देश में 80 प्रतिशत लोगों के आर्थिक हालात ठीक नहीं ,नीति आयोग ने समावेशी विकास के दिए सुझाव

नई दिल्ली। भारत अभी निम्न-मध्य आय वर्ग का देश है और इसका सपना एक समृद्ध और विकसित देश बनना है। समावेशी विकास इस मंजिल तक पहुंचने का सबसे अच्छा तरीका हो सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार विकास समाज के हर वर्ग, गांव-शहर और छोटे-बड़े उद्योग सबके लिए होना चाहिए। इसके बिना विकास स्थायी नहीं होगा। शुरुआत क्वालिटी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से करनी पड़ेगी, क्योंकि अशिक्षित और अस्वस्थ समाज विकसित राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकता। कृषि में लगी देश की 45% वर्कफोर्स को कम करने के लिए उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है। इस वर्कफोर्स को खपाने के लिए इकोनॉमी में संगठित क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ानी पड़ेगी और मैन्युफैक्चरिंग एमएसएमई को बढ़ावा देना होगा। प्रोडक्टिविटी और रोजगार बढ़ाने में स्टार्टअप की क्षमता को देखते हुए उन पर फोकस भी जरूरी है। युवा आबादी के कारण भारत अभी डेमोग्राफिक डिविडेंड की स्थिति में है, लेकिन सिर्फ 51% वर्कफोर्स एंप्लॉयबल है। इसलिए स्किल डेवलपमेंट अहम हो जाता है। ‘विकसित’ श्रेणी में जाने के लिए प्रति व्यक्ति आय के साथ ह्यूमन डेवलपमेंट के तमाम मानकों में छलांग लगानी पड़ेगी। इन उपायों से मजबूत मध्य वर्ग तैयार होगा जो किसी भी देश को विकसित बनाने के लिए जरूरी है। लेकिन जैसा कि नीति आयोग ने ‘विजन फॉर विकसित भारत @ 2047 एन अप्रोच पेपर’ में लिखा है, बड़ी चुनौती मिडल इनकम ट्रैप से बचने की है। इस ट्रैप में फंसने के कारण अनेक देश मध्य आय वर्ग से उच्च आय वर्ग में नहीं जा सके। पिछले 70 वर्षों के दौरान मुश्किल से एक दर्जन मध्य आय वर्ग के देश विकसित श्रेणी में जाने में सफल हुए हैं।
नीति आयोग ने विकसित भारत की एक परिकल्पना भी दी है। उस भारत में प्रति व्यक्ति आय उच्च आय वर्ग के देशों के बराबर होगी, सामाजिक, सांस्कृतिक और संस्थागत विशेषताएं विकसित देशों के समान होंगी, हर नागरिक के लिए अच्छी क्वालिटी के घर, बिजली-पानी की 24 घंटे सप्लाई, हाई स्पीड ब्रॉडबैंड और बैंकिंग सुविधा, विश्वस्तरीय और अफोर्डेबल स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच और सबके लिए अर्थपूर्ण शिक्षा उपलब्ध होगी।
आयोग के अनुसार विकसित भारत में रोजगार और उद्यमिता के अनेक अवसर होंगे, अत्याधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर होगा, इकोनॉमी वैश्विक प्रतिभाओं, व्यापार और पूंजी को आकर्षित करने वाली होगी, मैन्युफैक्चरिंग, सर्विसेज, कृषि, रिसर्च और डेवलपमेंट तथा इनोवेशन में भारतीय कंपनियां चैंपियन होंगी। गांवों का जीवन स्तर शहरों के बराबर होगा और ग्रामीणों की औसत आय देश की प्रति व्यक्ति आय के समान होगी।
आमदनी का पैमाना
आयोग के मुताबिक, विकसित देश बनने के लिए 2047 तक भारत की इकोनॉमी का आकार 30 ट्रिलियन डॉलर और प्रति व्यक्ति जीडीपी 18,220 डॉलर होनी चाहिए। अभी इकोनॉमी 3.36 ट्रिलियन डॉलर और प्रति व्यक्ति आय 2392 डॉलर है। इस हिसाब से इकोनॉमी का आकार 9 गुना और प्रति व्यक्ति आय 8 गुना करने की जरूरत है। मध्य आय से उच्च आय वर्ग में जाने के लिए 20 से 30 वर्षों तक हर साल 7% से 10% ग्रोथ चाहिए।
