सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यौन अपराध से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पॉक्सो अधिनियम) के तहत डिजिटल उपकरणों पर बच्चों से संबंधित पोर्नोग्राफी के वीडियो देखना और उन्हें उपकरण में रखे रहना अपराध है.

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जेबी पार्डीवाला की दो जजों की पीठ ने यह फैसला देते हुए इस मामले में मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया. यह फैसला जिस याचिका पर आया उसमें 'जस्ट राइट फॉर चिल्ड्रन अलायंस' नाम के एक एनजीओ ने मद्रास हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी.

क्या है मामला

जनवरी, 2024 में मद्रास हाई कोर्ट में एक मामले पर सुनवाई हुई, जिसमें पुलिस ने एस हरीश नाम के 28 साल के एक व्यक्ति पर अपने मोबाइल फोन पर बच्चों के दो पोर्नोग्राफिक वीडियो डाउनलोड करने और देखने के लिए पॉक्सो अधिनियम और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत आरोप लगाए थे.

लेकिन अदालत ने यह कहते हुए आरोपों को रद्द करने का आदेश दिया कि दोनों अधिनियमों के तहत आरोप तब बनता है जब इस तरह के वीडियो को साझा किया गया हो. इसके अलावा पॉक्सो अधिनियम के तहत यह भी साबित किया जाना चाहिए कि इस तरह के वीडियो को बनाने के लिए किसी बच्चे या बच्चों का इस्तेमाल किया गया हो.

 अदालत ने स्पष्ट कहा कि सिर्फ इस तरह के वीडियो को देखना अपने आप में अपराध नहीं है. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के इस फैसले को गलत ठहराते हुए कहा है कि ऐसी सामग्री को डिलीट किए बिना और उसके बारे में रिपोर्ट किए बिना अपने उपकरण में रखना अपराध है.

क्या कहते हैं जानकार

कई जानकारों का कहना है कि हाई कोर्ट का फैसला वाकई गलत था और सुप्रीम कोर्ट ने उसे पलट कर और इस मामले में और स्पष्टीकरण दे कर ठीक किया. कुछ जानकार सवाल उठा रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी सामग्री रखने की बात तो की है लेकिन उसे देखना अपराध है या नहीं, यह नहीं बताया.

अधिवक्ता और विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के सह-संस्थापक आलोक प्रसन्ना का मानना है कि यह धारणा गलत है. उन्होंने डीडब्ल्यू को हिंदी बताया, "इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पॉक्सो अधिनियम के भाग 15 के तहत तीन अपराधों को और साफ किया है और स्पष्ट कहा है कि इस तरह की सामग्री देखना भी अपराध है."

लाइव लॉ वेबसाइट के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर ऐसी सामग्री को डाउनलोड नहीं भी किया गया और "सिर्फ देखा गया" तो यह ऐसी सामग्री अपने पास रखने के बराबर होगा, जो पॉक्सो के तहत अपराध है.

इसके अलावा ऐसी सामग्री को डिलीट किए बिना और रिपोर्ट किए बिना अपने पास "सिर्फ रखा" गया है तो यह "प्रसारित करने की नियत" का संकेत माना जाएगा और यह भी पॉक्सो के तहत अपराध है.

क्या होता है अविकसित अपराध

अधिवक्ता और पॉक्सो अधिनियम की जानकार एन विद्या ने  बताया कि इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 'इंकोइट अपराध' या अविकसित अपराध नाम के कानून के एक सिद्धांत का सहारा लिया है. इसका मतलब होता है ऐसे अपराध जो अधूरे हों या प्राथमिक हों. इसका इस्तेमाल आपराधिक इरादों और अपराध करने की तैयारी को साबित करने के लिए किया जाता है. विद्या कहती हैं कि यह कानून के उस मूल सिद्धांत से विरोधाभासी लग सकता है जिसके तहत कहा गया है कि किसी को कोई अपराध करने के लिए सिर्फ सोचने या इरादा रखने के लिए सजा नहीं दी जानी चाहिए.

इसलिए 'इंकोइट अपराध' का इस्तेमाल सिर्फ तभी किया जाता है जब यह स्पष्ट रूप से साबित किया जा सके कि आरोपी अपराध करने की तरफ बढ़ रहा था. विद्या का कहना है कि पॉक्सो के तहत इस तरह की सामग्री का 'पजेशन' यानी आरोपी के पास ऐसी सामग्री का होना उसका अपराध साबित करने के लिए काफी है.

बाध्य करता है अंतरराष्ट्रीय कानून

इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार संधि का भी सहारा लिया. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में भी कहा कि चूंकि भारत ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए हैं, इसके तहत देश 'पोर्नोग्राफिक प्रदर्शनों और सामग्री में बच्चों के शोषणात्मक इस्तेमाल" को रोकने के लिए बाध्य है.

 सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि दूसरे देशों के कानून भी इसी राह पर हैं. अदालत ने विशेष रूप से अमेरिका के कानून का उदाहरण दिया. 2001 में "यूएस बनाम टकर" नाम से जाने जाने वाले एक मामले में अमेरिका की एक अदालत ने स्पष्ट किया अगर कोई व्यक्ति किसी भी तरह की सामग्री पर किसी भी तरह का नियंत्रण दिखाता है तो यह माना जाएगा कि वह सामग्री उसके पास थी.

इसी तरह 2006 में 'यूएस बनाम रॉम' नाम के एक और मामले में एक अमेरिकी अदालत ने फैसला सुनाया कि अगर किसी व्यक्ति ने कोई सामग्री डाउनलोड नहीं की है या अपने पास स्टोर नहीं की है, लेकिन उसे ढूंढा है और उस पर उसका नियंत्रण है, तो यह माना जा सकता है कि सामग्री उसके पास है

सुप्रीम कोर्ट ने देश की सभी अदालतों को आदेश दिया कि वो अब से "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" की जगह "चाइल्ड सेक्सुअल एक्सप्लोइटेटिव एंड एब्यूज मटीरियल (सीएसईएएम) का इस्तेमाल करें.

साथ ही अदालत ने केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय को प्रस्ताव दिया कि वो देश की संसद से अपील करें कि वो पॉक्सो अधिनियम में संशोधन ले कर आए जिसकी बदौलत अधिनियम में भी "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" की जगह "चाइल्ड सेक्सुअल एक्सप्लोइटेटिव एंड एब्यूज मटीरियल (सीएसईएएम) लिख दिया जाए.

अदालत ने सुझाव दिया कि जब तक संसद ऐसा कानून पारित नहीं कर देती तब तक केंद्र सरकार इस संबंध में एक अध्यादेश ला सकती है. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने पॉक्सो अधिनियम के बारे में जागरूकता अभियान चलाने, यौन शिक्षा कार्यक्रमों में सीएसईएएम के बारे में भी बताने, दोषियों की मनोवैज्ञानिक मदद करने और समस्यात्मक यौन आचरण (पीएसबी) वाले युवाओं की पहचान करने और उनकी मदद करने की जरूरत पर भी जोर दिया.

न्यूज़ सोर्स : चारु कार्तिकेय