पत्रकार रजनी बख्शी से बातचीत , समाज में बदलाव के लिए सही नेतृत्व का चयन जरूरी है
ग्रासरूट नेशन, रोहिणी नीलेकणी फ़िलैंथ्रोपीज का एक पॉडकास्ट है जो हमारे देश में सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र में नेतृत्व कर रहे कुछ बड़े नामों के जीवन और काम पर गहराई से प्रकाश डालता है। इस एपिसोड में संजीत रॉय, जिन्हे बंकर रॉय के नाम से जाना जाता है, सामाजिक कार्य एवं अनुसंधान केंद्र, अब बेयरफुट कॉलेज के नाम से प्रसिद्ध, की कहानी बता रहे हैं। पत्रकार रजनी बख्शी के साथ अपनी इस बातचीत में रॉय ने अपनी इस यात्रा में आने वाली चुनौतियों और उनसे मिलने वाले सबक की एक रूपरेखा प्रस्तुत की है।
इस बातचीत का कुछ हिस्सा आप यहां पढ़ सकते हैं:
बेयरफुट का निर्माण
बंकर: मैं 1965 में बिहार में पड़ने वाले अकाल को देखने गया था। मेरे वहां जाने का एकमात्र कारण मेरी जिज्ञासा थी क्योंकि मैं नहीं जानता था कि भारत कैसा था। मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं थी। ऐसी किसी चीज से मेरा वास्ता ही नहीं पड़ा था। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरा अस्तित्व सीमित है। मैं नहीं जानता था कि वास्तव में भारत कैसा था। इसलिए उस समय, सुमन दुबे ने कहा, ‘हम बिहार क्यों नहीं चलते हैं?’
यह मेरे लिए बहुत ही दर्दनाक अनुभव था, बहुत ज़्यादा दुख देने वाला। मैं अब भी बिहार के अकाल के उन दिनों के बारे में सोचता हूं। मैंने कहा, ‘मैं यहां क्या कर रहा हूं? मुझे सब कुछ सबसे अच्छी तरह का मिल रहा है, कहने को सबसे अच्छी शिक्षा भी और इसे हासिल करने के बाद भी मैं भारत के गांवों के लिए कुछ भी नहीं कर सकता।’ यही वह पल था जब मेरे दिमाग़ में यह विचार कौंधा कि – मुझे कुछ करना है…
मुझे 20,000 रुपये का पहला दान टाटा ट्रस्ट से मिला। इससे हमने भूजल सर्वेक्षण करना शुरू किया और इसमें 110 गांवों का दौरा किया। लेकिन आप जानते हैं कि प्रत्येक संगठन को कई तरह के संकटों का सामना करना पड़ता है। ऐसा कोई संगठन नहीं हो सकता जिसके सामने संकट ना आए हों।
हमने 1972 में शुरू किया था। अरुणा [रॉय] ने 1974 में अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और मेरे साथ आ गईं। अपने प्रशासनिक अनुभव के आधार पर वे कुछ ऐसी व्यवस्थाएं और प्रबंधन प्रणालियां लेकर आना चाहती थीं जिनसे ये पेशेवर नफ़रत करते थे। उनकी नज़र में यह एक अच्छा विचार नहीं था क्योंकि यह थोड़ा ज़्यादा ही पेशेवर होने वाला था। इसलिए हमारा पहला संकट यह रहा कि- जब अरुणा आईं और उन्होंने कुछ प्रणालियों में सुधार लाने का प्रयास किया और तब कई सारे लोगों ने इस पर विरोध जताया। इसलिए उनमें से कई हमसे अलग भी हो गये।
