जलवायु परिवर्तन की समस्या को समाप्त करने में अहम रोल अदा कर रहीं महिलाएं
जलवायु संकट, हमारे समय की सबसे बड़ी आपदाओं में से एक है लेकिन यह एक लैंगिक समीकरणों से परे रहने वाला कोई मुद्दा नहीं है। अपनी आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर अधिक निर्भरता, सार्वजनिक निर्णय लेने में भागीदारी की कमी और जमीन तक सीमित पहुंच समेत कई कारणों से महिलाएं जलवायु परिवर्तन से ग़ैर-अनुपातिक रूप से प्रभावित होती हैं। हालांकि इस संकट से निपटने के लिए डिज़ाइन किए गए समाधानों में अक्सर ही महिलाओं को बाहर ही रखा जाता है।
महिलाओं पर जलवायु संकट का प्रभाव भिन्न तरीक़े से पड़ता है दुनियाभर में, जलवायु संकट के कारण विस्थापित हुए लोगों में 80 फ़ीसद महिलाएं हैं। डबल्यूएचओ के अध्ययन के अनुसार मौसम से जुड़ी आपदाओं के दौरान महिलाओं की मृत्यु दर बहुत अधिक होती है। ग्रामीण एवं शहरी, दोनों ही क्षेत्रों की महिलाओं को जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभावों से अलग-अलग तरीक़ों से गुजरना पड़ता है।
उदाहरण के लिए, घरों में पेयजल एवं अन्य कामों में इस्तेमाल के लिए पानी के इंतज़ाम की जिम्मेदारी आमतौर पर महिलाओं के ही कंधे पर होती है। ग्रामीण महिलाओं को ज्ञान, कौशल एवं साधनों तक पहुंचने में उनकी मदद करने वाली समाजसेवी संस्था बज़ वीमेन की संस्थापक उथरा नारायणन बताती हैं कि घटते भूजल संसाधन महिलाओं के लिए मानसिक तनाव का कारण बन गए हैं। वे कहती हैं कि “महिलाएं लगातार इस बात को लेकर चिंतित रहती हैं कि पानी कहां से लाएं। साथ ही, उन्हें परिवार तथा खेती के लिए प्रयोग में लाए जाने वाले पानी के इंतज़ाम पर होने वाले खर्च को लेकर भी फ़िक्रमंद रहती है।” उन्होंने बताया कि देश के कई हिस्सों में अत्यधिक और अप्रत्याशित रूप से होने वाली बारिश के कारण पिछले दो वर्षों में फसलों को होने वाले नुक़सान और उसके चलते उन पर पड़ने वाले कर्ज से भी उनके तनाव का स्तर बढ़ा ही है।
शहरी क्षेत्रों में महिलाओं को अत्यधिक गर्मी और जलभराव के कारण समान मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है।
शहरी क्षेत्रों में महिलाओं को अत्यधिक गर्मी और जलभराव के कारण समान मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है, जो कि शहरों में जलवायु परिवर्तन के सबसे स्पष्ट प्रभावों में से एक है। मानसून के दौरान, भीड़भाड़ वाले शहरी क्षेत्रों में -विशेष रूप से झुग्गियों में – अक्सर ही बाढ़ आ जाती है। उचित बुनियादी ढांचा न होने के चलते इन परिस्थितियों में शौचालय अनुपयोगी हो जाते हैं। ऐसे में जहां पुरुषों के पास नित्यकर्म के लिए बाहर जाने की सुविधा उपलब्ध होती है, वहीं महिलाओं के लिए यह अक्सर ही दूभर हो जाता है।
इसके अतिरिक्त, बाढ़ से डेंगू, मलेरिया और चिकनगुनिया जैसी कई तरह की बीमारियां फैलती है। चूंकि आमतौर पर परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल करने की जिम्मेदारी महिलाओं की होती है इसलिए किसी भी सदस्य के बीमार होने पर महिलाओं पर मानसिक और शारीरिक दोनों ही प्रकार का बोझ बढ़ जाता है। लिंग और शहरी विकास के अंतर्संबंध पर काम करने वाली समाजसेवी संस्था महिला हाउसिंग ट्रस्ट (एमएचटी) की कार्यकारी निदेशक बीजल ब्रह्मभट्ट बताती हैं कि “बाढ़ के कारण होने वाली गंदगी की सफ़ाई और नुक़सान की भरपाई दोनों ही का ज़िम्मा महिलाओं का होता है। इसके अलावा परिवार के किसी बीमार सदस्य की देखभाल का बोझ बढ़ने के कारण उन्हें आर्थिक गतिविधियों में शामिल होने के लिए कम समय मिलता है। नतीजतन इससे उनकी आमदनी प्रभावित होती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं को ऐसे संज्ञानात्मक बोझ का अनुभव करना पड़ता है जिनसे आमतौर पर पुरुष मुक्त होते हैं।
