भारत में अब सब जात खत्म, एक कुआ, एक मंदिर एवं एक होगा पानी ?
नेताओं ने चुनावी मौसम की तुरुप चालें शुरू कर दी हैं। एक तरफ़ विपक्षी साझा उम्मीदवार है। जवाब में सत्ता पक्ष का यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड। यानी समान नागरिक संहिता या सरल भाषा में कहें तो सबके लिए समान क़ानून। पहले बात करते हैं समान क़ानून की। संघ का शुरू से यही नारा रहा है। एक देश में दो निशान, दो विधान नहीं चलेंगे। इस नारे में कश्मीर और देश, दोनों की तरफ़ इशारा रहा है।
सत्ता पक्ष का मंतव्य इस समान क़ानून के पीछे जो भी हो, हम आम आदमी इसके पीछे सकारात्मक सोच ही रखते हैं। … कि अब हमारे गाँव- क़स्बे में कोई ऊँचा या कोई नीचा बाज़ार नहीं होगा। चाय की दुकानों पर वो दो गिलासों वाला सिस्टम भी नहीं रहेगा। उन सड़कों पर भी, जो मन्दिर के रथ के गुजरने से शुद्ध हुई हैं, चप्पल पहनकर बेधड़क चल सकेंगे।
एक ही कुएँ से हम सब मिलकर पानी खींचेंगे। अपने गाँव में, अपनी जात को छोड़कर अब कोई दूसरा नहीं रहेगा। सबके सब मानव जात होंगे। कोई हिन्दू नहीं। कोई मोमिन नहीं। सब के सब मानव। बरबस ही पूछा करेंगे एक- दूसरे से- हाल - चाल। क्योंकि हम अपने दरवाज़े का ताला खुद ही खोलते- खोलते थक चुके हैं।
बस इतना चाहते हैं - कोई पूछे… कि तुम्हारी सब्ज़ी में नमक ज़्यादा तो नहीं पड़ गया? अपने घर से दूसरी ला दूँ? वैसे भी हमें चाहिए ही क्या? एक भुनी मिर्ची और एक- आध रोटला। बस इतनी- सी आरज़ू रहती है। थक कर जब घर आएँ - पड़ोसी ही सही, कोई पूछे… कि तुम्हारी आँखें इतनी लाल क्यों हैं? कुछ खाया भी, कि दिनभर यूँ ही टल्लाते रहे, गाँवभर में?
ख़ैर हम आम लोगों की दरकार तो बस इतनी ही है। नेता चाहे जो कहें, चाहे जो करें। उनका निशाना चाहे जो हो! हमें इससे क्या? 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद हुए चुनावों में जनता पार्टी ने 295 सीटें हासिल की थीं। मोरारजी देसाई तब देश के प्रधानमंत्री बने थे।अब आते हैं साझा उम्मीदवार पर। 1977 में श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ यह प्रयोग हो चुका है। जब विपक्ष में जनता पार्टी थी। इस पार्टी में एक तरह से सारे दल समा गए थे। कांग्रेस जिसका संयुक्त विरोध हो रहा था, उसका एक धड़ा ( मोरारजी) भी। लेकिन तब बात और थी। विपक्ष की तरफ़ से जनता ही चुनाव लड़ रही थी। वही चंदा इकट्ठा करती थी।
जनता ही कभी चंद्रशेखर, कभी अटलजी तो कभी मोरारजी के हाथ में थैलियाँ थमा रही थी। नेता चलते गए थे और कारवाँ बढ़ता गया था। अब विपक्ष के पक्ष में वैसा माहौल तो नहीं है लेकिन साझा उम्मीदवार खड़ा करने में वह कामयाब हो जाता है तो, उसे सत्ता पक्ष के खिलाफ बड़ा फ़ायदा हो सकता है।
कैसे? यह हम पिछले चुनाव के आँकड़ों से समझ सकते हैं- चुनाव आयोग और एडीआर के आंकडे बताते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में जिन 542 सीटों पर चुनाव हुए उनमें से केवल 341 सीटें ऐसी थीं जिन पर विजयी प्रत्याशी को कुल पडे वोटों में से पचास प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। बाक़ी 201 सीटें ऐसी थीं जो पचास प्रतिशत से कम अंतर पर जीती गईं।
