सुजाता खांडेकर, कम्यूनिटी ऑफ़ रिसोर्स ऑर्गनाइज़ेशन (कोरो) की संस्थापक निदेशक हैं। कोरो देश में ज़मीनी स्तर पर लीडरशिप और एक्टिविज्म के क्षेत्र में काम करने वाले अग्रणी संगठनों में से एक है। सुजाता और कोरो का मुख्य उद्देश्य समुदायों को ज़मीनी स्तर के नेतृत्व की सुविधा उपलब्ध करवाना है जिससे वे अपने मुद्दों की पहचान कर खुद उनके हल निकाल सकें। पिछले तीन दशकों में सुजाता के काम ने उन्हें शहरी और ग्रामीण इलाक़ों में जमीनी स्तर की महिलाओं के सशक्तिकरण के बारे में विस्तार से जानने के लिए प्रेरित किया है। उनकी पीएचडी थीसस ‘मीनिंग्स ऑफ़ वीमेन्स एमपावर्मेंट’ का मूल विषय भी यही है। इस थीसस पर उनके साथ सात अन्य सह-शोधार्थियों ने भी काम किया है। 

आईडीआर के साथ अपने इस इंटरव्यू में सुजाता ने सामाजिक परिवर्तन के लिए कार्यक्रमों को डिज़ाइन करते समय ज़मीनी समुदायों के ज्ञान और जीवन अनुभव को शामिल करने के महत्व पर बात की है। साथ ही, वे यह भी बताती हैं कि कैसे समुदायों के साथ संवाद और सामूहिक ज्ञान निर्माण आगे बढ़ने का सही तरीक़ा है।

मुझे लगता है कि जमीनी स्तर से सामुदायिक समझ बनाने की ज़रूरत का यह अहसास तीन दशकों में कोरो के काम से हासिल हुए अनुभवों का नतीजा है। 1989 में, अपनी स्थापना के समय से ही कोरो भारत के चंद सबसे पिछड़े समुदायों के साथ काम कर रहा है। समय के साथ यह एक संगठन के रूप में विकसित हुआ है जो ज़मीन पर मजबूत है औऱ जिसका नेतृत्व, आकार और प्रबंधन जमीनी समुदायों द्वारा किया जाता है। मैं आउट्लाइअर हूं यानी एक आउटसाइडर (क्योंकि मेरी सोशल लोकेशन उन कई लोगों से अलग है जो कोरो का हिस्सा हैं) और इनसाइडर दोनों हूं क्योंकि संगठन में होने वाली हर चीज में मेरी भागीदारी सौ प्रतिशत होती है।

वर्षों से मैंने देखा है कि जमीनी स्तर के लोगों को लगभग हमेशा ही ‘लाभार्थियों’ के रूप में देखा जाता रहा है। अपने काम से मैंने जाना कि इन समुदाय के लोगों में कितना असीमित ज्ञान, बुद्धि, ऊर्जा, एक्टिविज्म और नेतृत्व जैसा सब कुछ मौजूद है। कई संगठनों या शैक्षणिक संस्थानों में ये समुदाय शोध, कार्यक्रमों के डिज़ाइन और क्रियान्वयन और डेटा के संग्रहण और विश्लेषण जैसे कामों में शामिल हो सकते हैं। लेकिन बात जब ज्ञान निर्माण की आती है तब संस्थानों और समुदाय के बीच के रिश्ते में अब भी एक स्पष्ट क्रम देखने को मिलता है। 

हमें ज़मीनी स्तर के लोगों को अलग नज़रिए से देखने की ज़रूरत है ताकि हम उन्हें नेता और ज्ञान निर्माता के रुप में देख सकें।