पहला सबक यह है कि कभी भी बाहर के पेशेवरों अर्थात बाहर से आए शहरी पेशेवरों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। हमेशा अपने संगठन के भीतर के लोगों की ही क्षमता और योग्यता को विकसित किया जाना चाहिए क्योंकि वे ही वे लोग हैं जो हमेशा वहां रहने वाले हैं। इस तरह मेरा पहला सबक यही था और मेरी इस सीख से मुझे अब बहुत अधिक मदद मिलती है। क्योंकि मैं सोचता हूं कि हमारे लिए ज़मीनी स्तर का नेतृत्व विकसित करना बहुत आवश्यक है। उनके आधार पर ही आगे संगठन को संचालित किया जाना चाहिए।
इसके बाद दूसरी चीज जो मैंने सीखी वह यह थी कि साक्षरता और शिक्षा में अंतर होता है। देखिए, मार्क ट्वेन ने कहा था कि ‘कभी भी अपनी शिक्षा में स्कूल को हस्तक्षेप मत करने दो।’ स्कूल वह जगह होती है जहां आप पढ़ना और लिखना सीखते हैं। शिक्षा वह होती है जो आप अपने पारिवारिक माहौल और अपने समुदाय से सीखते हैं। इसलिए मुझे यह एहसास हुआ कि हमें इन दोनों में अंतर करना आना चाहिए, हमें केवल इन्हें इसलिए साथ नहीं रखना चाहिए क्योंकि लोग कहते हैं कि ‘अरे साहब वे अशिक्षित हैं।’ मैंने कहा, ‘नहीं, ऐसा मत कहिए। वे असाक्षर हैं, लेकिन अशिक्षित नहीं।’
सही लोगों का चुनाव
रजनी: लेकिन बंकर, जब आप कहते हैं कि इन सब के चलते आप मज़बूत हुए हैं तो इससे आपका मतलब यह है कि आपके संगठन की दूसरी और तीसरी पंक्ति भी इन संकटों से उबरने और उनपर बात करने में शामिल था। आप एक नेतृत्वकारी भूमिका में हैं और फिर भी जब मैं आपके आसपास के लोगों और टीम को देखती हूं तो मुझे कुछ स्पष्ट महसूस होता है। यहां सबमें अधिकार का भाव दिखाई पड़ता है। यह संपूर्ण गतिशीलता कैसे प्राप्त हुई?
बंकर: रजनी, आप बीस साल पहले के समय में जा रही हैं क्योंकि 1979 में जब हम इस संकट से गुजर रहे थे तब हमारा संगठन बहुत ही छोटा था। लेकिन अपने साथ काम करने वाले लोगों का चुनाव जानबूझ कर किया गया था। हमने केवल अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, ओबीसी श्रेणी के लोगों को चुना था और तब वे इतने शक्तिशाली नहीं थे कि उच्च जातियों या राजपूतों, ब्राह्मणों और जाटों को मात दे सकें। इसलिए जब हम संकट से गुजर रहे थे तब वे पृष्ठभूमि में थे। वे चुपचाप हमारी मदद कर रहे थे, लेकिन वे सामने आकर उनके ख़िलाफ़ चिल्लाते नहीं थे और ना ही नारे लगाते थे, क्योंकि तब वहां की स्थिति पूरी तरह से अलग थी। और ऐसे लोगों में हमारे निवेश का परिणाम यह था कि इससे हमें हमारा क़द बढ़ा क्योंकि संकट के बाद भी ये लोग हमारे साथ खड़े थे।
रजनी: इन लोगों के चयन के समय या फिर कहें कि टीम के निर्माण के समय आपने मूल्यों के किस ढांचे को लागू किया था? आप उन लोगों में किन मूल्यों को ढूंढ़ रहे थे?
