पशु सखियों ने बदली गांव की तस्वीर, ब्लैक बकरी से लखपति बन रहीं बहनें
एक साल पहले तक प्रमिला देवी या तो दूसरों के ख़ेतों में मज़दूरी करती या फिर खाली बैठी रहती, लेकिन आज उन्हीं प्रमिला देवी को लोग अब एक अलग नाम से जानते हैं- 'पशु सखी प्रमिला देवी'। बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िले के रतवारा ग्राम पंचायत की 51 साल की प्रमिला देवी स्वयं सहायता समूह की सदस्य हैं, इसी समूह की मदद से वे ब्लैक बंगाल बकरी पालन करती हैं और अब पशु सखी बनकर बकरियों का इलाज भी करती हैं। प्रमिला देवी गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "एक साल पहले जब समूह से जुड़ी तो कुछ सर लोग आए थे, उन्होंने बताया की बकरी गरीब लोगों की गाय होती है, इसे पालने से अच्छी कमाई हो जाएगी।" प्रमिला ने समूह की मदद से 22 हज़ार रुपए में ब्लैक बंगाल नस्ल की बकरियाँ खरीदी और अब वो पशु सखी बनकर बकरी पालकों को सलाह भी देती हैं। प्रमिला आगे बताती हैं, "मैं और मेरी बहु दोनों समूह से जुड़े हुए हैं। हमारी पंचायत के 20 समूह की 400 दीदियों ने बकरी पालन शुरू कर दिया है, इनमें से 12 समूह को मैं देखती हूँ और बाकी एक और दीदी हैं, जो पशु सखी का काम करती हैं। प्रमिला अकेली नहीं हैं, जिन्होंने ब्लैक बंगाल नस्ल की बकरियों का पालन शुरू किया है। हेफर इंडिया के सहयोग से बिहार के वैशाली, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, सीतामढी जैसे छह ज़िलों में साल 2009 से और ओडिशा के मयूरभंज और क्योंझर ज़िले में 2010 से ब्लैक बंगाल नस्ल की बकरी पालन को बढ़ावा दिया जा रहा है। ओडिशा के मयूरभंज ज़िले के कृष्णचंद्रपुर गाँव की जमुना मोहंता ने भी स्वयं सहायता समूह से जुड़ने के बाद बकरी पालन शुरू किया है। 33 साल की जमुना गाँव कनेक्शन से बताती हैं, "बकरी पालन से ये फायदा है, जब कभी भी पैसे की ज़रूरत होती है हम इसे बेच सकते हैं और साल में एक बकरी दो से तीन बच्चे भी दे देती हैं, उसका अलग फायदा है।" जमुना को इस बात की खुशी है कि अब आठवीं में पढ़ने वाले अपने बेटे करन को अच्छे स्कूल में भेज पाती हैं। बकरी पालन शुरू से गाँव में लोगों के लिये कमाई का बेहतर ज़रिया रहा है। लेकिन लोगों के सामने एक ही समस्या आती है, बढ़िया नस्ल की बकरी कहाँ से लाएं, क्योंकि अगर बकरी मिल भी तो गई और अगर सही नस्ल का बकरा नहीं मिला तो आगे नस्ल खराब हो जाती है। लेकिन स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को बकरियों के साथ ही एक बकरा भी उपलब्ध कराए जाते हैं। हेफर इंटरनेशनल इंडिया में पशुधन प्रौद्योगिकी और वन हेल्थ के वरिष्ठ कार्यक्रम प्रबंधक डॉ. अब्दुस सबूर शेख, ब्लैक बंगाल बकरी के फायदे गिनाते हुए कहते हैं, "किसी भी जलवायु में रह लेने वाली बकरियों को ज़्यादा देख रेख की ज़रूरत नहीं होती है, और इनके लिए बाज़ार भी नहीं तलाशना होता है, तभी तो इन्हे गरीबों की गाय कहा जाता है। वह आगे कहते हैं, "भारत में मांस दूध और फाइबर उत्पादन की अलग-अलग क्षमता वाली 28 पंजीकृत बकरी की नस्लें हैं। ब्लैक बंगाल,उस्मानाबादी, बारबरी जैसी अन्य नस्लों के साथ, अपनी मांस गुणवत्ता के लिए जानी जाती हैं। पूरे पश्चिम बंगाल और पड़ोसी राज्यों जैसे बिहार, झारखंड, ओडिशा, असम और त्रिपुरा के कुछ हिस्सों के साथ ही बांग्लादेश में ब्लैक बंगाल बकरियों का पालन किया जाता है।" नर बकरी का भार 25-30 किलो और मादा बकरी का भार 20-25 किलो होता है। यह नस्ल जल्दी तैयार हो जाती है और प्रत्येक ब्यांत में 2-3 बच्चों को जन्म देती है। बकरी 3 से 4 महीने तक 300 से 400 मिलीलीटर दूध देती है। यह बकरी ख़ासतौर पर मांस के लिए पाली जाती है और इनकी खाल भी अच्छी होती है। इस नस्ल की बकरी दो साल में तीन बार बच्चे देती है और एक बार में दो या उससे अधिक बच्चे देती है। हेफर इंडिया स्वयं सहायता समूह को बकरी पालन के साथ ही उनके इलाज, आवास प्रबंधन, चारा, टीकाकरण जैसी सुविधाएं भी उपलब्ध कराता है। साथ ही बकरी पालन के बैंक से लोन लेने में मदद करता है। हेफर इंडिया के वरिष्ठ कार्यक्रम निदेशक, प्रभाकरन राजारथीनम, कहते हैं, "बकरी पालन के लिए हम स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को ट्रेनिंग देते हैं, कि कैसे दो से चार बकरी पाल कर साल में उनकी आमदनी 30 से 40 हजार तक हो सकती है।" ओडिशा और बिहार में स्वयं सहायता समूह की करीब 34,701 सदस्यों को बकरियाँ उपलब्ध कराई गईं हैं। 19वीं पशुगणना के अनुसार देश में बकरी की कुल संख्या 148.88 मिलियन (14.888 करोड़ ) है।