सामाजिक विकास कोई सीधी सरल रेखा नहीं ,क्या है संघर्ष इस लेख में पढ़ें
मानववादी विकास को समझने के लिए द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत को ऐतिहासिक विकास पर लागू करने के मार्क्स के प्रयोग को हम ‘इतिहास की भौतिक व्याख्या’ के सिद्धांत के नाम से पुकारते हैं। इतिहास या समाज का विकास द्वन्द्व की प्रणाली से होता है और भौतिक पदार्थ उस विकास को चलायमान करते हैं, यह इतिहास की भौतिक व्याख्या के सिद्धांत की प्रमुख मान्यता है। इस सिद्धांत को ‘आर्थिक नियतिवाद’ ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’, अथवा ‘इतिहास की आर्थिक व्याख्या’ जैसे अनेक नामों से पुकारा गया है।
इस सिद्धांत द्वारा मार्क्स ने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि सामाजिक विकास कोई सीधी सरल रेखा के समान नहीं है और न ही उसका कोई ईश्वरीय प्रेरक कारण है। समाज की प्रगति द्वन्द्वात्मक प्रणाली द्वारा होती है और विकास की प्रक्रिया एवं उसकी अन्तिम दिशा को निर्धारित करने वाले आर्थिक तत्व होते हैं। मार्क्स के शब्दों में, फ्इतिहास का निर्धरण अपने अन्तिम रूप में आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार होता है। लेनिन के शब्दों में, मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद वैज्ञानिक चिन्तन की महान् सिद्धि था। पहले इतिहास तथा राजनीति से सम्बन्धित विचारों के क्षेत्रा में जो गड़बड़ी और मनमानी फैली हुई थी, उसके स्थान पर आश्चर्यजनक रूप से पूर्ण तथा क्रमबद्ध वैज्ञानिक सिद्धांत की स्थापना हुई, जो बताता है कि किस प्रकार उत्पादक शक्तियों के विकास के फलस्वरूप सामाजिक जीवन की एक व्यवस्था में से एक दूसरी ओर उच्चतर व्यवस्था का विकास होता है-उदाहरण के लिए, भूदास व्यवस्था में से किस प्रकार पूंजीवादी व्यवस्था विकसित होती है।
वेपर के अनुसार, इस सिद्धांत का प्रारम्भ इस साधारण सत्य से होता है कि लोग भोजन, वस्त्रा, आवास और जीवन की अन्य आवश्यकताओं के बिना नहीं रह सकते पर प्रकृति यह सब उन्हें स्वयं बनाकर उनके हवाले नहीं करती। उन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्य को श्रम करना पड़ता है। अतः श्रम सामाजिक जीवन का आधार है और मनुष्य के लिए एक प्राकृतिक आवश्यकता है। श्रम और उत्पादक कार्यकलाप के बिना मानव जीवन ही असम्भव हो जाएगा। अतः भौतिक सम्पदा का उत्पादन सामाजिक विकास का मुख्य उत्पादक उपादान है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक भौतिकवाद की मुख्य विशेषता यह मान्यता है कि उत्पादन पद्धति समाज के विकास में निर्णायक भूमिका निर्वाह करती है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक भौतिकवाद की प्रमुख विशेषता यह मान्यता है कि उत्पादन पद्धति समाज के विकास में निर्णायक भूमिका निर्वाह करती है।
मार्क्स से पूर्व समाज के विकास के इतिहास की व्याख्या करते हुए कतिपय विद्वानों ने कहा कि इतिहास का निर्माण बड़े-बड़े राजाओं, बादशाहों, युद्धों तथा सेनापतियों द्वारा हुआ है। कार्लायल जैसे विचारकों का मानना था कि इतिहास का निर्माण जूलियस सीजर, नेपोलियन, क्रामवैल जैसे महान् नायक करते हैं। हीगल का मानना था कि महान् विचारों ने मानव समाज का विकास किया है।