शहरों में घरों का निर्माण वेंटीलेशन को ध्यान में रखकर नहीं किया जाता है। हवादार नहीं होने के कारण इन घरों के अंदर गर्मी बहुत अधिक होती है और यह महिलाओं को विशिष्ट रूप से प्रभावित करती है। बीजल विस्तार से बताती हैं कि अनौपचारिक क्षेत्रों की महिलाएं अपने घरों का इस्तेमाल आर्थिक गतिविधियों के लिए करती हैं। नतीजतन, बहुत गरमी होना उनके स्वास्थ्य को ख़राब करता है और उनकी उत्पादकता में लगातार कमी आती है। बीजल आगे कहती हैं कि “इन प्रभावों को मापना मुश्किल है और इनकी क्षतिपूर्ति भी नहीं की जा सकती है। लेकिन ये सर्वव्यापी हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं के ऊपर ऐसे कई अदृश्य बोझ पड़ते हैं जिनसे आमतौर पर पुरुषवर्ग अछूता रहता है।”
बीजल का कहना है कि इस तरह के बढ़ते बोझ के बावजूद भारत के शहरी इलाक़ों में निम्न आय वर्ग की महिलाएं जलवायु संकट पर ध्यान नहीं देती हैं क्योंकि उनका पूरा ध्यान जीवनयापन पर होता है। वे बताती हैं कि “ऐसी महिलाओं के लिए हर दिन एक संघर्ष है। वे भूकम्प या बाढ़ जैसी आपदाओं के प्रभावों को समझती हैं लेकिन जब बात अधिक तापमान या जल से जुड़ी बीमारियों की होती है तब वे इन पर बहुत अधिक ध्यान नहीं देती हैं।” बीजल आगे कहती हैं कि संकट का यह विचार उनके लिए दूर की कौड़ी जैसा है और शहरी क्षेत्रों की मध्य और उच्च वर्ग की महिलाओं की भी सोच ऐसी ही है। उन्होंने बताया कि “हम अपना बहुत अधिक समय महिलाओं को यह समझाने में लगाते हैं कि समस्या पहले से ही मौजूद है और यह और भी बदतर होने वाली है। लेकिन हमें लोगों को इसकी गंभीरता समझाने के लिए अधिक ऊर्जा और समय निवेश करने की आवश्यकता होगी।”
हालांकि ग्रामीण इलाक़ों की महिलाएं अपने जीवन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को अपेक्षाकृत जल्दी समझ जाती हैं। उथरा कहती हैं कि शुरुआत में उनकी टीम गरीब ग्रामीण महिलाओं के साथ काम करने को लेकर सशंकित थी और उन्हें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को लेकर उनकी समझ पर शक भी था। लेकिन उन महिलाओं ने उन्हें ग़लत साबित कर दिया। चूंकि उन्हें प्रति दिन इन सबसे गुज़रना पड़ता है इसलिए वे इन्हें लेकर उत्सुक थीं और तेज़ी से सीख रही थीं। उन लोगों ने जलवायु परिवर्तन के महत्व को बहुत जल्दी समझ लिया और इस दिशा में काम करने लिए प्रेरित हो गईं।
वे जोड़ती हैं कि “उन्होंने तुरंत ही इस समस्या को अगली पीढ़ी पर पड़ने वाले प्रभावों के साथ जोड़ लिया और इस बात को लेकर चिंतित हो गईं कि वे अपने बच्चों के लिए विरासत में क्या छोड़कर जाएंगे। ‘अगर मुझे पानी के लिए बहुत दूर पैदल चलकर जाना पड़ता है और इसके लिए पैसे भी खर्च करने पड़ते हैं तो कल्पना कीजिए कि बड़ी होने के बाद मेरी बेटी को प्रयास और पैसे, दोनों ही स्तरों पर कितना अधिक खर्च करना पड़ेगा।’ जब हमने उनसे वित्तीय साक्षरता के बारे में बात की तो हमें इस बात का अहसास हुआ कि उन्हें लगता है कि धन कमाना अब भी उनके पति की जिम्मेदारी है। लेकिन बात जब पानी, खाने और स्वास्थ्य की आती है तब महिलाएं इन समस्याओं को अपनाती हैं और इनके समाधान के लिए खुद को ज़िम्मेदार भी मानती हैं।”
