देश में पानी को बचाने के लिए कोई भी बढ़िया प्रबंधन नहीं भारत की स्थिति भयावह
पृथ्वी पर पाए जाने वाले सारे स्तनपाई जानवरों सहित मानव में भी उसके शरीर का 70% पानी होता है। जब भी किसी भी व्यक्ति के शरीर में 1 लीटर पानी की कमी हो जाती है तो उसे प्यास लगने लगती है और इस पानी की आपूर्ति इस बात पर निर्भर करती है कि शरीर में पानी किस तरह का जा रहा है। इस पर किसी भी प्रयोगशाला की कोई आवश्यकता नहीं है कि यदि पानी स्वच्छ नहीं होगा तो वह शरीर में पहुंचकर निश्चित रूप से अपनी गंदगी और अपने गुणों के कारण शरीर को भी दूषित करेगा।
यह अभी निर्विवाद सत्य है कि पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा पानी से ढका है, जो खारा है और सिर्फ 3% पानी ऐसा है जो स्वच्छ पानी है, जिसमें से 2% से ज्यादा पानी बर्फ के रूप में ग्लेशियर में है। 1% पानी ही विश्व में ऐसा है जो मानव के पीने योग्य है।
इसके बावजूद किसी भी देश ने पानी को बचाने के लिए कोई भी बढ़िया प्रबंधन ही किया। तमाम देशों ने अपनी नदियों और समुद्रों में इस गंदे पानी को गिराना शुरू कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि जो नदियां जो अमृत जैसे जल का स्रोत हैं, मैली होती चली गईं। तमाम नदियां हैं जो यमुना की तरह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। ऐसी स्थिति केवल भारत में नहीं है, बल्कि कई देशों में यह एक बड़ी समस्य है।
विश्व की बहुत सी नदियां अस्तित्व की लड़ाई लड़ने लगीं। यही नहीं समुद्रों में जहाजों द्वारा गिरने वाले तेल प्रदूषित पदार्थ न्यूक्लियर रिएक्टर के कचरे आदि ने ऐसी समस्याएं पैदा कर दीं कि समुद्र के जरिए संतुलन को ही समाप्त कर दिया गया। करीब 10,000 से ज्यादा मछलियां अपनी प्रजाति को अब तक हो चुकी हैं।
एक कार के निर्माण में कितना पानी लगता है?
भारत स्थिति भयावह हो रही है क्योंकि पूरे विश्व को भारत एक सबसे कम दामों में और सस्ते में प्राकृतिक संसाधनों को उपलब्ध कराने वाला देश है। यही कारण है कि विश्व की ज्यादातर मोटर कार कंपनियां भारत में मोटर कार बनाने के लिए प्रेरित होने लगीं। क्या आप जानते हैं, एक कार को बनाने में 250 लीटर पानी की आवश्यकता होती है और भारत जैसे देश में दूसरे विकसित राष्ट्रों की अपेक्षा नगण्य पानी की लागत पर कारें बनती हैं।
औद्योगिकीकरण की भेड़ चाल में हम अपनी इस अमूल्य प्राकृतिक संपदा का दोहन बेहद बुरी तरह से कर रहे हैं। ज़रा सोचिए 1 लीटर कोल्ड ड्रिंक बनाने में 10 लीटर पानी लगता है। भारत में सस्ते में पानी उपलब्ध होने के कारण कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली विश्व की ज्यादातर कंपनियों ने भारत में अपने बड़े-बड़े प्रोडक्शन प्लांट खोल दिये हैं। भारत में जागरूकता की कमी के कारण लोग यह जान ही नहीं पाए कि इन कोल्ड ड्रिंक कंपनियों से निकलने वाला प्रदूषित पानी कैडमियम और मर्करी जैसे पदार्थों को उसके आसपास के वातावरण में इतना मिला देता है कि कैंसर जैसी भयानक बीमारी पैदा हो जाती है।
केरल के प्लाचिमादा प्रकरण मैं यह बात उभर कर सामने आई कि किस तरीके से कोका कोला कंपनी पानी के दोहन से उस क्षेत्र के धान उत्पादन को न केवल प्रभावित करता चली गई, बल्कि वहां के लोगों में त्वचा संबंधी और कैंसर जैसे रोग होने लगे हैं। यह तथ्य स्थापित करने के लिए काफी है कि हमारी संवेदनशीलता कभी उस स्तर पर नहीं रही जहां पर हम इस बात को सोच पाते।
मछली जल की रानी है उसका जीवन पानी है, यह कविता तो हमने पढ़ी लेकिन यह नहीं सोच पाये कि मानव के भी जीवन में यदि पानी नहीं रह जाएगा तो सब खत्म हो जाएगा। मनुष्य खुद अपने विनाश का कारण बन जाएगा।
1932 से शुरू हुआ नदियों में प्रदूषण
भारत जैसे देश में जहां पर नदियों को मां कहा गया है। अफसोस यह कि अंग्रेजों ने नदियों के प्रति यह भावना कभी प्रदर्शित नहीं की। 1932 में बनारस में पहली बार चार्ल्स ने शहरों के गंदे नालों को गंगा नदी की तरफ खोल दिया और उसके बाद तो पूरे भारत में सारी फैक्ट्रियों, की स्थापना नदियों के किनारे होने लगी और नदियां प्रदूषित होने लगीं। इसका परिणाम यह हुआ कि आज कोई भी व्यक्ति किसी भी नदी का पानी सीधे पी नहीं सकता है।