बंकर: यह तो तय है कि तिलोनिया में हमारे साथ काम करने वाले किसी भी आदमी को न्यूनतम वेतन पर काम करना होगा। उच्चतम और न्यूनतम का अनुपात 1:2 होगा – और हम उस समय का आत्म-मूल्यांकन करेंगे – अब हम ऐसा नहीं करते हैं – बल्कि ऐसा तब करते थे जब हम आगे बढ़ रहे थे, हम अपने प्रदर्शन और संगठन में अपने योगदान का स्व-मूल्यांकन करते थे और एक दूसरे को ईमानदारी, नैतिकता, सहयोग, नवाचार पर अंक देते थे। सौ अंकों में से तीन अंक शैक्षणिक योग्यता के लिए दिया गया था। इससे फर्क़ नहीं पड़ता था कि आप अनपढ़ हैं या नहीं, लेकिन यह संगठन को दिया गया आपका योगदान था।
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सोलर की शक्ति
रजनी: तो बंकर, तिलोनिया में वापस चलते हैं, और अगला फेज जो उभर रहा है मुझे लगता है कि हम इसे ‘सोलर मामा’ फेज कह सकते हैं, मेरे कहने का मतलब है कि, आपने सोलर के लोकप्रिय होने से बहुत पहले इस काम को कर लिया था। इस अनुभव से मिलने वाले वे मुख्य परिणाम कौन से हैं जिन पर यहां आप बात करना चाहेंगे, ताकि जिनके माध्यम से हमें तकनीकी कहानी के सकारात्मक पहलू की संभावनाओं के बारे पता चल सके? तकनीक और लोग और लोकतंत्र तीनों एक साथ।
बंकर: तिलोनिया में हमारे पास दो परिसर हैं और दोनों ही पूरी तरह से सौरऊर्जा से मिलने वाली बिजली पर चलते हैं। हमारे छत पर तीन-सौ किलोवॉट के पैनल लगे हैं जो अगले पच्चीस वर्षों के लिए पर्याप्त हैं। जब तक सूरज चमकेगा तब तक मुझे बिजली की कोई समस्या नहीं होगी। मैंने पूरी दुनिया की लगभग साठ देशों का दौरा किया है – उन साठ से ऊपर देशों में से- तीस से ज्यादा देश अफ़्रीका में हैं। और आप वहां क्या देखते हैं? आपको वहां के गांवों में बहुत बूढ़े पुरुष, स्त्री और बहुत छोटे-छोटे बच्चे दिखाई पड़ते हैं। सभी वयस्क जा चुके हैं। वे रोज़गार ढूंढ़ने के लिए शहरों में चले गये हैं। तो…दिमाग़ में एक बात कौंधती है, यही था ब्रेनवेव! इन सुदूर के गांवों की महिलाओं को सोलर इंजीनियरिंग का प्रशिक्षण क्यों ना दिया जाए? ग्रिड से दूर और जहां बिजली नहीं है…और वे किरासन तेल और मोमबत्तियों पर प्रति माह 10 डॉलर (लगभग 800 रुपए) बर्बाद कर रहे हैं।
रजनी: यह कब की बात है, बंकर? जब आपने ब्रेनवेव पर काम किया था?
बंकर: शायद 1997 में। तो जैसा मैंने कहा, ‘क्यों ना इन महिलाओं को प्रशिक्षित किया जाए? और वे अनपढ़ भी हैं तो क्या हुआ? चलो देखते हैं कि हम उन्हें सोलर इंजीनियरिंग का प्रशिक्षण दे सकते हैं या नहीं।’ इसलिए हमने अफ़गानिस्तान से शुरू किया।
मैं अफ़गानिस्तान गया। वहां हमने तिलोनिया आने के लिए तीन महिलाओं को चुना। उन महिलाओं ने कहा कि, ‘मैं पुरुषों के बिना नहीं जा सकती क्योंकि वे इसकी अनुमति नहीं देंगे।’ इसलिए उनके साथ तीन पुरुष भी आये। शुरुआती छह महीने उनके लिए बहुत ही मुश्किल भरे थे क्योंकि यह गर्मियों का चरम था लेकिन वे सोलर इंजीनियर बन गईं। हमने उन्हें सोलर इंजिन कैसे बनाया? दिखा और सुनाकर। हमारे इस प्रशिक्षण में कुछ भी लिखा या बोला नहीं गया था। हमने लिखे और बोले हुए शब्दों का प्रयोग नहीं किया। हमारे पास एक मैन्युअल (निर्देशपुस्तिका) है जो पूरी तरह से चित्र आधारित है, उसे देखकर आप केवल छह महीनों के भीतर सोलर इंजीनियर बनना सीख सकते हैं। इसका मतलब है कि आप छह महीने में सोलर सिस्टम और सोलर लालटेन के निर्माण, स्थापना, मरम्मत और रखरखाव के तरीक़े सीख सकते हैं। इसकी ख़ूबसूरती यही है कि इसके माध्यम से दुनिया के किसी भी कोने की पैंतीस से पैंतालीस साल के बीच की अनपढ़ महिला सोलर इंजीनियर बन सकती है।
रजनी: दुनिया भर में अपने काम के विस्तार में मिली सफलता का राज क्या है?