उथरा कहती हैं कि समस्या की भयावहता को समझने के बाद, ग्रामीण महिलाएं इस बदलाव के अनुकूल उपाय विकसित कर रही हैं। जल का पुनर्चक्रण एक ऐसी ही शुरुआत है। उथरा का कहना है कि अपनी रसोई से घर के पिछले हिस्से को एक चैनल के माध्यम से जोड़कर महिलाओं ने रसोई से निकलने वाले अपशिष्ट जल का प्रयोग कर अपने मवेशियों के लिए चारा उगाना शुरू कर दिया। उन्होंने खेती के पुराने तरीक़ों की ओर लौटना शुरू कर दिया है,
बीजल बताती हैं कि महिलाओं को संकट से निपटने के लिए सरल और अधिक किफायती साधन तलाशने पर मजबूर होना पड़ता है। जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करने वाली एयर कंडीशनर जैसी तकनीकें गरीब वर्ग के लोगों को को ध्यान में रखकर नहीं बनाई गई हैं।
उदाहरण के लिए, बाढ़ और जलभराव से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए महिलाएं अपने घरों के सामने एक छोटी दीवार बनाती हैं – इससे पानी अंदर आने से रुक जाता है। वे आगे जोड़ती हैं कि “यदि उनके पैसा धन है और वे ऋण ले सकती हैं तो वे अपने घर की प्लिन्थ को उंचा कर लेती हैं ताकि इसकी उंचाई सड़क की उंचाई से अधिक हो जाए। उसी प्रकार, गर्मियों में घरों को ठंडा रखने के लिए वे अपनी छतों पर चूने की एक परत चढ़ाती हैं।”
बीजल यह भी बताती हैं कि महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से अपनाए गए बदलाव समाधानों को यदि बड़े पैमाने पर लागू किया जाए तो इससे बड़ी राहत मिल सकती है। उनका कहना है कि “अधिकांश मामलों में, हम महिलाओं को व्यक्तिगत और घरेलू स्तर पर जो करते देखते हैं, वह अनुकूलन है – उदाहरण के लिए, गर्मी की लहरों से निपटने में मदद के लिए घर की छतों को ठंडा रखना। लेकिन यदि इसे शहर या राज्य के स्तर पर अपनाया जाए तो यही प्रयास राहत कार्य का रूप ले सकती है। क्योंकि शहर भर में ठंडी छतें एयर कंडीशनिंग की खपत को कम करेंगी, जिसके परिणामस्वरूप कार्बन उत्सर्जन कम हो सकता है।”
हालांकि, आम धारणा यह है कि महिलाएं ज़्यादातर तुक्का लगा रही हैं और अनुकूलन पर अपना ध्यान केंद्रित कर रही हैं क्योंकि जलवायु संकट उन्हें और उनके परिवार को प्रभावित कर रहा है। उन रणनीतियों और मॉडलों पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है जिनका वे हिस्सा हैं, जो जलवायु नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे हैं।
महिलाओं को सुधार संबंधी मुख्यधारा के प्रयासों का हिस्सा बनना चाहिए
इंडस्ट्री की साझेदारी एवं संचार प्रमुख, अकीला लीन का मानना है कि जलवायु से जुड़ी सकारात्मक कहानियों में महिलाएं मूल्यवान व्यवस्थापक हो सकती हैं, विशेष रूप से तब जब इसे सामूहिक बनाया जाए। इंडस्ट्री एक समाजसेवी संस्था है जो महिलाओं को स्थायी आजीविका निर्माण में मदद के लिए समता, जलवायु और लिंग (ईसीजी) पर काम करता है। वे बताती हैं कि कैसे प्रकृति-आधारित समाधानों पर काम करने वाली महिलाएं पहले से ही कार्बन पृथक्करण और शमन प्रयासों में योगदान दे रही हैं। “अब हमें उन्हें वैश्विक जलवायु सकारात्मक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बनने के लिए तैयार करना चाहिए।”
