विगत दिवस मप्र सरकार के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री प्रहलाद पटेल  के एक सुधारवादी बयान से प्रदेश की राजनीति में घमासान मचा हुआ है। इस बयान के कई राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं।  लेकिन इस बयान के क्या मायने हो सकते हैं एवं विकसित देश बनने की परिकल्पना में सामाजिक,राजनीतिक एवं सामुदायिक सुधारवाद की अब क्या आवश्यकता महसूस हो रही है,इस लेख में हम जानने एवं समझने की कोशिश करते हैं।
         सबसे पहले हम राष्टीय विकास नियोजन की वर्तमान स्थिति को देखें तो वैश्विक मंच अनुरूप सतत विकास एसडीजी की दिशा में देश में प्रगति देखी जा रही है, किंतु यह वर्तमान हालातों एवं नीतियों के साथ फिट नहीं बैठ रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्यों की देश में सभी राजनीतिक दल मतदाताओं को अपने प़क्ष में करने कई फ्री योजनाओं का क्रियान्वयन कर रहे हैं। इन योजनाओं से अब जनता की आदत भी सरकार से मांगने वाली बनती जा रही है। साथ ही विकास कार्य में मानव संसाधन का अभाव भी पैदा हो रहा है। 
जबकि विकसित देशों में ऐसा न के बराबर है, अगर है भी तो एक निश्चित डेटाबेस अनुसार सहीं गरीबी के चिन्हान्कन के साथ लाभ मिल रहा हैं किंतु भारत में ऐसा हो रहा होगा ऐसा विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता। 
       विकसित देशों में सामुदायिक विकास को पहली प्राथमिकता में लिया गया हैं, ऐसा इसलिए किया गया जिससे की समुदाय के विकासवादी प्रयासों को सरकारी प्राधिकारों के साथ मिलाकर समुदाय के आर्थिक,सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशाओं में सुधार किया जा सके। 
अब भारत के वर्तमान परिपेक्ष में देखें तो देश की आधी आबादी विकावादी मुद्दों पर स्थानीय लोगों की एकजुटता,सहभागिता एवं संलिप्तता से कोसों दूर हैं। समुदाय को वर्तमान मुद्दों से हटाकर उन्न मुद्दों की ओर मोड़ दिया गया है जिसका समावेशी विकासवाद से कोई प्रत्यक्ष वास्ता नहीं है। 

विकासकार्यों में राजनीति कमिशन एजेंट ज्याद
विकसित देशों में विकास कार्यक्रम समुदाय के सहभागिता पर आधारित होते हैं,किंतु यहां समुदाय को इससे दूर रखने के पूरे प्रयास होते हैं, नौकरशाही एवं राजनीति इच्छाशक्ति का अभाव विकासउन्न्मुख दृष्टिकोण को क्रियान्वित करने में बाधा बना हुआ है। चुने गए जन प्रतिनिधियों से अधिक राजनीतिक दलों के नेतृत्वकर्ताओं का हस्तक्षेप भी विकास में बाधा के कारण बन रहे हैं। 
नेतृत्वकर्ताओं में प्रोजेक्टवाद का अभाव
जनता द्वारा चुने गए नेतृत्वकर्ताओं का मुख्य काम योजनाएं तैयार करवाने के साथ साथ समुदाय की उन्नति के लिए समुदाय को शामिल कर विकास योजनाएं बनाना है लेकिन अब तक देश में इसका अभाव नजर आता है, योजनाओं के जमीनी निर्माण में ने लीडर शामिल हो रहे हैं न समुदाय के जानकारों की सलाह ली जाती है। विकास कार्य प्रोजेक्टिव न होकर प्रस्तावित हैं, साथ ही राजनेता सिर्फ विकास कार्य के लोकापर्ण तक ही सीमित हैं,बहुत कम नेतृत्वकर्ता ही होगे जो जमीनी स्तर पर पहुंचकर प्रगतिशील प्रबंधन की जटिलता को समझ रहे हैं। ऐसे में विकास कार्य टिकाउ न होकर बेढंगे एवं बार बार समाप्त हो जाने वाले हो रहे हैं। 
  विकास कार्य में सामुदायिक भागीदारी न के बराबर
ग्रामीण और उप.शहरी समुदायों के साथ मिलकर काम करना अभी भी चुनौतिपूर्ण बना हुआ है। सामुदायिक भागीदारी और विकासए संधारणीयता और सामूहिक सामाजिक दायित्व के प्रति न समुदाय को समझाया जा रहा न ही इसको लेकर समुदाय आगे आने की कोशिश कर रहा है। सामुदायिक भागीदारी के अभाव में सरकारी संसाधनों का दुरूपयोग होता दिखता है। देश में अधोसंरचना विकास कार्य तो तेजी से हो रहे हैं लेकिन उनके रख रखाव एवं क्रियान्वयन का सिस्टम कमजोर है। 
इस समस्या के हल के लिए विकास एवं निर्माण प्रक्रिया में समुदाय को भी समान जिम्मेदारी के साथ सहभागी बनने आगे आना चाहिए। अगर यह प्रक्रिया हुई तो समाज मांगने के बजाए सरकार में सहभागी बन नव सृजन की ओर आगे बढ़ेगा एवं सरकार से मांगने की बजाए सहभागीता के साथ स्वालंबन के साथ कुछ देने की स्थिति में भी समुदाय खड़ा हो जाएगा। 


 


 

न्यूज़ सोर्स : योगेन्द्र पटेल-सामाजिक-राजनीतिक एवं प्रशासनिक विश्लेषक