बिहार के नालंदा जिले की एक महिला किसान अनीता देवी को आज “मशरूम लेडी ऑफ बिहार” के नाम से जाना जाता है। यह नाम उन्होंने अपनी मेहनत, लगन और खेती में किए गए नवाचार के कारण हासिल किया है। अनीता देवी एक किसान परिवार से ताल्लुक़ रखती हैं, और उनका पूरा परिवार कृषि कार्य में जुटा हुआ था। बचपन में ही अनीता ने महसूस किया कि पारंपरिक तरीके से खेती करने से परिवार की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं हो पा रही थी।

पारंपरिक खेती में ख़र्चे ज़्यादा थे, लेकिन मुनाफ़ा कम था। इसके अलावा, ज़मीन की कमी भी एक बड़ी समस्या थी, क्योंकि उनका परिवार ज़्यादा भूमि पर खेती नहीं कर सकता था। इन सब परेशानियों को देखते हुए, अनीता ने ऐसा विकल्प ढूंढने का सोचा, जिससे कम लागत में ज़्यादा फ़ायदा हो सके। इसी सोच ने उन्हें “मशरूम की खेती” की दिशा में कदम बढ़ाने के लिए प्रेरित किया।

 करीब दो दशकों पहले, नालंदा जिले में मशरूम उत्पादन का कोई नामोनिशान नहीं था। उस समय के किसान केवल पारंपरिक फ़सलें ही उगाते थे, जैसे गेहूं, धान, और दलहन। यह खेती आमतौर पर मौसम और मिट्टी की स्थिति पर निर्भर होती थी, और इससे होने वाली आय भी सीमित थी। अनीता देवी ने जब अपने इलाके के किसानों को यह सब करते देखा, तो उन्हें यह महसूस हुआ कि पारंपरिक खेती से परिवार की ज़रूरतों को पूरा करना मुश्किल है।

अनीता देवी, जो खुद एक ग्रेजुएट थीं और कृषि के प्रति काफी जागरूक भी थीं, ने सोचा कि क्यों न कुछ नया किया जाए, जो कम पूंजी में ज़्यादा लाभ दे सके। इसी सोच के साथ उन्होंने मशरूम की खेती को एक विकल्प के रूप में चुना।

 

मशरूम की खेती उस समय के लिए एक नई और अलग बात थी, इसलिए अनीता ने इसके बारे में पूरी जानकारी इकट्ठा करने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने कई सेमिनारों और प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लिया, ताकि उन्हें मशरूम की खेती से संबंधित हर पहलू का सही ज्ञान मिल सके। धीरे-धीरे उनकी मेहनत और सही मार्गदर्शन से उन्हें यह विश्वास हो गया कि मशरूम की खेती से वह अपने परिवार को आर्थिक रूप से मजबूत बना सकती हैं। यही कारण था कि अनीता ने इस क्षेत्र में कदम रखने का साहस दिखाया और आज वे एक सफल महिला किसान के रूप में स्थापित हो चुकी हैं।

 अनीता देवी बताती हैं कि मशरूम की खेती के बारे में उन्होंने सबसे पहले अपने पिता से सुना था, लेकिन असल में इस खेती को कैसे किया जाता है, यह पहली बार रांची के बिरसा मुंडा कृषि विश्वविद्यालय में आयोजित एक सेमिनार में जाना। इसके बाद, उन्होंने उत्तराखंड स्थित गोविंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय से 10 दिन की ट्रेनिंग ली। यहां से उन्होंने मशरूम के बीज (स्पॉन) भी प्राप्त किए और अपने गांव लौटकर खेती शुरू की।

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