हम अक्सर ही ऐसा सोचते हैं कि अंग्रेज़ी बोलने वाले या कॉलेज की डिग्री हासिल करने वाले लोगों के पास ही सारा ज्ञान है। इस पूर्वाग्रह के कारण विभिन्न समुदायों के सदस्य शोध या प्रोग्रामिंग के लिए केवल एक आंकड़ा भर बन कर रह जाते हैं। लेकिन देखने का यह नज़रिया दूरदर्शी नहीं है क्योंकि भारत विविधताओं वाला एक देश है। यहां विविध अनुभव, दृष्टिकोण और बारीकियां हैं और सभी समान रूप से सही और जरूरी हैं। इसके अलावा पिछड़ी पृष्ठभूमि के लोगों को एक के बाद एक संघर्षों का सामना करना पड़ता है और उनका यही जीवंत अनुभव उन्हें एक खास भीतरी नजर और ज्ञान प्रदान करता है।

जमीनी स्तर के ज्ञान को पहचानने और उससे सीखने के महत्व के इस एहसास के बाद ही मुझे लगा कि एक आदर्श बदलाव की आवश्यकता है। हमें ज़मीनी स्तर के लोगों को अलग नज़रिए देखने की ज़रूरत है ताकि हम उन्हें नेता और समझ बनाने वालों के रुप में देख सकें। नेतृत्व का अर्थ केवल एक्टिविज्म में नेतृत्व से नहीं है; ज़मीनी स्तर के ज्ञान निर्माण और उस ज्ञान के लागू करने में भी नेतृत्व की ज़रूरत होती है। 

और अंतत: यह ज्ञान निर्माण की राजनीति पर आधारित होता है। इसका संबंध कुछ इस तरह की बातों से है कि कौन भरोसेमंद है, किस पर भरोसा किया गया है और क्यों, और ‘किसे’ ज्ञान माना जाता है और क्यों।

लेकिन हम इसे संभव कैसे बना सकते हैं? पिछले कुछ समय से एक पॉवर डायनैमिक प्रभावी रही है। आप उन लोगों की मान्यताओं के बारे में जो कुछ भी कह रही हैं, जिनके बारे में ज्ञान अधिक ‘महत्वपूर्ण’ है – हम इसे दोनों तरफ से कैसे बदल सकते हैं? समुदाय अपने स्वयं के ज्ञान को कैसे महत्व देता है, और ‘आउटसाइडर्स’, जैसा कि आप इन्हें कहती हैं, अपने ज्ञान को हमारे सोचने और होने के तरीकों में कैसे शामिल करें?

आपने दोनों सिरों पर बदलाव को सुविधाजनक बनाने का सही उल्लेख किया है। दुर्भाग्य से, अक्सर जमीनी स्तर पर काम करने वाले अच्छे-खासे अनुभवी लोग भी खुद को ज्ञान निर्माता नहीं मान पाते हैं। इस ‘सक्रिय’ जागरूकता (जो काम करने से बढ़ती है) को जमीनी स्तर पर भी सुविधा प्रदान करने की ज़रूरत होती है। सामूहिक कार्रवाई आवश्यक है क्योंकि व्यक्ति अपने दम पर खुद को मुखर करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं, विशेष रूप से तब जब ऐसा करना ज्ञान निर्माण के लोकप्रिय और स्वीकृत तरीकों से उलट हो। इसलिए, शुरुआत में यह महत्वपूर्ण होगा कि समुदाय से परे दूसरों के साथ ज्ञान का सह-निर्माण किया जाए, ताकि जमीनी ज्ञान को महत्व दिया जा सके और इसे बाहरी दुनिया के साथ साझा किया जा सके।

एक समाज के रूप में, हमें अपनी सोच और कार्य में जमीनी स्तर के ज्ञान और अनुभव को शामिल कर सकने योग्य बनने की आवश्यकता है। | चित्र साभार: फ़्लिकर