अकीला महाराष्ट्र में ईएसजी-अनुपालक बांस परियोजना का उदाहरण देती हैं जो वायुमंडल में सालाना 20,000 टन तक कार्बन डाइऑक्साइड को अलग करने में मदद करेगी। “बांस के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक होने के बावजूद, भारत के सभी बांस उत्पाद अभी भी आयात किए जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम एफ़एससी- प्रमाणित बांस का उत्पादन नहीं करते हैं जो निजी भूमि पर उगाए गए बांस को संदर्भित करता है।” उन्होंने आगे जोड़ते हुए कहा कि अपनी महिला किसानों को अपनी जमीन के अप्रयुक्त क्षेत्रों में बांस उगाने के लिए प्रोत्साहित करके, भारत बांस आधारित उत्पाद तैयार कर सकता है। इसलिए बांस में इंडस्ट्री का काम महिलाओं के लिए आजीविका सृजन के साथ-साथ जलवायु शमन की दोहरी भूमिका निभाता है।
महिलाएं जलवायु नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं और निभा रही हैं।
उनके अन्य महिला समूह भी हाथ से बुनी हुई टोकरियां और सियाली पत्ती प्लेट जैसे विभिन्न हरित उत्पाद बनाते हैं जो एकल-उपयोग प्लास्टिक के बदले इस्तेमाल में लिए जाते हैं। अकीला कहती हैं कि “अभी, हमारा पूरा ध्यान महिलाओं को केवल जलवायु परिवर्तन के निष्क्रिय प्रभावितों के रूप में देखने पर केंद्रित है लेकिन अब इस सोच को बदलने का समय आ गया है। वे सुधार और प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं और निभा रही है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके अंदर अपनी आमदनी बढ़ाने की और आगे बढ़ने के लिए मुख्यधारा में शामिल होने की क्षमता है।”
उथरा इस बात से सहमत दिखती हैं कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रयासों में महिलाओं की भागीदारी से न केवल कार्रवाई में सहायता मिलेगी बल्कि उनके लिए आजीविका के वैकल्पिक अवसर भी उपलब्ध होंगे। वे गांवों में पैकेज्ड फूड और घरेलू सामान जैसे एफएमसीजी उत्पादों की बढ़ती खपत की ओर इशारा करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप गांवों में नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरे में तेजी से वृद्धि हुई है।हालांकि जलवायु की समस्याओं में अपना योगदान देने वाली बड़े पैमाने पर होने वाली इस खपत आयर पलस्टिक के निपटान की ख़राब व्यवस्था महिलाओं के लिए अवसर का रूप ले सकती हैं।
जलवायु परिवर्तन के लिंग-विशिष्ट प्रभावों को हल करने वाली पहलों की पहचान करना और उन्हें अपनाना आवश्यक है। | चित्र साभार: वर्षा देशपांडे / सीसी बीवाय
उथरा के अनुसार यदि गांवों में महिलाएं ऐसी वस्तुओं का निर्माण करना शुरू कर दें जिनकी बिक्री और खपत स्थानीय स्तर पर हो सके तो इससे न केवल आमदनी होगी बल्कि यह बड़ी कंपनी द्वारा बड़े पैमाने पर निर्मित वस्तुओं के आयात से उत्पन्न कार्बन फुटप्रिट्स में भी कमी लाएगा।
बज़ वीमेन, स्थानीय उत्पादन और उपभोग के इस विचार के साथ प्रयोग कर रही है। उन्होंने भारत के शहरी इलाक़ों में टूथ पाउडर बेचने वाली दिल्ली-स्थित कंपनी, पक्षांतर से बात की और उनके तरीकों के बारे में जाना है। उथरा कहती हैं कि “उसके बाद हमने कर्नाटक के तुमकुर जिले के अरकेरे गांव में महिलाओं को स्थानीय सामग्रियों का उपयोग करके टूथ पाउडर बनाने का प्रशिक्षण दिया, उन्हें पैकेजिंग डिजाइन करने में मदद की और स्थानीय बिक्री को सक्षम बनाया। इसने मुझे यह सोचने पर प्रेरित किया कि शायद पर्याप्त स्थानीय मांग वाले अन्य उत्पाद भी हैं जिन्हें महिलाएं बना सकती हैं।” उन्होंने पाउडर और डिटर्जेंट जैसे सफाई उत्पादों पर ध्यान केंद्रित किया क्योंकि लोग किसी ब्रांड विशेष से बंधे नहीं हैं, और इन उत्पादों को खरीदने का फ़ैसला अक्सर महिलाएं लेती हैं।