23 जून को पटना में हुई विपक्षी दलों की मीटिंग में भाजपा के खिलाफ विपक्ष का साझा उम्मीदवार खड़ा करने पर सहमति बनी थी।साझा उम्मीदवार को इन 201 सीटों पर फ़ायदा हो सकता है। इनमें से भाजपा ने जो 303 सीटें जीती थीं, उनमें लगभग 80 सीटों पर विजयी प्रत्याशी को पचास प्रतिशत से कम वोट मिले थे। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर विजयी प्रत्याशी के सामने खड़े तमाम प्रत्याशियों के वोट इकट्ठा हो जाए, तो जीत को हार में बदलते देर नहीं लगती।
विपक्ष इन दिनों इसी जुगत में लगा हुआ है। हालाँकि अभी से यह कहा नहीं जा सकता कि साझा उम्मीदवार का इक्का विपक्ष की पकड़ में आएगा या उसके पहले ही वह बिखर जाएगा लेकिन यह मुहिम कारगर हुई तो निश्चित ही सत्ता पक्ष के पसीने छुड़ा देने वाली साबित होगी।
वैसे भी यह जो वर्तमान चुनाव प्रणाली है, इस पर कई बार सवाल उठाए गए हैं। सवाल यह था कि अगर यह चुनाव प्रणाली आँकड़ों पर ही आधारित है और सब कुछ बहुमत यानी आधे से अधिक पर ही निर्भर है तो पचास प्रतिशत से कम वोट पाने वाले को विजयी कैसे घोषित किया जा सकता है?
विपक्षी दल जुलाई महीने में शिमला में अगली बैठक करेंगे।
सवाल के भीतर छिपा सवाल यह है कि मान लीजिए किसी लोकसभा सीट पर दस लाख मतदाता हैं। साठ प्रतिशत वोट पड़े हैं। तो मत हुए छह लाख। पाँच प्रत्याशियों में से तीन को एक- एक लाख वोट मिले और चौथे को 75 हज़ार। पाँचवाँ प्रत्याशी सवा दो लाख वोट पाकर जीत जाता है।
जबकि उसके विरोध में पौने चार लाख वोट पड़े हैं। या यह भी कह सकते हैं कि पौने चार लाख लोग उसके पक्ष में नहीं हैं। या उसके चुने जाने से सहमत नहीं हैं। फिर भी वही विजयी घोषित होता है। साझा उम्मीदवार वोटों के इस बिखराव को रोक सकता है। ख़ैर, ये साझा उम्मीदवार और ये समान क़ानून अब हल्ला बोलकर हमारे शहर, क़स्बे, गाँव और घर में घुसने वाले हैं। हमें चौकन्ना रहना है, हर समय। हर पल। कोई हमारे भोलेपन का फ़ायदा न उठा ले। क्योंकि उनकी इच्छाएँ अपने दांत पैने कर रही हैं। हम हमेशा की तरह कटते हैं। फिर कटते हैं और काटे जाते रहते हैं।
क्या है समान नागरिक कानून
जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है कि समान नागरिक कानून का मतलब है कि सबके लिए एक नियम. लेकिन भारत जैसे विविधता वाले देश में इसको लागू करना क्या इतना आसान है जहां सभी को अपने-अपने धर्मों के हिसाब से रहने की आजादी है.
समान नागरिक कानून के मुताबिक पूरे देश के लिये एक समान कानून के साथ ही सभी धार्मिक समुदायों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने के नियम एक होंगे.
संविधान के अनुच्छेद 44 में भारत में रहने वाले सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून का प्रावधान लागू करने की बात कही गई है. अनुच्छेद-44 संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल है. इस अनुच्छेद का उद्देश्य संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य' के सिद्धांत का पालन करना है.
समान नागरिक कानून का पहला जिक्र कब हुआ
ऐसा नहीं है कि कॉमन सिविल कोड यानी समान नागरिक कानून की बात आजादी के बाद की अवधारणा है. इतिहास में खंगालने पर इसका जिक्र 1835 में ब्रिटिश सरकार की एक रिपोर्ट में मिलता है. जिसमें कहा गया है कि अपराधों, सबूतों और कॉन्ट्रेक्ट जैसे मुद्दों पर समान कानून लागू करने की जरूरत है.