किसी देश के विकसित होने का प्रमुख पैमाना है प्रति व्यक्ति आय। इस पैमाने पर वर्ल्ड बैंक देशों को चार श्रेणी में बांटता है। 1 जुलाई 2024 से लागू नए पैमाने के मुताबिक प्रति व्यक्ति सालाना 1145 डॉलर तक सकल राष्ट्रीय आय (जीएनआई) वाले देश निम्न, 1146 से 4515 डॉलर वाले निम्न मध्य, 4516 से 14005 डॉलर वाले उच्च मध्य और 14005 डॉलर से अधिक आय वाले देश उच्च वर्ग में आते हैं। वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2023 में भारत की प्रति व्यक्ति जीएनआई 2540 डॉलर थी। इस लिहाज से यह अभी निम्न मध्य आय वर्ग में है। वर्ल्ड बैंक इस पैमाने में हर साल संशोधन करता है, जिसमें आय की सीमा बढ़ती जाती है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) अपने वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक में विकसित (एडवांस), उभरते (इमर्जिंग) और विकासशील (डेवलपिंग) देशों में अंतर के लिए प्रति व्यक्ति आय के अलावा दो और पैमाने रखता है। पहला है निर्यात में विविधता। तेल निर्यातक देशों की प्रति व्यक्ति आय अधिक होने पर भी वे एडवांस देशों की श्रेणी में नहीं आते, क्योंकि उनका 70% से ज्यादा निर्यात तेल का ही होता है। दूसरा है ग्लोबल फाइनेंशियल सिस्टम के साथ जुड़ाव।
शिक्षा और स्वास्थ्य को प्राथमिकता
समावेशी विकास सिर्फ आर्थिक विकास नहीं है। यह भी जरूरी है कि देश का नागरिक कितना स्वस्थ और शिक्षित है। जेएनयू के रिटायर्ड प्रोफेसर और अर्थशास्त्री अरुण कुमार कहते हैं, “हमें शिक्षा का स्तर सुधारना पड़ेगा। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) बताती है कि 14 से 18 साल की उम्र के 40% बच्चे दूसरी कक्षा की पढ़ाई नहीं कर सकते। मेरा मानना है कि 95% बच्चों की शिक्षा ऐसी नहीं कि वे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धी बन सकें।”
ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल ऑफ गवर्मेंट एंड पब्लिक पॉलिसी में इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर डॉ. अवनींद्र नाथ ठाकुर के अनुसार, “शिक्षा से बहुत सी चीजें सुधर जाती हैं। कानून व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और प्रोडक्टिविटी बेहतर होती है।” इसमें सरकार की भूमिका को अहम मानते हुए वे कहते हैं, “भारत की तुलना में अमेरिका की प्रति व्यक्ति आय 32 गुना है। इसके बावजूद वहां शिक्षा और स्वास्थ्य पर जीडीपी की तुलना में खर्च भारत से ज्यादा है। वहां बजट का 6% शिक्षा पर और 3% स्वास्थ्य पर खर्च होता है। यूरोपीय और स्कैंडिनेवियाई देशों में यह अनुपात और अधिक है।” भारत में यह दो से तीन प्रतिशत है।
उनके मुताबिक, 70% से 80% लोगों की हालत ऐसी नहीं कि वे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकें। इसका मतलब है कि हम इतनी बड़ी आबादी की पूरी क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षा के लिए टाइम फ्रेम बहुत छोटा होता है, लगभग 15 साल। अगर इन वर्षों में बच्चों को शिक्षित नहीं किया तो वह पूरी पीढ़ी लायबिलिटी बन जाएगी।
