त्वरित टिपण्णी - कैलाश सनोलिया
नागदा। सियासत में राजनेता अपने ही जिदंगी में अपना उतराधिकारी बनाना बाएं हाथ का खेल समझते हैं। यह खेल इन दिनों की राजनीति में खूब फल फूल रहा है। समूचे देश- प्रदेश में अधिकांश सियासत के खिलाड़ियों ने अपनी सियासत की अमरबेल अर्थात अपने पुत्र-पुत्रियों पोते-पोतियों को बतौर राजनीति का उतराधिकारी अपने जीवनकाल में ही बनाया। या फिर ऐसी राह आसान जिसके तहत अपनी राजनीति में ऐसे बीज डाले कि अपनी अमरबेल बढ जाए। सांसद -विधायक बनने के बाद अपने पुत्र-पुत्रियों को टिकटे दिलाना और अपनी विरासत का वाारिस बनाना आज के राजनेताओं का शगल बन गया।

इस बुराई से कोई भी दल अछूता नहीं हैं। कुछ अपवादों को छोडा जाए तो अधिकांश राजनेताओं को टिकट के मामले में अपने पुत्रों एव पुत्रियों के प्रति मोह देखा गया है। उज्जैन जिले की नागदा-खाचरौद विधानसभा सीट से जितने भी विधायक बनकर पूर्व हुए उनके परिजनों के आंगन में यह अमरबेल सूख गई। इस क्षेत्र के कुछ विधायक तो दिंवगत हो गए हैं। कुछ सियासत में अभी भी किले भी लड़ा रहे हैं।

इस क्षेत्र के पूर्व विधायकों की बात की पहले यूं समझा जाए।

आजादी के बाद 1952 के प्रथम चुनाव के बाद इस सूबे में कुल अभी तक 15 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं। अब 16 वां चुनाव प्रक्रिया में हैं। विगत 15 चुनाव का आंकलन करें तो इस क्षेत्र से कुल 8 चेहरें बतौर विधायक के सामने आए हैं। जिसमें से 7 चेहरों के नाम के आगे पूर्व लग चुका है। इन पूर्व विधायकों के चेहरों को नाम से संबोधित किया जाए जाए तो प्रथम विधायक रामचंद नवाल, विरेंद्रसिंह कंचनखेड़ी, भैरव भारतीय, पुरूषोत्तम विपट, कुल चार अब इस दुनिया में नहीं रहें हैं। रणछोड़लाल आंजना, लालसिंह राणावत एवं दिलीपसिंह शेखावत 16 वे विधानसभा चुनाव के साक्षी बनने जा रहे हैं।

जिसमें से श्री आंजना को छोड़कर तीनों नाम अभी भी सियासत में किले लड़ा रहे हैं। बड़ी बात यह गौर करने लायक हैकि इन सभी चेहरों में सेें अभी तक तो किसी के भी अंागंन में सियासत की अमरबेल नहीं पनप पायी। अर्थात परिवार से कोई विधायक नहीं बन पाया।

क्या वाकई श्री गुर्जर का तय उतराधिकारी

अब बात करें चार बार के विधायक दिलीपसिंह गुर्जर की जो पांचवी बार विधायक बनने की प्रतिस्पर्धा में लोकतंत्र के संग्राम में हैं। इनका नाम भी अभी तक तो उक्त सभी चेहरों की उस सूची में शामिल है, जिनके परिवार से किसी को विधानसभा जाने का अवसर नही मिला । लेकिन हाल में एक नजारा सियासत के जानकार लोगों में चर्चा का विषय बन गया। हाल में टिकट मिलने के बाद विधायक श्री गुर्जर जब पहली बार दिल्ली से शहर आए तो भीड से शक्ति का प्रदर्शन किया। इस भीड़ के बीच चल रहे वाहन मे ंएक नौजवान का चेहरा कभी जनता से अभिवादन तो कभी हाथों से विक्टी के संकेत में पूरे जुलूस में दिखा। यह नाम हर्षवर्धनसिंह जोकि एमएलए दिलीपसिंह गुर्जर के पूत्र के किरदार में लोग जान पाए। जनचर्चा यह बनी कि 61 वर्ष की उम्र को स्पर्श करते विघायक श्री गुर्जर अब संभवत अपने बेटे को अंगूली पकड़कर सियासत की विरासत की और प्रोजेक्ट करने को आतुर है। लेकिन यह मात्र अभी एक कयास हैं। श्री गुर्जर पर पूर्व विधायक के समान का मिथक अभी भी लागू है।

कब कौन, सूखी अमरबेल

नागदा -खाचरौद में आजादी के बाद पहले विधायक 1952 में स्वाधीनता सैनानी, चितंक लेखक स्वं रामचंद नवाल बने, वे बस एक बार ही विधायक रहें लेकिन उनके परिवार से कोई विधायक नहीं बन पाया। दिवंगत ठाकुर विरेंद्रसिंह 1757, 1962 एवं 1967 में एमएलए चूने गए। संविद शासन में 1967 में श्रममंत्री भी बने। इनकी विरासत का राजनीति में कोई उतराधिकारी नहीं है। पुरूषोतम विपट ने इस सूबे से दो बार 1977 एवं 1980 में बतौर एमएलए प्रतिनिधित्व किया लेकिन परिवार से कोई विधानसभा भवन नहीं पहुंच पाया। कांग्रेस से 1985 में एमएलए बने रणछोड़ लाल आंजना पचलासी किसी जमाने में दिवंगत तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह के काफी नजदीकी रिश्तों से बंधे रहें। इन दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजयसिंह से नजदीकी माने जाते हैं।

लेकिन इनके परिवार में से सियासत की जमीं पर कोई नजर नहीं आया। वरिष्ठ भाजपा नेता लालसिंह राणावत 1990 एवं 1998 में इस सूबे से विधायक तो बने लेकिन अपनी राजनीति में अपनी विरासत से परिवार का कोई विधायक नहीं बन पाया। पूर्व विधायक दिलीपसिंह शेखावत 2013 में विधायक बने लेकिन उनकी पर भी यह युक्ति चरितार्थ है।

। कुछ लोग यह तर्क देते हैकि इस क्षेत्र के निवासी डॉ थावरचंद गेहलोत के बेटे जितेंद्र गेहलोत को विधायक बनने का अवसर मिला; लेकिन श्री गेहलोतजी ने रतलाम जिले की आलोट विधानसभा क्षेत्र से बतौर विधायक प्रतिनिधित्व किया। ओर उसी क्षेत्र से जितेंद्र 2013 में विधायक बने थे।

न्यूज़ सोर्स : ipm