मर्दों को गले लगाने वाली नहीं, पैर छूने वाली पत्नी चाहिए
मेरी दादी मेरे दादाजी के पैर छुआ करती थीं। ये उनका रोज का उपक्रम था। जैसे वो घर के देवी-देवताओं की पूजा करतीं और उनके चरणों पर अपना मस्तक धरतीं, वैसे ही उन्हें रोज एक बार पति के चरणों में भी शीश नवाना ही होता था। मेरी नानी भी नानाजी के पैर छुआ करती थीं। रोज की दिनचर्या की तरह तो नहीं, लेकिन साल में दस-बीस ऐसे मौके आ ही जाते, जब पति के चरणों में शीश नवाना होता था।
ऐसे ही गाहे-बगाहे मैंने मौसी, मामी, बुआ, चाची, भाभी और बड़ी बहनों को भी अपने-अपने पति परमेश्वरों के चरण स्पर्श करते हुए देखा है।हालांकि उन सारी स्त्रियों के संबंधों में एक चीज कॉमन थी। हर पति का दर्जा अपनी पत्नी से ऊपर था। हर पति पत्नी से श्रेष्ठ था। हर पति स्वामी था, मालिक था, मुखिया था। हरेक पति परमेश्वर था।अगर आपको शुरू का ये पैरा पुरातत्व की खुदाई में मिली किसी कहानी का अवशेष लग रहा है तो चलिए आपको तीन दिन पहले उस क्रिकेट के मैदान में लेकर चलते हैं, जहां चेन्नई सुपर किंग्स और गुजरात टाइटंस के बीच आईपीएल का फाइनल मैच खेला जा रहा था।
मैच के आखिरी क्षणों में चेन्नई सुपर किंग्स ने गुजरात टाइटंस को पांच विकेट से हरा दिया और इसके साथ ही धोनी की कप्तानी वाली टीम पांचवीं बार चैंपियन बन गई। जीत के सेहरा बंधा रवींद्र जडेजा के सिर, जिन्होंने आखिरी दो गेंदों में 10 रन बनाकर टीम को जिता दिया, लेकिन इसके बाद जो हुआ, वो असली कहानी है।
रवींद्र जडेजा की पत्नी रिवाबा दौड़ते हुए पति के पास गईं और पूरी तरह झुककर उनके पैर छुए। उन्होंने हरे रंग की साड़ी पहनी थी और पल्लू से अपना सिर ढंका हुआ था। ये जडेजा की पत्नी का निजी पसंद का मामला भी हो सकता था, हालांकि इस पसंद की स्वायत्तता और निजता पर विमर्श तब भी मुमकिन था।
लेकिन उससे भी ज्यादा कमाल की बात तब हुई, जब कुछ घंटों के बाद ही रिवाबा के पैर छूने वाला वो वीडियो न सिर्फ सोशल मीडिया पर वायरल हो गया, बल्कि भारतीय संस्कारों, मूल्यों की महानता के हैशटैग उसके चारों ओर ऐसे फेरे लगाने लगे, जैसे धरती सूर्य की परिक्रमा करती है।
पत्नी ने पति के पैर छुए। सबने तालियां बजाईं। इंटरनेट के नागरिकों ने गर्व और खुशी से भरकर बुल्के चुहाए। पैर छूने वाली महिला को आदर्श नारी के खिताब से नवाजा। पैर न छूने वाली महिलाओं को लानतें भेजीं और कहा कि वो रिवाबा से कुछ सीखें।
लानतों से खार खाई महिलाओं ने रिवाबा को और पलटकर लानतें भेजीं तो मुख्यधारा मीडिया बीच में कूद पड़ा, पर्सनल चॉइस और पर्सनल फ्रीडम का मेमोरेंडम लेकर। पैर छूना उनका निजी मामला है।
उनकी निजता का सम्मान करें। हालांकि उसी मीडिया ने ये नहीं कहा कि पैर न छूना भी उतना ही निजी मामला है। पैर न छूने और सिर पर पल्लू न रखने वाली महिलाओं को भी लानतें भेजना और हर दूसरे वाक्य में उन्हें भारतीय संस्कृति की गौरव कथा सुनाना भी दूसरे की निजता का अनादर ही है।