ठाकुर कहते हैं, “सबसे बड़ी चुनौती क्वालिटी हेल्थ और एजुकेशन की है। अगर हमने तत्काल कदम नहीं उठाए और निवेश नहीं किया तो युवा पीढ़ी को एसेट में बदलना मुश्किल हो जाएगा।” उनके मुताबिक, भारत में स्वास्थ्य पर निजी खर्च (आउट ऑफ पॉकेट) बहुत ज्यादा है। निम्न और मध्य आय वर्ग आमदनी का बड़ा हिस्सा शिक्षा और सेहत पर खर्च करेगा तो उसके पास बाकी निवेश के लिए पैसे नहीं बचेंगे। इन खर्चों की वजह से लोग ‘लो इनकम लो इन्वेस्टमेंट ट्रैप’ में फंस जाते हैं।
क्वालिटी शिक्षा का महत्व बताते हुए दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के पूर्व प्रमुख सीनियर प्रोफेसर सुरेंद्र कुमार कहते हैं, “हमने यूनिवर्सिटी तो बहुत सारी खोल दी हैं, इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज भी अनेक हो गए हैं, लेकिन अच्छी रेटिंग वाले संस्थान कितने हैं? आईआईटी-आईआईएम में भी जो पुराने हैं, उनका ही नाम आता है। हमने एम्स खोले तो बहुत, लेकिन नाम सिर्फ दिल्ली एम्स का होता है। अनेक जगहों पर तो फैसिलिटी और फैकल्टी का अभाव है।”
ठाकुर के अनुसार, ज्यादातर देशों में स्किल से जुड़ी जो भी क्रांति हुई उसमें सरकारी संस्थानों से निकले लोगों का योगदान बड़ा था। सरकारी संस्थान या मदद नहीं होने पर यह अवसर संभ्रांत लोगों तक सीमित हो जाएगा। निचले 70% लोग उस अवसर का लाभ उठाने से चूक जाएंगे। इसलिए हमें ऐसी नीति अपनानी पड़ेगी जिससे हर वर्ग की प्रतिभा को सामने लाकर उसका इस्तेमाल किया जा सके।
वर्ष 2018-19 के इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार भारत का डेमोग्राफिक डिविडेंड 2041 में शिखर पर होगा। उस समय की आबादी में कामकाजी उम्र वाले 20 से 59 साल के लोग 59% होंगे। नीति आयोग के मुताबिक, दुनिया की आबादी बूढ़ी हो रही है लेकिन भारत और अफ्रीका वर्किंग एज आबादी का स्रोत बनेंगे। कुल 144 करोड़ आबादी के साथ भारत दुनिया के सबसे युवा देशों में एक है। यहां की औसत आयु 29 साल है। करीब 50% आबादी 25 साल से कम उम्र की है। दुनिया के 20% युवा भारत में ही हैं। यह स्थिति 2047 तक रहने की उम्मीद है। दुनिया के सबसे ज्यादा स्टेम (STEM) ग्रेजुएट भारत में हैं। हर साल 20 लाख ऐसे ग्रेजुएट निकलते हैं जिनमें 43% महिलाएं होती हैं।
ग्लोबल कंसल्टेंसी फर्म ईवाई के अनुसार, विकसित देशों के साथ कुछ विकासशील देशों में भी लोगों की औसत उम्र बढ़ने के कारण भारत एडवांटेज की स्थिति में है। भारत की करीब 26% आबादी 14 साल से कम और 67% आबादी 15 से 64 साल की है। 65 साल या इससे अधिक के सिर्फ 7% लोग हैं। इसके विपरीत 65 साल से अधिक वाले अमेरिका में 17% और यूरोप में 21% हैं। ईवाई का आकलन है कि वर्ष 2030 तक भारत में कामकाजी उम्र वाली आबादी 104 करोड़ होगी। अगले एक दशक में दुनिया में आने वाली नई वर्कफोर्स में 24.3% भारतीय होंगे।
विशेषज्ञों के अनुसार, इस डिविडेंड का लाभ लेने में तीन प्रमुख चुनौतियां हैं- उच्छ शिक्षा उपलब्ध कराना, शिक्षित युवाओं को रोजगार देना और रोजगार के लायक स्किल उपलब्ध कराना। प्रो. सुरेंद्र कुमार कहते हैं, “प्रोडक्टिव रोजगार उपलब्ध नहीं कराएंगे तो वह वर्ग डिविडेंड के बजाय लायबिलिटी बन जाएगा। आज यही हो रहा है। हमें शिक्षा और रोजगार दोनों पर काम करना पड़ेगा।”
अभी इंडस्ट्री की जरूरत और उपलब्ध स्किल में काफी अंतर है। मैनपॉवर ग्रुप एंप्लॉयमेंट आउटलुक (2023) के अनुसार बेहतर प्रतिभा वाले श्रमिकों की भर्ती करना 79% उद्योगों के लिए चुनौती भरा था। भारत के पास कम स्किल वाली लेबर फोर्स की भरमार है। इसलिए विकास के एजेंडे में उनका ध्यान रखना जरूरी है।