मैं आपको एक उदाहरण देती हूं। साल 2019 में मैं महिला सशक्तिकरण से जुड़े एक विषय पर अपनी पीएचडी पूरी करने वाली थी। मैं सशक्तिकरण के उन विभिन्न स्वरूपों के बारे में जानना चाहती थी जो सम्भव हो सकते थे। साथ ही मैं यह भी जानना चाहती थी कि महिलाएं अपने सशक्तिकरण को कैसे समझती हैं और विभिन्न सामाजिक संदर्भों से आने वाली महिलाओं के लिए इसका क्या अर्थ हो सकता है। मेरी इच्छा थी कि मैं इस काम में ज़मीनी स्तर की महिलाओं को भी शामिल करुं और उसके बाद सामूहिक रुप से ज्ञान का निर्माण करना चाहती थी। मैं चाहती थी कि वे अपने जिए हुए अनुभव बांटें – ताकि हम एक साथ मिलकर सोचें और उनके अर्थ निकालें – हमें एक ग़ैर-क्रमिक, गैर-न्यायिक, गैर-खतरे वाले वातावरण की आवश्यकता थी। मैंने जिस शोध पद्धति का अनुसरण किया उसका नाम ‘फ़ेमिनिस्ट कॉपरेटिव इंक्वायरी’ है। इसमें प्रतिभागी सह-शोधकर्ता हैं और अनुसंधान के सभी चरणों में निर्णय लेने में शामिल हैं।

मैं इस शोध में प्रमुख शोधकर्ता (रिसर्च फैसिलिटेटर) भी थी और इसका विषय भी। शोध में मेरे को-रिसर्चर कोरो के मेरे मित्र और सहकर्मी थे जिनमें से कुछ को मैं दो दशकों से जानती थी। द्वारका, पारधी नाम की एक ग़ैर-अधिसूचित जनजाति से हैं। इस जनजाति से जुड़ी कई बातों के चलते उन्हें आज भी लोगों के बुरे बर्ताव का सामना करना पड़ता है। मुमताज़ और अनवरी कम-आय वाले शहरी समुदायों की मुसलमान हैं; शीला, अनीता और विनया शहरी और ग्रामीण इलाक़ों के दलित समुदायों से आती हैं; पल्लवी एक कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाली मराठा है; और मैं एक ब्राह्मण हूं जिसे जीवन में कई तरह के विशेषाधिकार प्राप्त हैं। आठ सह-शोधार्थियों में से पांच शोधार्थी या तो निरक्षर हैं या फिर उन्होंने नौवीं कक्षा तक की पढ़ाई की है। हम सभी का सामाजिक स्थान अलग-अलग है और हमारी अपनी समस्याएं हैं। हम सभी इस शोध प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में शामिल थे (थीसिस के लेखन को छोड़कर जो मैंने अंग्रेजी के अपने ज्ञान के कारण अकेले किया था)।

अध्ययन के दौरान हमने एक दूसरे के साथ अपने जीवन की घटनाओं को बांटा। मैंने उनमें से प्रत्येक के साथ सात या आठ घंटे तक बातचीत की। फिर उन सभी सातों ने हमारी बातचीत की प्रक्रिया के दौरान विकसित और तय दिशा-निर्देशों के अनुसार मेरे साथ बातचीत की। हम छः दिनों तक एक साथ रहे और इस बात का विश्लेषण किया कि हमने क्या साझा किया था और कुछ चीज़ें क्यों घटित हुई थीं।

इस दौरान मैंने संवाद और सह-रचनात्मकता की शक्ति को समझा। मुझे याद है कि मैंने अपने सह-शोधार्थियों के साथ अपने जीवन की कहानी बांटी थी। मेरी कहानी सुन कर अनवरी ने कहा था कि उसका जीवन मेरे जीवन से कितना अलग था क्योंकि उसे कभी स्कूल जाने की अनुमति थी ही नहीं। उसने कहा कि “आपके बचपन की सभी कहानियां शिक्षा और स्कूल से जुड़ी हुई हैं; आपके बचपन की सभी कहानियां आपके स्कूल के शिक्षकों और शिक्षा के दौरान आपके माता-पिता के साथ के बारे में बताती है। मैं इस बात से बहुत परेशान हूं कि हम एक दूसरे से बहुत अलग हैं।” अनवरी कभी स्कूल नहीं गई थी इसलिए उसका बचपन मेरे बचपन से बहुत अलग लग रहा था। 

