बोझ तले कार्यपालिका एवं न्यायपालिका, सिर्फ चिंता जताने से क्या होगा ?
यह तथ्य सामने आने पर हैरानी नहीं कि देश भर के न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या साढ़े चार करोड़ पहुंच गई है। ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि लंबित मुकदमों के बोझ को कम करने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं। इसका ही परिणाम है कि एक लाख से अधिक मामले ऐसे हैं, जो तीन दशक से भी अधिक समय से लंबित हैं। इसका अर्थ है कि आवश्यकता से अधिक लंबे समय से लंबित मुकदमों को निपटाने की भी कोई पहल नहीं की जा रही है। ऐसे कुछ मामले सुप्रीम कोर्ट में भी लंबित हैं। यह ठीक है कि सुप्रीम कोर्ट लंबे समय से लंबित मामलों को निपटाने की पहल कर रहा है, लेकिन आखिर ऐसी कोई पहल उच्च न्यायालयों की ओर से क्यों नहीं की जा रही है?
क्या यह उचित नहीं होगा कि उच्च न्यायालय लंबित मामलों का निपटारा कर निचली अदालतों के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करें? बड़ी संख्या में मामलों का लंबित रहना 'न्याय में देरी अन्याय है' वाली उक्ति को ही चरितार्थ करता है। यह एक विडंबना ही है कि जब हर क्षेत्र में सुधार हो रहे हैं तब न्यायिक क्षेत्र में सुधार अटके से पड़े हैं। इसकी कीमत आम लोगों को ही नहीं, विकास योजनाओं और कार्यक्रमों को भी चुकानी पड़ रही है। हमारे नीति-नियंता इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि देश की प्रगति को गति देने के लिए समय पर न्याय देना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।
इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि लंबित मुकदमों को लेकर जब-तब चिंता जताई जाती रहती है। पिछले कुछ समय में तो राष्ट्रपति ने भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों का ध्यान मुकदमों के लंबित रहने से होने वाले दुष्परिणामों की ओर आकर्षित किया है, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला है। यह न केवल निराशाजनक, बल्कि चिंताजनक है कि 11वें वित्त आयोग की ओर लंबित मुकदमों के निस्तारण के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों को अतिरिक्त संसाधन उपलब्ध कराने के बाद भी ऐसे मुकदमों के निपटारे की गति धीमी है। इसका मतलब है कि न्यायिक प्रक्रिया में ही कहीं कोई खामी है। इसका एक प्रमाण है तारीख पर तारीख का सिलसिला।
न्याय समय पर न मिलने के कारण लोगों का अदालतों पर भरोसा डिग रहा है। वे मजबूरी में ही अदालतों की ओर रुख करते हैं। यह सही है कि अदालतों और न्यायाधीशों की कमी भी मुकदमों के लंबित रहने का एक कारण है, लेकिन यदि न्यायिक प्रक्रिया की खामियां दूर नहीं होतीं और मामलों को एक तय समय में निपटाने की कोई कारगर व्यवस्था नहीं बनती तो फिर न्यायालयों को संसाधन संपन्न बनाए जाने से भी बात बनने वाली नहीं है। समय आ गया है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के लोग यह समझें कि लंबित मुकदमों के बोझ को लेकर केवल चिंता जताए जाने से कुछ होने वाला नहीं है।