मार्क्स ऐसे विद्वानों और इतिहासकारों से सहमत नहीं है जिन्होंने इतिहास को कुछ विशेष और महान् व्यक्तियों के कार्यों का परिमाण मात्रा समझा। मार्क्स के अभिमत में इतिहास की सभी घटनाएँ आर्थिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों का परिणाम मात्रा हैं और किसी भी राजनीतिक संगठन अथवा उसकी न्याय व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसके आर्थिक ढांचे का ज्ञान नितान्त आवश्यक है। मानवीय क्रियाएँ नैतिकता, धर्म या राष्ट्रीयता से नहीं वरन् केवल आर्थिक तत्वों से प्रभावित होती हैं।
मार्क्स के अनुसार मनुष्य सामाजिक स्तर पर जो उत्पादन करते हैं, उसमें वे एक-दूसरे के साथ निश्चित सम्बन्धों के सूत्रा में बंध जाते हैं। ये सम्बन्ध अनिवार्य होते हैं और इन पर उनका अपना कोई वश नहीं होता। इन उत्पादन सम्बन्धें का स्वरूप उनकी भौतिक उत्पादन शक्ति के विकास की निश्चित अवस्था के अनुरूप होता है। इन उत्पादन सम्बन्धें के कुल योग से समाज की आर्थिक संरचना अस्तित्व में आती है और वही कानूनी तथा राजनीतिक अधि-रचनाओं की असली आधारशिला का काम देती है। दूसरे शब्दों में भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली जीवन की सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के सामान्य स्वरूप को निर्धरित करती है।
उत्पादन प्रणाली में जैसे-जैसे परिवर्तन होता है, वैसे-वैसे मनुष्यों के सारे सामाजिक सम्बन्ध भी बदल जाते हैं। जब उत्पादन हाथ की चक्की से होता है तब सामन्त अस्तित्व में आता है, जब उत्पादन भाप की चक्की से होने लगता है तब पूंजीपति, उद्योगपति का आविर्भाव होता है। जब भौतिक उत्पादन प्रणाली के अनुरूप सामाजिक सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं, तब इन सम्बन्धों के अनुरूप सिद्धांतों, विचारों और आदर्शों की उद्भावना की जाती है। 1848 में मार्क्स और एँगेल्स ने ‘साम्यवादी घोषणापत्रा’ में लिखा कि बुर्जुआ या मध्य वर्ग ने उत्पादन के साधनों में क्रान्ति लाकर समाज के सम्पूर्ण स्वरूप को ही बदल दिया है।
सामाजिक चेतना को ध्यान में रखते हुए मार्क्स कहता है कि तकनीकी विकास के फलस्वरूप उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होता है और पिफर सामाजिक सम्बन्धों में भी उसके अनुरूप परिवर्तन आवश्यक हो जाता है, पर पुरानी व्यवस्था के अन्तर्गत कुछ सामाजिक और राजनीतिक आदर्शों का निर्माण हो चुका होता है जो नयी व्यवस्था के अनुवूफल नहीं होते, पर चूंकि निहित स्वार्थ इन पर आंच नहीं आने देना चाहते, इसलिए जो सामाजिक वर्ग पुरानी व्यवस्था की बेडि़यों से जकड़ा हुआ था, उसमें चेतना का उदय होता है। वह इन बेडि़यों को अचानक झटककर उतार पेंफकता है। इस तरह सामाजिक क्रान्ति से ही सामाजिक परिवर्तन का आविर्भाव होता है।
इस प्रकार मार्क्स उत्पादन पद्धति को सामाजिक व्यवस्था का आधार सिद्ध करते हुए उस परिवर्तन प्रक्रिया का वर्णन करता है तो उत्पादन के साधनों में परिवर्तन के साथ सामाजिक विकास के नए चरणों को जन्म देती है।
मार्क्स के अनुसार, ऐतिहासिक क्रम की प्रत्येक अवस्था-चाहे वह कितनी ही खराब क्यों न दिखायी दे-अपनी पिछली अवस्था से उत्तम होती है क्योंकि वह विकास की चरम परिणति के निकट होती है।