जीवन के सभी पहलुओं में जमीनी स्तर के अनुभव और ज्ञान की मान्यता और सम्मान होना चाहिए।

मेरी पारधी सहयोगी द्वारका ने बताया कि उसे लगता था कि केवल उसके समुदाय ने दुख सहा है। उसने कहा “जब आप बोल रही थीं तब मुझे एहसास हुआ कि ब्राह्मण या आदिवासी सभी को दुख झेलना पड़ता है।” ये संवाद हमारे बीच की समानताओं को खोजने के लिए नहीं किए गए थे। इनका अर्थ हमारी विविधताओं का सम्मान करना और अपने अनुभव के अंतरों को समझने के साथ ही समान परिस्थितियों के बारे में जानना था। यह इस प्रकार की बातचीत थी जिसके कारण अंतर्विरोध और सशक्तिकरण की हमारी समझ विकसित हुई। यह सब इसलिए संभव हुआ क्योंकि हमने इस अध्ययन के लिए एक साथ ज्ञान का निर्माण करने का निर्णय लिया।

मेरा मानना है कि जब लोगों को पता चलता है कि वे दूसरों से अलग क्यों हैं या वे अपने जीवन के सफ़र में इतनी अलग जगहों या मोड़ पर क्यों हैं तो यह बहुत उम्मीद देने वाला होता है। 

बात यह है कि जीवन के सभी पहलुओं में जमीनी स्तर के अनुभव और ज्ञान को मान्यता मिलनी चाहिए और उसका सम्मान होना चाहिए। ज़मीनी स्तर के ज्ञान और मूल्यों की पहचान के लिए हमें खुद को कोरो या ऐसे किसी अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं तक सीमित नहीं कर लेना चाहिए। एक समाज के रूप में हमें ज़मीनी स्तर के ज्ञान और अनुभवों की अपनी सोच और काम में शामिल करने लायक बनने की आवश्यकता है। मैं जिस सवाल का जवाब देने की कोशिश कर रही हूं वह यह है: हम वहां तक कैसे पहुंचते हैं? क्या संतुलित और समान विकास को हासिल करने के लिए यह एक सामाजिक ज़रूरत बन सकता है?

आपको क्या लगता है कि यह सामाजिक स्तर पर कैसे हो सकता है?

1. यह केवल संवाद करने, बांटने और सीखने के माध्यम से हो सकता है।

हर मनुष्य और उसका सामाजिक परिवेश अलग-अलग होता है। इसलिए, सामाजिक परिवर्तन के लिए डिजाइनिंग भी एक जटिल प्रक्रिया होगी। इन परिवेशों और जटिलताओं को समझने के लिए हमें समुदायों के साथ मिलकर समाधान तैयार करने की आवश्यकता है। आज हम में से अधिकांश लोग साइलो या विभाजित तरीक़े से काम करते हैं। इसी स्थिति में संवाद की ज़रूरत पैदा होती है क्योंकि इसमें सीमाओं को समाप्त करने की क्षमता होती है। संवाद की पूरी प्रक्रिया उथल-पुथल वाली होती है लेकिन इससे होने वाले फ़ायदे के सामने इसकी असहजता को नज़रअन्दाज़ किया जा सकता है।

2. हमें अपनी मानसिकता को बदलने की ज़रूरत है

इस पूरी यात्रा का संबंध सह-यात्रा, पारस्परिक साझाकरण और सीखने से है। एक समाज के रूप में हमें यह समझने की ज़रूरत है कि आखिरकार हम सभी की स्थिति एक जैसी ही है। “हम” और “उन” के बीच यह झूठा भेदभाव करते हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि हम जितना समझते हैं, उससे कहीं ज्यादा हम एक दूसरे के जैसे हैं।

