीं गुजर जाता है, बहुत कुछ कहकर बहुत कुछ दिखाकर जाता है और यह भी कह जाता है कि फिर आऊंगा। विज्ञान ने इतने सालों की खोज और शोध से यह तो संभव बना दिया है कि हम ऐसी प्राकृतिक आपदाओं की आहट पहले से जान जाते हैं और किस्म किस्म की छतरियां तानकर अपनी जान बचा लेते है। फिर माल का जो होना हो, हो। इसके आगे और इससे अधिक विज्ञान कुछ कर भी तो नहीं सकता है। विज्ञान का रिश्ता ज्ञान से है। वह ज्ञान तो देता है कि यह क्या और क्यों हुआ। उससे बचने या उससे बच निकलने का प्रयास तो हमें ही करना होगा। हम वह न करें तो विज्ञान "लॉकडाउन " करने आएगा. "क्वारेंटाईन" में डालने पहुंचेगा।
तो विज्ञान ने हमें बताया है कि यह सारा खेल जलवायु परिवर्तन का है। जल और वायु दोनों ही निरंतर हमारे निशाने पर हों, और हमारा जीवन व्यापार सामान्य चलता रहे, क्या यह संभव है? विज्ञान कहता है कि ऐसा नहीं हो सकता है जब आप जल और वायु में परिवर्तन करेंगे तो पर्यावरण में परिवर्तन होगा ही क्योंकि ये सब एक संतुलित चक में बंधकर चलते हैं। गणित के प्रमेय की तरह सिद्ध अवधारण है। हवा में जब भी कार्बन की मात्रा बढ़ेगी, पर्यावरण में उसकी प्रतिक्रिया होगी। कार्बन की मात्रा बढ़ेगी तो पर्यावरण में गर्मी बढ़ेगी तो प्रकृति में जहां भी बर्फ होगी, वह पिघलेगी। पहाड़ पिघलेंगे, ग्लेशियर पिघलेंगे तो समुद्र का जल स्तर बड़ेगा। समुद्र अपनी हदें तोड़ धरती पर चढ़ जाएगा और गांव मोहल्लें- नगर - देश, सब शनैः शनैः डुबते जाएंगे। इसका असर धरती पर होगा, नदियों समुद्रों के पानी की सतह पर भी होगा और गर्भ में भी होगा। इसका असर धरती के नीचे की दुनिया पर भी होगा जो डूब जाएगें, वे तो समझिए कि बच जाएंगे, जो बच जाएंगें वे डूब जाएगें फसलें मरेगी, फल फूल का संसार उजड़ेगा, अकाल होगा, तूफान होगा, भूकंप होगा। इतना ही नहीं होगा, कोरोना की तरह के तमाम नए - अजनबी रोगों का हमला होगा। सारे वायरस जलवायु परिवर्तन की औलादे है जलवायु परिवर्तन अपनी औलादों को प्राणीजगत तक पहुचाता है और वे नए-नए वायरसों के वाहक बन जाते हैं। अभी हम खोज रहे हैं कि कोरोना किस प्राणी से होकर हमारे पास पहुंचा हैं।
जब तक हम यह खोज करेंगे तब तक प्रकृति कुछ और नए वायरस हमारे पास पहुंचा रही होगी। यह सिलसिला न आज का है और न कल खत्म होने वाला है। यह कार्बन के कंधों पर बैठा है और हमारे विकास के स्वर्णिम महल के कंधों पर कार्बन बैठा हैं। कार्बन को रोकना हम में से किसी के बस में नहीं है। क्योंकि हमने कार्बन को ही अपने विकास का आधार बना रखा है। प्रकृति कार्बन को जहां तक संभव हो, दबा - छुपा कर रखती है क्योंकि वह इसका खतरनाक चरित्र जानती है। हम छिपाकर रखें कार्बन उसके चपेट से खोदकर निकाल लेते हैं। कोयला निकाल कर बिजली बनाते हैं, तेल निकालकर कार व हवाई जहाज उड़ातें हैं, बिजली और कार के बीच में आ जाते हैं- धरती से आकाश तक फैले हुए हमारे नाना प्रकार के आरामगाह ! सब एक ही काम करते हैं। छिपाकर रखा हुआ कार्बन हवा में फेंकतें हैं। जल और वायु दोनों में लगातार कार्बन का हमला होता रहता है। प्रकृति के इंजीनियर रात दिन इस हमले का मुकाबला