प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “डिविडेंड तभी होगा जब अच्छी शिक्षा और रोजगार होंगे, युवा प्रोडक्टिव होंगे, लेकिन भारत में युवाओं में बेरोजगारी दर सबसे ज्यादा है। अभी सबसे बड़ी समस्या तो यही है कि 95% युवाओं को अच्छी शिक्षा नहीं मिलती और शिक्षित युवाओं के सामने रोजगार की समस्या है। हम डेमोग्राफिक डिविडेंड के बजाय डेमोग्राफिक डिजास्टर की ओर बढ़ रहे हैं।” डॉ. अवनींद्र ठाकुर मानते हैं, “अगर हमने अभी इस अवसर को खोया तो शायद इसे हमेशा के लिए खो देंगे।”
डेमोग्राफी का फायदा मिलने का समय इसलिए भी सीमित है, क्योंकि भारत में आबादी बढ़ने की रफ्तार कम हो रही है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के मुताबिक प्रति महिला टीएफआर (एक महिला कितने बच्चों को जन्म देती है) 2.0 हो गई है, जो 2.1 की रिप्लेसमेंट दर से कम है। टीएफआर 2026-30 के दौरान 1.80 और 2031-35 के दौरान 1.72 रहने का अनुमान है। भारतीय नागरिकों की औसत उम्र 2021 में 28.4 साल थी, जो 2036 में 34.7 साल हो जाएगी। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, वर्ष 1971-81 के दौरान आबादी हर साल औसतन 2.5% बढ़ रही थी, जो 2011-16 के दौरान 1.3% रह गई। वर्ष 2031-41 में 0.5% से भी कम रह जाएगी। जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों में अभी यह दर है।
बदलना होगा इकोनॉमी का ढांचा
विकसित देशों में जीडीपी और रोजगार का बड़ा हिस्सा इंडस्ट्री से आता है। डॉ. अवनींद्र ठाकुर कहते हैं, “विकसित अर्थव्यवस्था में संगठित क्षेत्र सबसे बड़ा होता है। अमेरिका में 98%-99% संगठित क्षेत्र ही है, फ्रांस में तो कृषि भी संगठित है। असंगठित से संगठित में जाने का एक फायदा यह है कि हमें मालूम होता है कि इकोनॉमी की दशा-दिशा क्या है। हम उसी हिसाब से नीतियां बना सकते हैं और उसके असर को भी देख सकते हैं।”
आरबीआई के डिप्टी गवर्नर माइकल देबब्रत पात्रा ने पिछले दिनों एक भाषण में कहा, “भारत की 80% से ज्यादा वर्कफोर्स असंगठित क्षेत्र में है। भारत का भविष्य नौकरियों को संगठित बनाने में है। इस लिहाज से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की भूमिका केंद्रीय हो जाती है।” वर्ष 2021-22 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार 2019-20 में जो नई वर्कफोर्स आई उनमें 98% असंगठित क्षेत्र में गई। वर्ष 2019-20 में 89% वर्कफोर्स असंगठित क्षेत्र में थी।
एक और समस्या है कि इंडस्ट्री जिस रफ्तार से बढ़ रही है, रोजगार उस रफ्तार से भी नहीं बढ़ रहे क्योंकि ज्यादातर इंडस्ट्री कैपिटल इंटेंसिव हो रही हैं। प्रो. सुरेंद्र इसे स्ट्रक्चरल बदलाव से जोड़ कर देखते हैं। ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) में कृषि का हिस्सा 1990-91 में 33.91% था, जो 2018-19 में घट कर 19.77% पर आ गया। रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी भी 63.30% से घट कर 41.67% पर आ गई। लेकिन कृषि में रोजगार में आई गिरावट मैन्युफैक्चरिंग में नहीं खपी। रोजगार में मैन्युफैक्चरिंग का हिस्सा 10.68% से मामूली बढ़ कर 11.16% ही हुआ। यही नहीं, जीवीए में इंडस्ट्री का हिस्सा 19.60% से घट कर 16.35% रह गया। टेक्नोलॉजी के विकास के साथ ज्यादा पूंजी निवेश और हाई स्किल वाले कर्मचारियों की मांग बढ़ी, लेकिन कुल श्रम बल की मांग घटी।