हमें इन सीमित करने वाले विचारों से निकलने और उनसे परे देखने की ज़रूरत है जिसके कारण हमें यह लगता है कि ज़मीनी स्तर पर जी रहे लोगों को “हमारी ज़रूरत है”। समान स्तर पर आकर उनके साथ जुड़ने के बाद ही हमें इस बात का अहसास होगा कि हम लोग उनसे भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।

3. हमें अपने जिए हुए अनुभवों के ज्ञान को महत्व देना चाहिए

समुदायों को अवधारणा से लेकर निष्पादन तक, सामाजिक परिवर्तन के तरीक़े तय करने की प्रक्रिया का हिस्सा बनने की आवश्यकता है। हालांकि सोशल सेक्टर में स्वयंसेवी संस्थाओं और समुदायों के बीच का संबंध बराबरी का नहीं होता है, खासकर जब बदलाव लाने के लिए ज्ञान के निर्माण की बात आती है।

लेकिन क्या होगा अगर हम समुदायों को देखने के तरीके को बदल दें और उन्हें ज्ञान निर्माता के रूप में भी देखें? क्या होगा अगर उन्हें सिखाने की बजाय, हम उनके साथ उनके सामाजिक संदर्भ, उनकी जीवन की वास्तविकताओं, उनके जीवन संघर्षों और उनकी सीखों के आधार पर सह-निर्माण करें? क्या होगा यदि हम ज्ञान के निर्माण और समाधानों पर सामूहिक रूप से काम करें? हमारे क्षेत्र में समुदायों की सेवा का इरादा रखने वाली इकाइयों को समुदायों और संगठनों के बीच शक्ति के असंतुलित विभाजन को ठीक करने की ज़रूरत है।

ज्ञान औपचारिक डिग्री से परे है।

दूसरा, ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया का संबंध अकादमिक जगत से है और शिक्षाविदों को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए कि इस ज्ञान को कैसे महत्व देना है। मैं काफ़ी लम्बे समय से यह मानती आई हूं कि ज्ञान औपचारिक डिग्री से परे है। फिर भी अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों को कागज़ी योग्यता की ज़रूरत होती है और वे सामग्री और विषय से ज़्यादा अकादमिक भाषा और प्रस्तुति को महत्व देते हैं।

नए ज्ञान को उजागर करने में मदद करने के लिए शिक्षाविदों की भूमिका महत्वपूर्ण है। विशेष रूप से जमीनी स्तर के समुदायों से जिनके अनुभव कई मुद्दों पर समकालीन बहस के लिए बहुत अच्छे से भीतरी नज़र का काम कर सकते हैं। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि अकादमिक संस्थानों की अपनी साख और विश्वसनीयता है और समाज में ज़मीनी स्तर के ज्ञान की महत्ता में बदलाव ला सकता है। संस्थानों को डिग्रियों से परे देखना चाहिए और ऐसे कार्यक्रम तैयार करने चाहिए जिसमें इस तरह के ज्ञान को सबके सामने लाने में मदद मिल सके। समय के साथ लगातार ऐसा करने से ‘औपचारिक रूप से शिक्षित’ और जमीनी स्तर के समुदायों के बीच ज्ञान निर्माण में उपस्थित पावर डायनमिक्स की असमानता को दूर करने में मदद मिलेगी। यदि हम चाहते हैं कि वास्तविक सामाजिक परिवर्तन हो तो हमें जमीनी स्तर से सीखने की इस प्रक्रिया को शुरू करना होगा। हम अब और इंतजार नहीं कर सकते।

न्यूज़ सोर्स : रचिता वोरा, श्रेया अधिकारी-शोध पत्र