करने में लगे रहते हैं लेकिन कर नहीं पाते क्योंकि यह उनकी क्षमता से कहीं बड़ा काम हो जाता हैं। यह वैसा ही है जैसे जब भी आप कोई उपकरण खरीद कर लाते हैं जो उस पर लिखा देखते हैं कि उसकी मोटर लगातार कितने घंटे चलाई जा सकती हैं उस मर्यादा के भीतर आप चलाते हैं तो उपकरण अच्छा काम देता है। मर्यादा तोड़ते हैं तो मोटर बंद पड़ जाती है या फूंक जाती है। ऐसा ही प्रकृति के साथ भी है। वह अपनी क्षमता के भीतर अपने संरक्षण में पूर्ण सक्षम है।
आप देखिए न जरा । सारा संसार कोरोना की चादर तले कसमसा रहा है तो प्रकृति संवरती जा रही है। जल और वायु दोनों धुल- पुछ रहें है। नमामि गंगे परियोजना "लॉकडाउन में है लेकिन गंगा अपने उद्गम से लेकर नीचे तक जैसी साफ हुई है, वैसी साफ गंगा तो हमारे बच्चों ने कभी देखी ही नहीं थी! हिमालय की चोटियां दूर से नजर आने लगी है और हमारी खिड़कियों से ऐसे पंछी दिखाई देने लगे हैं जिन्हें हमने लुप्त की श्रेणी में डाल रखा था। यह सब सिर्फ इसलिए हो रहा कि हम अपना विकास लेकर जरा पीछे हट गए हैं। हम हटे हैं तो प्रकृति अपने काम पर लग गई है। इसलिए न पर्यावरण बचाने की जरूरत है न धरती। जरूरत है लोभ व द्वेश से भरी अपनी जीवनशैली बदलने की मतलब अपना कार्बन जाल समेट लेने की।
"लॉकडाउन के बाद से अब तक देश की राजधानी दिल्ली में पांच बार भूकंप के झटके आए हैं। धरती के नीचे का विज्ञान जानने वाले बता रहे हैं कि नीचे काफी कोहराम मचा है, कुछ भी घटना घट सकती है। कोरोना तो आकर बैठा ही है। हम इसके सामने बेबस हैं क्योंकि हम इसे जानते ही नहीं। हमारे शरीर का सुरक्षातंत्र अपने भीतर प्रवेश करने वाले जिस-जिस दुश्मन से लड़ता है, उसकी पहचान सुरक्षित रख लेता है। ऐसी करोड़ों पहचानें उसके यहां संग्रहीत हैं। उनमें से कोई एक विषाणु भी भीतर आए तो वे हमला कर काम तमाम का देते हैं। लेकिन जब कोई अनजाना विषाणु भीतर प्रवेश करता है तो वे विवश हो जाते हैं। उनके पास जितने हथियार हैं वे इन पर काम नहीं आते हैं तो इस नई बीमारी का सामना करने लायक हथियार बनाने में उसे वक्त लग जाता है। इस दौरान जो जहां, जैसे और जितना मरे, उसकी फ़िक्र वह कर ही नहीं सकता हैं प्रकृति न सदय होती है, न निर्दय । वह तटस्थ होती है।
इसलिए कहा कि कोई भी तूफान, फिर उसका नाम अम्फान हो कि निसर्ग, कि कोरोना, गुजर नहीं जाता है, कमजोर नहीं पड़ जाता है। ऊंची आवाज में अपना संदेश देकर चला जाता है- फिर से लौट आने के लिए। वह कहकर गया है और कोरोना लगातार बार-बार कह रहा है कि पिछले कोई दस हजार साल में तुमने जितना "विकास" किया है, उससे हाथ खींच लो। मनुष्य और मनुष्य के बीच में दो गज की दूरी भी न रखी जा सके, ऐसी घनी आबादी के महानगर मत बनाओ! मत कहो उसे सभ्यता, जो अकूत संसाधनों को खाकर ही जिंदा रह पाती है, सागरों को छोटा और आसमान को धुंधला करने वाला कोई भी काम तुम्हारे हित में बिल्कुल नही है।
विज्ञान की राजनीति और विज्ञान से राजनीति हमेशा आत्मघाती होगी। प्राणीजगत और मनुष्य जगत अपने-अपने दायरें में दो गज की दूरी बनाकर ही रहें क्योंकि इनका सहजीवन शुभ है अशुभ है- इनका एक- दूसरे में रहना ।