पानी को जीवन कह कर संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1992 में विश्व जल दिवस मनाने का निर्णय लिया और हर वर्ष 1993 से विश्व में पानी के लिए विश्व जल दिवस मनाया जाने लगा। लोगों की सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए टीम को भी रखा जाने लगा। हर साल एक नया थीम भी रखा जाने लगा।
वर्ष 2023 में विश्व जल दिवस की थीम है परिवर्तन में तेजी। दरअसल इसके पीछे का मकसद 2030 तक विश्व के प्रत्येक देश में स्वच्छ जल उपलब्ध कराना है। लेकिन अभी दिल्ली बहुत दूर है और परिवर्तन में तेजी वाली टीम को पूरा करने के लिए जिस सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल को 6% तक लाने का लक्ष्य रखा गया था उससे भी हम बहुत दूर खड़े हुए हैं।
भारत जैसे देश में तो अमृत जल जैसी योजनाएं भी लाई गई हैं ताकि लोगों को घर तक स्वच्छ पानी मिले। लेकिन सत्यता इससे कोसों दूर है। ज्यादातर शहरों में लोगों के घरों में पानी ही नहीं आ रहा है। अवैधानिक होते हुए भी उनको अपने यहां बोरिंग करा कर पानी निकालना पड़ रहा है। इससे जमीन के नीचे भी पानी का स्तर कम होता जा रहा है। जमीन के बीच से पानी निकल जाने के कारण मिट्टी के कणों के बीच आद्रता खत्म होती जा रही है। जो भूकंप जैसी स्थितियों को उत्पन्न करने की तरफ ज्यादा बढ़ रहे हैं।
मानवाधिकार के अंतर्गत आया पानी
वर्ष 2013 में विषय युक्त राष्ट्र संघ द्वारा पानी के विषय को मानवाधिकार के अंतर्गत लाया गया और इसके बावजूद किसी को शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है। देखा जाए तो यह मानवाधिकार का उल्लंघन है। यदि कोई व्यक्ति अशुद्ध पानी पी रहा है या उसे पानी नहीं मिल रहा है, तो निश्चित रूप से या उसके जीवन जीने के मौलिक अधिकार को प्रभावित कर रहा है। क्या आप जानते हैं इस मौलिक अधिकार को आपात स्थिति में भी विलंबित नहीं किया जा सकता है।
शहरों के कुएं बर्बाद हो चुके हैं, हैंडपंप चलते नहीं हैं, जमीन के नीचे पानी का स्तर गिर गया है। सरकारी टंकियों के नलों में पानी आ नहीं रहा है। ऊपर से पानी को एक उद्योग बनाकर बेचा जा रहा है। लोग पानी को खरीद कर अपने जीवन को बचाने में लग गए हैं। पानी को खरीदने की यह परम्परा हर बड़े शहर में शुरू हो चुकी है। बेंगलुरु, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, पुणे तो छोड़िये, अब तो छोटे-छोटे शहरों में भी पीने के पानी की कैन चल पड़ी हैं। जरा सोचिए कैन का यह बिजनेस कब तक और कितनों की प्यास बुझा सकेगी। कब तक आप पानी को बेच कर लोगों की प्यास बुझाते रहेंगे। एक दिन तो आयेगा ही जब नोटों गी गड्डी सामने रखी होगी, लेकिन पीने का पानी नहीं होगा।
जल से जुड़े कुछ प्रश्न जिनका उत्तर जरूरी
आज सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हम पानी के लिए संवेदनशील कब होंगे? याद होगा 70 के दशक में लोगों के घरों में पानी के मीटर लगा करते थे। ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि किसी व्यक्ति के घर में कितना पानी उपयोग हुआ है और उसी के आधार पर पानी का बिल आया करता था। बाद में धीरे-धीरे यह पानी के मीटर न जाने कहां विलुप्त हो गए और लोग एक समेकित रूप में सरकार को वार्षिक शुल्क के रूप में पानी का बिल अदा करने लगे।
एक मुश्त भुगतान के बाद आप कितना पानी बर्बाद करते हैं, इसका शायद आपको अंदाजा तक नहीं। फ्लश चलाने से लेकर सब्जी धोने तक, वॉशिंग मशीन से लेकर आर-ओ वॉटर प्यूरीफायर तक, हर जगह पानी का दुरुपयोग बहुत तेज़ी से हो रहा है।
जरा सोचिए, अगर फिर से पानी के मीटर लौट आयें, तो क्या आप रोज़-रोज़ पाइप लगाकर कार, मोटर साइकिल धो पायेंगे? घर की धुलाई में बाल्टी भर-भर कर पानी वेस्ट कर पायेंगे? उत्तर है नहीं! क्योंकि तब आप सोचेंगे कि जितना पानी हम एक बार में कार धोने में खर्च करते हैं, उतना तो हम 6 महीने तक पी सकते हैं। कुल मिलाकर देखा जाए, तो भले ही स्वच्छ जल मानवाधिकार के अंतर्गत आता है, लेकिन पानी की बर्बादी को रोकने के लिए सरकार को कड़े नियम बनाने ही होंगे। नहीं तो एक दिन जरूर आयेगा, जब नोटों की गड्डी सामने पड़ी होगी, लेकिन वॉटर कैन खाली होगा।