उत्पादन के साधनों के आधार पर बदलने वाले समाज के इतिहास को मार्क्स ने निम्नलिखित पांच युगों में बांटा है-
- आदिम साम्यवादी युग
- दास युग
- सामन्ती युग
- पूंजीवादी युग तथा
- साम्यवादी युग।
1. आदिम साम्यवादी युग-मार्क्स के अनुसार प्रारम्भिक आर्थिक व्यवस्था एक साम्यवादी व्यवस्था थी। मनुष्य कन्द-मूल, फल व शिकार से अपना पेट भरता था। शिकार द्वारा पेट भरने की इस स्थिति ने सामूहिक जीवन को जन्म दिया। लोग मिलकर शिकार करते थे और मिलकर ही उसे खाते थे। उस समय पूर्ण समानता एवं पूर्ण स्वतंत्रता थी। न कोई लुटेरा था और न कोई शोषक। उन दिनों परिवार का जन्म नहीं हुआ था और सम्पूर्ण कबीला ही एक परिवार होता था जिसमें बगैर किसी रिश्ते के सभी स्त्री-पुरुष में समानता और स्वतंत्रता के आधार पर सम्बन्ध हुआ करते थे। इस समाज में मानव द्वारा मानव का शोषण नहीं होता था।
एँगेल्स के शब्दों में, कबीलों की व्यवस्था की श्रेष्ठता यह थी कि उसमें शासकों और शासितों के लिए कोई स्थान नहीं होता था।
आगे चलकर प्रकृति से मानव के अन्तद्र्वन्द्व ने औजारों को जन्म दिया। नए-नए औजारों का आविष्कार हुआ और मनुष्य ने आग जलाना, जानवर पालना, बर्तन बनाना, पौधे उगाना सीखा। पौधे उगाना खेती की तरह पहला कदम था। इसके परिणामस्वरूप एक तरफ तो अलग-अलग कबीलों के अलग-अलग पेशे हो गए और दूसरी तरफ कबीले-कबीले में लड़ाई शुरू हो गयी। एक तो नए कामों में पहले से ज्यादा मेहनत करनी पड़ती थी, उस पर लड़ाई की मांग पूरी करने के लिए अपनी जरूरत से ज्यादा उत्पादन करना पड़ता था। अब पहले से अधिक काल की जरूरत पड़ने लगी। कबीलों में आपस में भी लड़ाइयां होती रहती थीं। इन लड़ाइयों ने काम करने वालों की कमी को पूरा किया। अब हारे हुए लोगों को गुलाम बनाकर उनसे काम लिया जाने लगा। इस प्रकार सामाजिक कार्य के बंटवारे ने समाज को ही बांट दिया। समाज दो वर्गों में बंट गया-मालिक और दास। अब समाज में एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया जो दूसरों की मेहनत पर जिन्दा रहता है।
2. दास युग-जैसा कि उपर कहा जा चुका है कि प्रारम्भ में साम्यवादी व्यवस्था थी। इसके पश्चात् व्यवस्था बदली और दास युग प्रारम्भ हुआ। कृषि व्यवस्था के साथ वैयक्तिक सम्पत्ति का श्रीगणेश हुआ। साथ ही श्रम विभाजन भी प्रारम्भ हुआ। श्रम विभाजन ने परजीवियों को जन्म दिया। कुछ लोग जबरदस्ती लोगों को दास बनाकर शारीरिक श्रम के कार्य उनसे लेने लगे व अपना समय, आमोद-प्रमोद, विद्या, कला तथा राजनीति, आदि में बिताने लगे। आदिम वर्ग हीन समाज अब स्वतंत्र नागरिकों और दासों के दो वर्गों में विभक्त हो गया। दास युग में मालिक का दास पर वैसा ही हक होता था जैसे मकान, जमीन या जानवर पर। दास युग में आदमी पशुओं की तरह बिका करते थे। दास की पत्नी व बच्चे भी मालिक की वस्तु कहलाते थे। दास युग में मालिकों की संख्या कम थी और दासों की ज्यादा। इसलिए मालिकों को डर रहता था कि कभी दास विद्रोह करके उनको नष्ट न कर दें। अतः उन्होंने दासों की शारीरिक शक्ति को नियन्त्रिात रखने के लिए राज्यसत्ता (कानून, पुलिस, जेल) को जन्म दिया। यूरोपीय इतिहास का अध्ययन करने पर इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था हमें प्राचीन यूनान के नगर राज्यों में देखने को मिलती है।