फिलहाल बात इतनी सीधी भी नहीं है, जितना कि सोशल मीडिया और मुख्यधारा मीडिया हमें बताने की कोशिश कर रहा है। सवाल निजी चुनाव का नहीं है।
सवाल ये है कि एक पत्नी को अपने पति के पैर क्यों छूने चाहिए ? पैर छूना यदि आदर प्रकट करने का एक तरीका है तो फिर पति को भी पत्नी के पैर छूकर अपना आदर प्रकट करना चाहिए और अगर पति ऐसा नहीं करते तो क्या इसका अर्थ है कि वे अपनी पत्नियों का आदर नहीं करते।
सवाल ये है कि दांपत्य में बंधे एक स्त्री और पुरुष का रिश्ता बराबरी का है, साहचर्य का है, प्रेम और समता का है। और उस रिश्ते में प्रेम और आदर दोनों ही प्रकट करने के सारे तरीके और टूल एक जैसे होने चाहिए। गले मिलना, हाथ मिलाना, चूमना, जो भी तरीका हो, उसमें दोनों बराबरी के साझेदार हैं। दोनों का दरजा और जगह बराबर है।
ये दरजा सिर्फ एक ही तरह के रिश्ते में बराबर नहीं होता। मालिक और नौकर के रिश्ते में, बड़े और छोटे के रिश्ते में, ताकतवर और कमजोर के रिश्ते में। अपने से बड़ों का तो पैर छूकर प्रेम और आदर प्रकट किया जा सकता है, लेकिन यदि अपने बराबर वाले के प्रति प्रेम और आदर प्रकट करने के लिए हमें उसके पैर छूने पड़ रहे हैं तो यकीन मानिए कि वो रिश्ता बराबरी का नहीं, बल्कि शक्ति और सत्ता का है। ताकतवर और कमजोर का है।
दादी और नानी जब अपने पतियों के पैर छूती थीं तो वो ये कहती हैं कि वो मालिक हैं, वो स्वामी हैं। वो उनकी चार बातें भी सुन लेती हैं, उनकी मार भी खा लेती थीं, उनकी गालियां और उलाहने भी झेल लेती थीं क्योंकि पति मालिक था, भगवान था, पालनहार था।
इन सबके बिना दुनिया में उसके लिए कोई जगह नहीं थी। इसलिए वो उस ताकतवर पद के सामने सिर झुकाती थीं, उसके चरणों की पूजा करती थीं।
यही थी मर्दों की बनाई दुनिया और उस दुनिया के नियम, जिसमें मर्द को सबसे ऊंचा सर्वश्रेष्ठ का दर्जा हासिल था। स्त्रियों की स्वतंत्रता, समानता और अधिकारों की सारी लड़ाई पुरुषों के इस वर्चस्व को, श्रेष्ठताबोध को और महानता को चुनौती देने की ही लड़ाई है।
इसलिए बात सिर्फ इतनी नहीं है कि जडेजा की पत्नी ने उनके पैर छुए। बात ये है कि इस समाज का एक बड़ा हिस्सा इस घटना को पुराने छूट गए महान मूल्यों के प्रतीक के रूप में पेश कर रहा है।औरतों को याद दिला रहा है कि यही वो संस्कारी रास्ता है, जो तुम भूल गई हो।कितनी मुश्किलों से समाज की चंद मुट्ठी भर औरतों ने वो जगह हासिल की थी, जहां वह अपने पति और साथी को बराबरी से गले लगा सकती थीं, चूम सकती थीं, उनका हाथ पकड़कर भरी सड़क पर हक और अधिकार से चल सकती थीं।
सचमुच में साथी और सहचरी होने का वह अधिकार, जो उन्होंने कितने संघर्षों से पाया था, उसमें एक बार फिर मर्दवादी संस्कारों की सेंध लग रही है। अब फिर से मर्दों को गले लगाने वाली नहीं, पैर छूने वाली संस्कारी लड़की चाहिए। वो संस्कार, जिसमें सब कुछ है सिवा प्रेम, समता और समरसता के।