हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक, बालाघाट, मप्र

आश्विन माह में शरद पूर्णिमा के दिन महर्षि वाल्मीकि प्रगट हुए। वाल्मीकि वैदिक काल के महान गुरु, यथार्थवादी और चतुर्दशी ऋषि हैं। महर्षि वाल्मीकि को कई भाषाओं का ज्ञान था। संसार का पहला महाग्रंथ श्री रामायण रचकर आदि कवि होने का गौरव पाया। वाल्मीकि ने कठोर तप के पश्चात महर्षि की उपाधि प्राप्त की। उनके द्वारा रचित रामायण को पढ़ें तो पता चलता है कि महाग्रंथ में प्रभु श्रीराम के जीवन से जुड़े सभी महत्वपूर्ण पहलुओं के समय पर आकाश में देखी गई खगोलीय स्थितियों का विस्तृत एवं सारगर्भित उल्लेख है।  यथेष्ठ, महर्षि वाल्मीकि खगोल विद्या और ज्योतिष शास्त्र के भी प्रकांड पंडित माने गए।

यथार्थ जब माता कौशल्या ने श्रीराम को जन्म दिया उस समय सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि और बृहस्पति  ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में विद्यमान तथा लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान था। यह वैदिक काल से भारत में ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति बताने का तरीका रहा है। बिना किसी परिवर्तन के आज भी यही तरीका भारतीय ज्योतिष का मूलाधार है। प्रसंग, मान्यताएं है कि महर्षि वाल्मीकि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र प्रचेता की पहली संतान हैं। उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भृगु था। कहा जाता है कि इन्हें बचपन में एक भील चुरा ले गया था जिससे इनका लालन-पालन भील प्रजाति में हुआ। इसी कारण, वह बड़े हो कर डाकू रत्नाकर बनें और जंगलों में अपना काफी समय बिताया।  रत्नाकर परिवार का पालन करने के लिए लूटपाट करते थे। 

एक बार उन्हें निर्जन वन में नारद मुनि मिले तो रत्नाकर ने उन्हें लूटने का प्रयास किया। तब नारद जी ने रत्नाकर से पूछा कि तुम यह निम्न कार्य किसलिये करते हो। इस पर रत्नाकर ने जवाब दिया कि अपने परिवार को पालने के लिए। इस पर नारद ने प्रश्न किया कि तुम जो भी इतने अपराध जिस परिवार के लिए करते हो क्या वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार होंगे? यह जानकर वह स्तब्ध रह जाता है। नारदमुनि ने कहा कि हे रत्नाकर यदि तुम्हारे परिवार वाले इस कार्य में तुम्हारे भागीदार नहीं बनना चाहते तो फिर क्यों उनके लिये यह पाप करते हो। इस बात को सुनकर उसने नारद के चरण पकड़ लिए। बाद डाकू का जीवन छोड़कर तपस्या में लीन हो गए। कई सालों तक कठोर तप के बाद उनके शरीर पर दीमकों ने बांबी बना ली, इसी वजह से उनका नाम वाल्मीकि पड़ा।

जब नारद जी ने इन्हें सत्य के ज्ञान से परिचित करवाया तो उन्हें राम-नाम के जप का उपदेश भी दिया था। परंतु वह राम-नाम का उच्चारण नहीं कर पाते तब देव ऋषि नारद ने विचार करके उनसे मरा-मरा जपने के लिये कहा। मरा रटते-रटते यही राम हो गया। निरन्तर जप करते-करते हुए वह ऋषि वाल्मीकि बन गए। उतरोक्त्तर, एक पक्षी के वध पर जो श्लोक महर्षि वाल्मीकि के मुख से निकला था। वह परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा से निकला था। यह बात स्वयं ब्रह्मा जी ने उन्हें बताई थी। उसी ब्रह्म ज्ञान के बाद ही उन्होने महाग्रंथ श्री रामायण की रचना की थी। जो आज भी युगिन से ब्रह्मांड का पुण्य मार्गदर्शक बनकर जंग का तारणहार हैं। येही है राम नाम की महिमा, जो युगों-युगों से मन-मन में गुंज रही हैं।

श्री रामायण की सत्यता, कर्तव्यता, जीवन वृत्तांता, मौलिकता, मर्यादा, मान्यता, ग्राहिता, वैज्ञानिकता और भौगोलिकता इत्यादि से स्पष्ट है कि राम कोई मिथक नहीं, न ही रामायण कोई कल्पना की किस्सागोई है। दशरथ नंदन रघुकुल के 64 वें यशस्वी मर्यादा पुरुषोत्तम नरेश थे। आदिकवि आचार्य वाल्मीकि ने अयोध्या के राजा के रूप में श्रीराम का राज्यारोहण होने के बाद रामायण का अलंकृत करने का श्री गणेश कर दिया था। वाल्मीकि कृत महाग्रंथ में श्रीराम का जीवनचरित संस्कृत के 24 हजार श्लोकों के माध्यम से मानस किया गया है। स्मृति, रामायण में उत्तकांड के अलावा छ: और अध्याय हैं: बालकांड, अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किंधा कांड, सुंदर कांड तथा युद्धकांड राम दर्शन का जीवंतमान सरोवरक हैं। स्तुत्य, रामलीला की कालजयीता अजर-अमर तपोनिष्ठ दिव्य महर्षि वाल्मीकि के श्री चरणों में समर्पित है। मीमांसा योगविशिष्ट, दूरदृष्टि, रचियता देव महर्षि वाल्मीकि जयंती की कोटिश: मंगलकामनाएं…!