3. सामन्ती युग-इस युग में दास मालिकों की गुलामी से तो आजाद हो गए, लेकिन वे जमीन के गुलाम बन गए। सामन्तवादी युग में राजा और उसके सैनिक सामन्त भूमि के मालिक होते थे। क्योंकि इनका अधिकांश समय युद्धों में बीतता था, अतः उत्पादन का कार्य किसानों द्वारा किया जाता था। किसान दास तो न थे, किन्तु पूर्ण स्वतन्त्रा भी नहीं थे। उन्हें इसी शर्त पर दास स्थिति से मुक्त किया गया कि वे स्वामी की जमीन जोतेंगे और इसके बदले उन्हें एक फसल का हिस्सा या जमीन का टुकड़ा दे दिया जाएगा। उन्हें मालिक की जमीन छोड़कर जाने का अधिकार नहीं होगा। इस तरह से उसे जमीन का टुकड़ा देकर सामन्त अधिकांश समय अपनी जमीन पर काम करवाकर उसका शोषण करने लगा।
सामन्तवाद में समाज सामन्त और किसान दो विरोधी वर्गों में बंट गया। अब सामन्त किसानों का शोषण करने लगे, लेकिन सामन्ती व्यवस्था में किसान को खेती करने के बाद काफी समय मिल जाता था। ऐसी स्थिति में करघे व दस्तकारी की चीजों का आविष्कार हुआ, जिनकी मदद से किसान अपनी जरूरतों की दूसरी चीजें बनाने लगा। पहले इससे वह अपनी जरूरतों को पूरा करता था, बाद में इनका आदान-प्रदान भी शुरू हो गया और अब वस्तुएँ आवश्यकता पूर्ति के लिए नहीं बल्कि व्यापार के लिए होने लगीं। इस प्रक्रिया ने एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जो एक व्यक्ति से चीजें खरीदकर दूसरे व्यक्ति को दे देता था। यह वर्ग व्यापारी वर्ग कहलाया। धीरे-धीरे इस वर्ग के पास पैसा इकट्ठा होता गया और वह प्रतिदिन विकसित होते हुए कल-करघे का मालिक भी बन गया। मशीन का आविष्कार होने पर सामन्ती समाज पूंजीवादी समाज में बदल गया।
4. पूंजीवादी युग-उत्पादन के नए साधन (मशीन) ने उत्पादन के नए रिश्तों को जन्म दिया और सामन्तवाद के स्थान पर पूंजीवादी युग प्रारम्भ हुआ। पूंजीवाद को अपना वास्तविक स्वरूप औद्योगिक क्रान्ति के होने पर प्राप्त हुआ। वास्तव में औद्योगिक क्रान्ति उत्पादन प्रणाली में ही एक महान् परिवर्तन का नाम है। पूंजीवाद में उत्पादन साधन, महंगी मशीनें, कल कारखाने, आदि थे। सर्वसाधारण को न तो ये साधन सुलभ थे और न वे अपने पुराने हस्तकौशल वाले रोजगारों को ही चला सकते थे। मजबूर होकर उन्हें अपने श्रम को बेचना पड़ा। इस युग में मजदूर भी अन्य सामान की भांति खरीदे और बेचे जाने लगे। पंूजीवाद ने दासता को मिटाने की बजाये इसे दूसरे रूप में स्थायी बनाया है और वेतनभोगी ‘वेतन पाने वाला दास’ बन जाता है।
इस प्रकार की अर्थव्यवस्था के विकास के बीच मध्य वर्ग का उदय होता है जो पूंजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के मध्य रहकर इन दोनों, परस्पर विरोधी वर्गों में सीधे संघर्ष नहीं होने देता, पर समय बीतने पर यह मध्यम वर्ग भी सर्वहारा वर्ग की भांति ही बन जाता है फलतः पूंजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के पास एक-दूसरे के विरुद्ध घोर युद्ध करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं रह जाता है। इस युद्ध का अन्त तभी होता है जब पूंजीपति वर्ग का पूर्णरूपेण नाश हो जाता है और उत्पादन के साधनों पर राज्य का एकाधिकार हो जाता है।