इसके साथ ही इस रिपोर्ट में हिंदू-मुसलमानों के धार्मिक कानूनों से छेड़छाड़ की बात नहीं की गई है. लेकिन साल 1941 में हिंदू कानून पर संहिता बनाने के लिए बीएन राव की समिति भी बनाई गई.
इसी समिति की सिफारिश पर साल 1956 में हिंदुओं, बौद्धों, जैनियों और सिखों के उत्तराधिकार मामलों को सुलझाने के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम विधेयक को अपनाया गया. लेकिन इस मुस्लिम, इसाई और पारसी लोगों के लिये अलग-अलग व्यक्तिगत कानून थे.
अदालतों में समय-समय पर उठी मांग
सभी के लिए एक समान कानून बनाने की मांग कई मामलों की सुनवाई के दौरान अदालतों में भी उठती रही है. इनमें 1985 का शाह बानो का ट्रिपल तलाक का मामला, 1995 का सरला मुद्गल का मामला है जो कि बहुविवाह से जुड़ा था.
भारत में अभी क्या समान नागरिक कानून की स्थिति
भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872, नागरिक प्रक्रिया संहिता, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882, भागीदारी अधिनियम, 1932, साक्ष्य अधिनियम, 1872 जैसे मामलो में सभी नागरिकों के लिए एक समान नियम लागू हैं. लेकिन धार्मिक मामलों में सबके लिए अलग-अलग कानून लागू हैं और इनमें बहुत विविधता भी है. देश में सिर्फ गोवा एक ऐसा राज्य जहां पर समान नागरिक कानून लागू है.
समान नागरिक कानून लागू करने की चुनौतियां
'कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर वाणी'...ये लाइनें भारत के विविधता से भरे समाज को दर्शाती हैं. सिर्फ समाज ही नहीं, घर-घर में भी अलग-अलग रीति रिवाज हैं. भारत में हिंदुओं की आबादी सबसे ज्यादा है. लेकिन हर राज्य में अलग धार्मिक मान्यताएं और रिवाज हैं. उत्तर भारत के हिंदुओं के रीति-रिवाज दक्षिण भारत के हिंदुओं से बहुत अलग हैं. संविधान में नगालैंड, मेघालय और मिज़ोरम के स्थानीय रीति-रिवाजों को मान्यता और सुरक्षा की बात है.
इसी तरह मुसलमानों के पर्सनल लॉ बोर्ड के भी समुदाय के लिए अलग-अलग नियम हैं. ईसाइयों के भी अपने अलग धार्मिक कानून हैं. इसके अलावा किसी समुदाय में पुरुषों को कई शादी करने की इजाज़त है. किसी जगह पर विवाहित महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा न देने का नियम है. समान नागरिक कानून लागू होने के बाद ये सभी नियम खत्म हो जाएंगे.
समान नागरिक के कानून के खिलाफ तर्क
एक बड़ा समान नागरिक कानून के खिलाफ है. कई राजनीतिज्ञों का मानना है कि ये इसके पीछे सांप्रदायिकता है. कुछ लोग तो और आगे जाकर इसे बहुसंख्यकवाद करार देते हैं.
संविधान के अनुच्छेद 25 में क्या लिखा है?
इस अनुच्छेद में कहा गया है कि कोई भी अपने हिसाब धर्म मानने और उसके प्रचार की स्वतंत्रता की रखता है.
समान नागरिक संहिता पर प्रमुख पार्टियों का रुख
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- साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अपने घोषणा पत्र में समान नागरिक कानून बनाने का वादा किया था..
- अगस्त 2019 में शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा था कि एनडीए में शिवसेना ने जो मुद्दे उठाए थे, उन्हें मोदी सरकार आगे बढ़ा रही है. इस पर ज्यादा बहस की जरूरत नहीं, यह देश हित का निर्णय है.
