भारत में सचेतन संस्कृति विलुप्त होती जा रही है। इसके बदले अपने लाभ के लिए धर्म के ठेकेदार बढते जा रहे हैं। धर्म के प्रचारवाद से मानवीयवाद न बढकर संकुचितवाद से धर्म की हानी होती जा रही है।  भारत के मंदिरों को उन असल हिन्दओं को सौंप दिया जाना चाहिए जो कभी किसी से बोलते नहीं हैं। असल मंदिरों के हकदार मठाधीस नहीं वे लोग हैं जो त्याग एवं तपस्या की प्रतिमूर्ति है। भारत में इन दिनों मंदिरों पर सरकारी कब्जा होता जा रहा है इन मंदिरों को सरकारी बाबू अपने अनुसार चला रहे हैं। ऐसे मंदिरों से ज्ञान न निकलकर धन बटोरने का उत्पाद निकाला जा रहा है। यह वर्तमान परंपरा कितनी घातक हो सकती है इसका असर भी दिखने लगा है। मानवीय सजीव चेतना के घोतक मंदिरों को राजनीति के केन्द्र से सबसे पहले निकाला जाना वर्तमान सरकार की पहली प्राथमिकता लगती है।  

              मंदिर शब्द संस्कृत का है. जो मूलतः मंद (मन्द् धातु+किरच् प्रत्यय)  धातु़ इससे साफ जाहिर होता है कि मंदिर का निर्माण ही आंतरिक ज्ञान को जगाने के लिए हुआ होगा, लेकिन कालांतर में ये देवघर के रूढ होते गए। वैदिक परंपरा के अनुसार मंदिरों की संरचना ही ज्ञान मूलक थी पर क्रमिक परिवर्तन के चलते मंदिर उपासना एवं ज्ञान के केन्द्र बिन्दु न बनकर मनोरंजन एवं पर्यटन के साधन बनते गए। वर्तमान में हर नगर -ग्राम में मंदिरों का निर्माण हो रहा है लेकिन इन मंदिरों में ज्ञान प्राप्त होता हो ऐसा दिखता नहीं है, मंदिरों के निर्माण से ही विवाद उत्पन्न होता दिखता है ऐसे में प्रतीत होता है कि मंदिर का निर्माण मानव कल्याण के लिए न होकर या तो स्वयं महत्वकांक्षा के लिए बनाए जा रहे हैं या अपने औहदे का प्रदर्शन कर राजनीतिक लाभ के लिए जनता पर जबरदस्ती थोपे जा रहे हैं। 
इतिहास गवाह है कि वैदिक युग में प्रकृति देवों की उपासना प्रमुख थीए जिसमें पूजन से अधिक यजन का विधान था। भारतीय संस्कृति में मंदिर निर्माण के पीछे यह सत्य छुपा था कि ऐसा धर्म स्थापित हो जो जनता को सहजता व व्यवहारिकता से प्राप्त हो सके। इसकी पूर्ति के लिए मंदिर स्थापत्य का प्रार्दुभाव हुआ । वैदिक साहित्य में ईश्वर का वर्णन किया गया है.जो बताता है कि ईश्वर सत्.चित.आनंद विग्रह है. या पूर्ण आध्यात्मिक सार का रूप है. जो अनंत काल. ज्ञान और आनंद से भरा है. और किसी भी तरह से भौतिक नहीं है। उसका शरीर, आत्मा, रूप, गुण, नाम, लीलाएँ आदि सभी अलग-अलग हैं और एक ही आध्यात्मिक गुण के हैं। भगवान का यह रूप किसी की कल्पना से निर्मित मूर्ति नहीं है  बल्कि सच्चा रूप है , भले ही वह इस भौतिक सृष्टि में उतरे। और चूँकि परमेश्वर का आध्यात्मिक स्वरूप निरपेक्ष है, वह अपने नाम से अलग नहीं है।

इस प्रकार  कृष्ण नाम ध्वनि के रूप में कृष्ण का अवतार या अवतार है। इसी तरहए मंदिर में उनका रूप केवल एक प्रतिनिधित्व नहीं हैए बल्कि गुणात्मक रूप से कृष्ण के रूप में अर्चा.विग्रहए या पूजा योग्य रूप है। कुछ लोग प्रश्न कर सकते हैं कि यदि देवता भौतिक तत्वों जैसे पत्थरए संगमरमरए धातुए लकड़ी या पेंट से बने हैंए तो यह भगवान का आध्यात्मिक रूप कैसे हो सकता हैघ् इसका उत्तर दिया गया है कि चूँकि ईश्वर सभी भौतिक और आध्यात्मिक ऊर्जाओं का स्रोत है.भौतिक तत्व भी ईश्वर का ही एक रूप है। इसलिएए भगवान मंदिर में देवता के रूप में प्रकट हो सकते हैंए हालांकि पत्थर या अन्य तत्वों से बने होते हैं. क्योंकि वे आध्यात्मिक ऊर्जा को भौतिक ऊर्जा में और भौतिक ऊर्जा को वापस आध्यात्मिक ऊर्जा में बदल सकते हैं। इस प्रकार, देवता को आसानी से सर्वोच्च के रूप में स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि वे किसी भी तत्व में प्रकट हो सकते हैं. चाहे वह पत्थर. संगमरमर. लकड़ी. सोना. चांदी या कैनवास पर पेंट हो। इस तरह. भले ही हम भगवान को देखने के लिए अयोग्य हो सकते हैंए जो हमारी भौतिक इंद्रियों की बोधगम्यता से परे हैंए इस भौतिक सृष्टि के जीवों को उनके अर्च.विग्रह रूप के माध्यम से पूजा करने योग्य देवता के रूप में देखने और उनके पास जाने की अनुमति है। मंदिर।
मंदिर केवल देवताओं को देखने के स्थल नहीं हैं, मंदिर आध्यात्मिक रूप से महसूस करने के केन्द्र बिन्दू है। मंदिर में जाने के बाद ज्ञान की अनुभूति न होती हो एवं शरीर, मन और इंद्रियाँ आध्यात्मिक रूप से आंतरिक विकास न कर व्यक्तिवाद के केन्द्र में राजनीतिक लाभ के लिए उत्साहित करते हो ऐसे स्थलों को सिर्फ पर्यटन के केन्द्र बिन्दु समझा जाना चाहिए,ज्ञान मार्ग की सीढी नही। 

 

न्यूज़ सोर्स : ipm