देश में समय पर जनगणना क्यों जरूरी ?
145 करोड़ से ज्यादा आबादी के साथ भारत दुनिया का सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश बन चुका है. लेकिन ये आंकड़े भारत सरकार ने नहीं जारी किए थे बल्कि दूसरी संस्थाओं ने किए. कारण ये कि भारत ने हर दस साल पर कराई जाने वाली जनगणना 13 साल से कराई ही नहीं है.
जनगणना के मायने क्या हैं
प्राचीन रोमन साम्राज्य में सदियों पहले जनगणना के प्रमाण पाए गए थे. जबकि आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल करके सबसे पहली जनगणना सन 1749 में स्वीडन में कराई गई थी. भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान 1872 में पहली अनियमित और 1881 में पहली नियमित जनगणना हुई थी. तब से लगातार हर दस साल पर भारत में जनगणना होती रही है.
जनगणना का मतलब है किसी देश में निवास करने वाले सभी लोगों के एक विशेष समयावधि में अलग-अलग मानकों के आधार पर आंकड़े इकट्ठा करना और निर्धारित प्रक्रिया के तहत उनका विश्लेषण करने के बाद उन्हें जारी करना. जनगणना के जरिए जो आंकड़े मिलते हैं उनका इस्तेमाल बजट आवंटन, नीति निर्माण, निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं का निर्धारण जैसी जरूरी चीजों में किया जाता है.
पहली बार जनगणना में इतनी देरी
भारत में पहली बार ऐसा हुआ है कि हर दशक में होने वाली जनगणना अभी तक नहीं हुई है. हालांकि 2021 की जनगणना के लिए भारत सरकार ने तैयारियां शुरू कर दी थीं लेकिन 2020 में कोरोना महामारी की वजह सेइसे स्थगित कर दिया गया था. केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद में भी कोविड महामारी की बात कहते हुए जनगणना न कराए जाने की जानकारी दी थी.
शिक्षाविद विजेंदर चौहान कहते हैं, "विपक्षी पार्टियों द्वारा जातिगत जनगणना का लगातार मुद्दा उठाना और केंद्र सरकार के घटक दलों का इस पर मुखर होना कहीं न कहीं इस देरी का कारण जरूर है.” उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि पाकिस्तान एक ऐसा देश है जहां जनगणना करवा पाना आसान काम नहीं रहा है और मौजूदा सरकार ने पाकिस्तान से तुलना करते हुए कई बार इस बात का श्रेय लिया है कि हम इस मामले में उनसे कहीं बेहतर हैं लेकिन अब जनगणना हमारे यहां भी एक राजनीतिक औजार बन चुकी है.
क्यों जरूरी है जनगणना
जनगणना सूचना का एक अहम स्रोत है. इसके जरिए देश के लोगों के बारे में कई तरह की सांख्यिकीय जानकारी हासिल होती हैं. इन आंकड़ों का उपयोग नीतियों, योजनाओं के निर्माण के अलावा सरकार द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों के मूल्यांकन में किया जाता है.
संसद, राज्यों की विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के प्रतिनिधित्व का आवंटन और निर्वाचन क्षेत्रों के सीमांकन में भी जनगणना के आंकड़ों का ही इस्तेमाल किया जाता है.
देश में मौजूद बिजनेस सेक्टर और उद्योग भी इन्हीं आंकड़ों के जरिए अपनी पहुंच को बेहतर बनाते हैं. साथ ही वित्त आयोग द्वारा राज्यों को मिलने वाला अनुदान भी जनगणना के आंकड़ों के आधार पर तय किया जाता है.
जनगणना होनी क्यों जरूरी है इसका उदाहरण देते हुए अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर विकास कुमार कहते हैं, "कोरोना काल के दौरान जिस तेजी से भारत के कई प्रदेशों से लोगों का प्रवास हुआ, अगर समय रहते हमारे पास उसके बेहतर आंकड़े होते कि किस जिले या प्रदेश से कितनी संख्या में और कितनी अवधि के लिए लोग बाहर गए हैं तो स्थिति को नियंत्रित करने में प्रशासन को बेहतर मदद मिलती.”
आंकड़ों की कमी से कैसी परेशानी खड़ी होती है
पॉपुलेशन स्टडीज में पीएचडी कर चुके अंतरराष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर डॉ. उदय शंकर मिश्र बताते हैं, "हम क्या करना चाहते हैं, हम इसमें माहिर हैं लेकिन किसके लिए करना चाहते हैं ये हमें पता नहीं है. सरकार कहती है कि हम इतने लोगों को घर दे देंगे लेकिन जब हमारे पास आंकड़े ही नहीं हैं कि किसी भौगोलिक क्षेत्र में कितने लोगों को घरों की जरूरत है तो पॉलिसी बनाने का कोई मतलब नहीं होगा.”
भारत में सामाजिक आर्थिक सुरक्षा योजनाओं का हाल अच्छा नहीं है. बुजुर्गों के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) की 2021-2030 रिपोर्ट बताती है कि भारत में 60 साल से ज्यादा की उम्र के चालीस प्रतिशत बुजुर्ग वित्तीय सुरक्षा के मामले में बहुत खराब हाल में हैं और लगभग हर पांचवें बुजुर्ग के पास आय का कोई साधन नहीं है.
पिछले दशक से भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में शहरीकरण तेजी से बढ़ा है. प्रोफेसर मिश्र ने डीडब्ल्यू को बताया, "शहरी क्षेत्र का मतलब है ऐसा इलाका जहां मैनुफैक्चरिंग सेक्टर का विकास होता है और लोग वहां रोजगार की तलाश में पहुंचते हैं. लेकिन हमारे पास ऐसे आंकड़े ही नहीं है कि हम ऐसे नए पैदा हुए शहरी क्षेत्रों की पहचान कर सकें और वहां के लोगों के लिए बेहतर योजनाएं बना सकें.”
सर्वे नहीं हो सकता जनगणना का विकल्प
देश में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस), राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) और आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) जैसी संस्थाओं का इस्तेमाल नई नीतियों को तैयार करने और पिछली नीतियों का मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है.
अपनी किताब ‘नंबर्स इन इंडियाज पेरिफेरी: दि पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ गवर्नमेंट स्टैटिस्टिक्स' का हवाला देते हुए प्रोफेसर विकास कुमार कहते हैं, "सैंपलिंग फ्रेम और वास्तविक आंकड़े में कई बार बहुत फर्क दिखाई देता है. गरीबी की दर और गरीबी रेखा जैसे मानक इनकी वजह से प्रभावित हो सकते हैं और इसका सीधा असर पब्लिक पॉलिसी पर पड़ता है."
वो बताते हैं कि 2001 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर की गई गलती की वजह से वित्त आयोग द्वारा नागालैंड को लगभग 400 करोड़ रुपये का अतिरिक्त फंड आवंटित हो गया था और जम्मू कश्मीर के मामले में 2011 की जनगणना के आधार पर परिसीमन में गलतियां देखने को मिली थीं. इसका जिक्र उन्होंने अपनी किताब में भी किया है.
सर्वे और जनगणना के आंकड़ों की तुलना करते हुए डॉ. विजेंदर चौहान कहते हैं, "सर्वे के डेटा पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि सर्वे के डेटा को सरकार अपनी मर्जी से जैसा दिखाना चाहे उसे वैसा प्रदर्शित कर सकती है लेकिन जनगणना के साथ ऐसा करना संभव नहीं है." वे आगे कहते हैं कि बतौर शिक्षाविद पिछले दस सालों में सरकार से भरोसेमंद डाटा जुटा पाना जटिल काम बन चुका है.