बीजल का मानना है कि बड़ी मात्रा में उत्पन्न होने वाले इस कचरे से महिलाओं के लिए एक अलग तरह का अवसर पैदा होता है। वे कहती हैं कि “यदि व्यवसायिक अवसर के रूप में महिलाओं को कचरा रूपांतरण और संरक्षण के काम में शामिल किया जाए तो इससे उन्हें न केवल आमदनी होगी बल्कि वातावरण को भी फायदा पहुंचेग़ा। यदि हम यह तय करने में सक्षम हो जाएं कि शहरी वानिकी की देखभाल, विकास और रखरखाव में महिला एसएचजी को कैसे शामिल किया जाए और इसके लिए उन्हें किस प्रकार उचित मुआवज़ा दिया जाए तो शहरी वानिकी पर सरकारी कार्यक्रम भी एक अवसर हो सकता है।”
महिलाओं की पहचान जलवायु समाधानों के संचालक के रूप में करना
मौजूदा संरचनात्मक असमानताएं मौजूदा संकट से निपटने में समस्या को हल करने वाले के तौर पर महिलाओं की भूमिका को सीमित करती हैं। हालांकि अपेक्षाकृत अधिक समावेशी जलवायु समाधान विकसित करने में इस बात को समझना एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है कि महिलाएं इसका निपटान किस प्रकार कर सकती हैं। इसके लिए निम्नलिखित कुछ उपाय अपनाए जा सकते हैं:
1. कहानी में महिलाओं को पीड़ित के बदले प्रभावशाली व्यक्ति में बदलना
बीजल और अकीला, दोनों का कहना है कि अब इस कहानी को बदलने का समय आ गया है – हमें महिलाओं को केवल जलवायु परिवर्तन का शिकार मानना बंद करना चाहिए जो मूल रूप से वैश्विक उत्तर में मंचों पर होने वाली बातचीत में व्यापक रूप से शामिल है।
महिलाओं में शमन प्रयासों का नेतृत्व करने की क्षमता है। वे पहले से ही जलवायु के बुरे प्रभावों से बचने के लिए किए जाने वाले अनुकूलनों का नेतृत्व कर रही हैं। लेकिन इससे जुड़े वैश्विक संवादों में जिस एक बात को नजरअंदाज़ किया जाता है, वह है जलवायु संकट को काफ़ी हद तक धीमा करने में उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका। हम सभी को इस एक प्रश्न पर सोचने की ज़रूरत है कि क्या हम उनकी क्षमता और योग्यता को बढ़ाने का प्रयास कर सकते हैं ताकि इस काम में उनकी भूमिका सशक्त हो सके?
2. एक सहज शब्दावली का निर्माण करें
उथरा कहती हैं कि जलवायु परिवर्तन के लिए एक ऐसी शब्दावली का निर्माण कितना अधिक महत्वपूर्ण है जिसे महिलाएं अपनी रोज़मर्रा के जीवन से जोड़ सकें। वे बताती हैं कि नीतिनिर्माताओं और थिंक टैंकों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जलवायु भाषा ज़्यादातर लोगों खासतौर पर महिलाओं के लिए एक बिल्कुल अनजान भाषा है। उथरा कहती हैं कि “हमें जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन जैसी तकनीकी, जटिल शब्दावली से दूर जाने की जरूरत है। क्योंकि इससे उन महिलाओं और उनके परिवारों को मदद नहीं मिलती है जो इसे और अपने जीवन पर इसके प्रभाव को समझने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए, स्थानीय स्तर पर ही जलवायु-संबंधी सही जानकारी और उपकरण मुहैया करवाने के अतिरिक्त क्या सरकार एवं नागरिक समाज संगठन नागरिकों को उनकी रोज़मर्रा की भाषा में ही जलवायु को समझाने का प्रयास कर सकते हैं?