एंप्लॉयबिलिटी बढ़ाना जरूरी
एसएंडपी ग्लोबल मार्केट इंटेलिजेंस के मुताबिक विशाल वर्कफोर्स भारत को ग्लोबल डिजाइन और मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने में मदद कर सकती है। लेकिन इसके लिए श्रमिकों की स्किलिंग क्षमता बढ़ाने की जरूरत है। देबब्रत पात्रा के अनुसार, “भारत के लिए चुनौती यह है कि सिर्फ 51% वर्कफोर्स एंप्लॉयबल है। स्किल बढ़ाने की बड़ी जरूरत है, ताकि स्किल गैप कम हो और एंप्लॉयबिलिटी बढ़ाई जा सके।” पात्रा के अनुसार, “शिक्षित लेबर फोर्स का योगदान तभी श्रेष्ठ होता है जब इन्फ्रास्ट्रक्चर भी उच्च क्वालिटी का हो। भारत में प्रति व्यक्ति इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश की दर 2020 में 90.6 डॉलर थी। विश्व स्तरीय बनने के लिए इन्फ्रा में निवेश वृद्धि दर 3.5% से बढ़ा कर कम से कम 6% करने की जरूरत है।”
एसएंडपी ने कहा है कि एआई और रोबोटिक्स जैसी नई टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में स्किलिंग पर फोकस होना चाहिए। स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर करने और बढ़ाने की जरूरत है ताकि लोग ज्यादा उम्र तक काम कर सकें। शिक्षा, स्किलिंग, सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण तथा स्वच्छता जैसे बेहतर सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर से ज्यादा प्रोडक्टिव वर्कफोर्स तैयार होगी।
स्किल गैप दूर करने के लिए उच्च शिक्षा अहम है। डॉ. ठाकुर कहते हैं, “आज जो स्किल डिमांड में है कल उसकी जरूरत कम हो जाएगी, उसकी जगह मशीन ले लेगी। इसलिए उच्च शिक्षा बहुत जरूरी है। लोगों को इस लायक बनाना पड़ेगा कि वे कोई भी नया स्किल हासिल कर सकें।”
प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, अगले कुछ वर्षों के दौरान युवाओं की संख्या काफी तेजी से बढ़ेगी। लेकिन दूसरी ओर, चैट जीपीटी जैसे टूल के एडवांस लेवल आने पर बहुत से स्किल्ड जॉब भी खत्म हो जाएंगे। वे सवाल करते हैं, “अभी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल शुरू हुआ है तब बेरोजगारी की यह हालत है, तो आगे चलकर जब मशीनों की भूमिका बढ़ेगी तब क्या होगा?”
छोटी होती जोत किसानों की आय बढ़ाने में बड़ी बाधा है। वर्ष 2010-11 में दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसान 84.9% थे, और कृषि जनगणना 2015-16 में ऐसे किसानों का अनुपात बढ़ कर 86.1% हो गया। वर्ष 2019 के नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के अनुसार दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसान परिवार 89.4% हो गए।
किसान संगठन भारत कृषक समाज के चेयरमैन अजय वीर जाखड़ का मानना है कि उत्पादकता बढ़ाने के लिए कृषि रिसर्च में निवेश दोगुना करना पड़ेगा। वे बताते हैं, “कृषि रिसर्च में निवेश का 10 गुना रिटर्न मिलता है। सरकार एक रुपया लगाती है तो देश को 10 रुपये का रिटर्न मिलता है। लेकिन पिछले 20 वर्षों में कृषि में 90% मौकों पर आरएंडडी पर खर्च में हुई वृद्धि महंगाई दर से कम रही है। यानी खर्च वास्तव में घटा है। यह खर्च कम से कम दोगुना करना पड़ेगा, तभी प्रोडक्टिविटी बढ़ेगी।”