बंकर: विश्वास। इसमें सक्षम होने के लिए आपको लोगों पर विश्वास करना होगा। आपको दिखाना होगा …मुझे अफ़्रीका के पूरे समुदाय से बात करने में, एक महिला को भारत भेजने में दो दिन लग जाते हैं। सबसे पहले, लोगों में नाराज़गी है, वे ग़ुस्से में यह सवाल करते हैं कि आप एक महिला को भारत ले जाकर अपना समय क्यों बर्बाद कर रहे हैं? और फिर उन्हें यह समझाने की प्रक्रिया…यह प्रक्रिया को लोगों को उनके मन में व्याप्त डर को समझाने की प्रक्रिया थी- इस बात का डर कि उन्हें अरब देशों में बेच दिया जायेगा या फिर वे कभी वापस नहीं लौट पायेंगे – ये सब बिल्कुल वास्तविक डर हैं। मैंने देखा कि महिलाओं में साहस है, वहां जाने का साहस। क्या आप उन्नीस घंटे लंबी हवाई यात्रा की कल्पना कर सकते हैं? अब तक के अपने जीवन में उसने कभी भी हवाई यात्रा नहीं की थी। क्या आप उसके भारत आने की और अगले छह महीनों तक वहां की भाषा ना बोल पाने की स्थिति कि कल्पना कर सकते हैं?
रजनी: तो एक तरह से यह एक प्रतिबद्धता निर्माण अभ्यास बन गया क्योंकि आप बहुत आसानी से भारत में शिक्षकों का चयन कर सकते थे और उन्हें दुनिया भर के देशों में भेज सकते थे, लेकिन आपने उल्टा रास्ता चुना।
48.10
बॉटम-अप समाधानों की खोज
रजनी: बंकर, फिर यह क्या है, अगर हम भारत को एक बड़े समाज के रूप में देखते हैं, तब इन सभी अनुभवों से होने वाले परिवर्तन के पीछे का संभावित सिद्धांत क्या है? मुझे लगता है कि कम से कम हम सभी को बाहर खड़े होकर देखने से ऐसा ही दिखता है कि आपके इस काम के पीछे का अंतर्निहित अनुमान यह था कि खुद लोग इसकी देखादेखी करने लगेंगे, और जैसा कि आपने बताया, कई जगहों पर यह हुआ भी। फिर भी, इन दृष्टिकोणों ने पूरे देश को सूचित और परिवर्तित नहीं किया है, और मैं सामूहिक स्वैच्छिक क्षेत्र के बारे में बात कर रही हूं। तो फिर यह कैसे होगा?
बंकर: रजनी, साधारण से समाधान को लागू करना सबसे अधिक कठिन होता है। किसी भी ग्रामीण समस्या का कोई शहरी समाधान नहीं हो सकता है। ग्रामीण समस्या का समाधान ग्रामीण ही होता है। हमने उसके बारे में अभी जाना भी नहीं है। हम हमेशा यही सोचते हैं कि कोई बाहर से आएगा और हमारी समस्याओं का समाधान लाएगा, जो कि एक मिथक है। इसे नीचे से आना होगा।
गांधी को बॉटम अप का दृष्टिकोण अपनाना पड़ा, इन सब को आगे ले जाने के लिए नीचे से किसी को बुलाना पड़ा, जिसका मतलब है कि आपको अपने काम को सफल बनाने के लिए लोगों का विश्वास जीतना होगा। हमें तुरंत ऐसा नहीं करना है। हम यह दिखा चुके हैं कि क्या संभव है, लेकिन हम ऐसा करने में सक्षम नहीं हो पाये हैं। यह इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि आपके पास एक विचार है क्योंकि एक तरह …आप जानती हैं, मुझे लगता है कि आज के समय में विकास को सबसे अधिक ख़तरा पढ़े लिखे पुरुषों और महिलाओं से हैं।
रजनी: इसके बारे में थोड़ा विस्तार से बताएं?
बंकर: उनके पास शैक्षणिक व्यवस्था से मिले कुछ विचार हैं जो बहुत ही घातक हैं और जो नियंत्रण से बाहर है। आज की तारीख़ में शिक्षा प्रणाली के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि आपने युवाओं से उनके साहस को छीन लिया है। वे जोखिम उठाना नहीं चाहते हैं। वे कुछ भी लीक से हटकर नहीं करना चाहते हैं। वे असफल नहीं होना चाहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है इसका उन पर किसी तरह का प्रभाव पड़ेगा। आज की सबसे बड़ी समस्या यही है।