- अक्टूबर 2016 में असदुद्दीन ओवैसी ने कहा कि समान नागरिक संहिता केवल मुस्लिमों से जुड़ा मुद्दा नहीं है. बल्कि पूर्वोत्तर के कुछ इलाकों के लोग भी इसका विरोध करेंगे. भारत के बहुलतावाद और विविधता को बीजेपी खत्म कर देना चाहती है.
समान नागरिक संहिता पर सुप्रीम कोर्ट ने अब तक क्या कहा
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- साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि देश में अलग-अलग पर्सनल लॉ की वजह से उहापोह या भ्रम के हालात बने रहते हैं. सरकार अगर चाहे तो एक कानून बनकर ऐसी परिस्थितियां खत्म कर सकती है. क्या सरकार ऐसा करेगी? अगर आप ऐसा करना चाहते हैं तो आपको ये कर देना चाहिए?
- साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत में अब तक समान नागरिक कानून लागू करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है. जबकि संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 में नीति निदेशक तत्व के तहत उम्मीद जताई थी कि भविष्य में ऐसा किया जाएगा.
- साल 2021 में दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि देश में यूनिफार्म सिविल कोड लागू होना चाहिए. जस्टिस प्रतिभा एम. सिंह ने एक केस की सुनवाई के दौरान कहा कि अब भारत धर्म, जाति, समुदाय से ऊपर उठ चुका है. आधुनिक हिंदुस्तान में धर्म-जाति की बाधाएं भी खत्म हो रही हैं. इस बदलाव की वजह से शादी और तलाक में दिक्कत भी आ रही है. आज की युवा पीढ़ी इन दिक्कतों से जूझे यह सही नहीं है. इसलिए देश में समान नागरिक कानून लागू होना चाहिए.
समान नागरिक संहिता और भारत के राज्य
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- इसी साल मार्च में उत्तराखंड के सीएम पुष्कर सिंह धामी ने सरकार गठन के बाद पहली कैबिनेट मीटिंग में उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए एक कमेटी का गठन किया है.
- अप्रैल 2022 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने मांग की है कि पीएम मोदी को पूरे देश में समान नागरिक कानून लागू करना चाहिए.
- इसी साल अप्रैल में शिवपाल यादव ने कहा कि देश में समान नागरिक कानून लागू करने का सही समय आ गया है.
- 22 अप्रैल 2022 को गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि सीएए, राममंदिर, अनुच्छेद 370 और ट्रिपल तलाक के बाद अब बारी समान नागरिक कानून की है.
गोवा में समान नागरिक कानून में क्या है
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- गोवा में साल 1965 से ही समान नागरिक कानून लागू है.
- उत्तराधिकार, दहेज और विवाह के सम्बंध में हिन्दू, मुस्लिम और क्रिश्चियन के लिए एक ही कानून है.
- कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को पूरी तरह अपनी संपत्ति से वंचित नहीं कर सकते हैं.
- यदि कोई मुस्लिम अपनी शादी का पंजीकरण गोवा में करवाता है तो उसे बहुविवाह की अनुमति नहीं होगी.
- गोवा में जन्मा कोई भी शख्स बहुविवाह नहीं कर सकता है.
समान नागरिक कानून और धार्मिक मान्यताएं
- समान नागरिक कानून को कई कट्टरपंथी धर्म पर हमला बताते हैं. हालांकि ऐसा बिलकुल नहीं है कि इस कानून के लागू हो जाने के बाद शादी-विवाह से जुड़े धार्मिक रीति-रिवाज पंडित या मौलवी नहीं करा पाएंगे.
- किसी भी नागरिक के खान-पान, पूजा-इबादत और वेशभूषा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
समान नागरिक कानून पर विधि आयोग की राय
साल 2018 में इस मुद्दे पर बनाए गए एक विधि आयोग ने कहा है कि अभी समान नागरिक संहिता लाना मुमकिन नहीं है। इसकी बजाय मौजूदा पर्सनल लॉ में सुधार किया जाए. आयोग की ओर से कहा गया है कि मौलिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता में संतुलन बनाए रखने की जरूरत है.
सभी समुदायों के लिए एक नियम बनाए जाने से पहले समाज में स्त्री-पुरुष के अधिकारों में समानता लाने पर काम किया जाए.