3. महिलाओं की बात सुनें और उनके समाधान का आकलन करें
एमएचटी ने महसूस किया कि यदि वे केवल घरेलू स्तर पर महिलाओं के साथ काम करते हैं, तो यह लंबे समय में जलवायु परिवर्तन के समाधान में मददगार साबित नहीं होगा। इसलिए संगठन महिलाओं के समूहों को वैज्ञानिक प्रशिक्षण प्रदान कर रहा है ताकि वे शहरी तापमान से जुड़ी कार्य योजनाओं के विकास पर स्थानीय सरकारों के साथ काम कर सकें। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि हम भले ही शहरों की योजना बनाने में मदद के लिए विभिन्न थिंक टैंक और अनुसंधान संगठनों को उभरते हुए देख रहे हैं लेकिन इसमें जिस एक चीज़ की कमी है. वह है लोगों का विशेष रूप से ऐसे लोगों का समावेशन जिनका योगदान जलवायु परिवर्तन में सबसे कम है। लेकिन इस परिवर्तन से सबसे अधिक वही प्रभावित होते हैं।
उनका कहना है कि इनमें से कुछ धीरे-धीरे बदल रहा है। भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा गर्मी को प्रमुख आपदा में से एक घोषित करने के बाद शहरों को कार्य योजना बनाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। हालांकि इसका कार्यान्वयन चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि शहर प्रशासन के पास इसके लिए पर्याप्त धन या क्षमता नहीं है। बीजल कहती हैं कि “इसलिए स्थानीय समुदायों द्वारा लगातार दबाव बनाते रहना महत्वपूर्ण है। यहीं पर महिलाओं का समूह मुख्य भूमिका निभाता है – जब मुद्दे से जुड़ा ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनकी भागीदारी होगी तो वे सरकार को जवाबदेह ठहरा सकती हैं और साथ ही समस्याओं के समाधान निर्माण में हिस्सा ले सकती हैं और उसके क्रियान्वयन में मददगार साबित हो सकती हैं। जोधपुर, एमएचटी महिलाओं का एक उदाहरण है जो सिटी हीट प्लान योजना विकसित करने और उस पर कार्य करने के लिए स्थानीय शहर प्रशासन और एक तकनीकी भागीदार (राष्ट्रीय संसाधन रक्षा परिषद) के साथ काम कर रही हैं।
महिलाओं और जलवायु के बारे में बात करते समय आजीविका ही एकमात्र दृष्टिकोण नहीं है जिसे लागू किया जाना चाहिए।
अकीला ने नीति निर्माण और फ़ैसले लेने में महिलाओं की भागीदारी के महत्व को दोहराया है। वे कहती हैं कि महिलाओं और जलवायु के बारे में बात करते हुए हमें केवल आजीविका के दृष्टिकोण को ही नहीं अपनाना चाहिए। वे यह भी जोड़ती हैं कि “यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उनकी बात भी सुनी जाए। और इसकी शुरुआत उन्हें अपने बारे में और उनकी अपनी क्षमताओं के बारे में जागरूकता पैदा करने में मदद करने से होती है। एक बार जब वे जागरूक हो जाती हैं, खासकर सैकड़ों महिलाओं के समूह के रूप में तो उन्हें अपनी आवाज मिल जाती है और ग्रामीण समाज में सुधार होता है।” ऐसे में जब वे बड़े निगमों के साथ उनकी आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बनने के लिए जुड़ती हैं तो यह सामूहिक शक्ति और आवाज उन्हें ठीक तरह से संवाद करने का साहस प्रदान करता है।
निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन में लिंग-विशिष्ट प्रभावों को हल करने वाली पहलों की पहचान करना और उन्हें अपनाना आवश्यक है। और हमें महिलाओं के लिए एक सक्षम वातावरण बनाना होगा ताकि वे उन समस्याओं के समाधान विकसित करने में अग्रणी भूमिका निभा सकें जो उन्हें सबसे अधिक प्रभावित करती हैं। कीटनाशकों का कम उपयोग करने लगी हैं और मिट्टी के पोषक तत्वों को बरकरार रखने के लिए बदल-बदल कर फसलों को उगाना शुरू कर दिया है।