'पायर' के बारे में सुन-देखकर भारतीय सिनेमा के इतिहास की कई यादगार फिल्में कौंध जाती हैं। सबसे पहला नाम जेहन में आता है सत्यजीत राय की फ़िल्म 'पाथेर पांचाली' का और उसके बार मीरा नायर की 'सलाम बाम्बे!' फिर कुछ साल पहले आई रीमा दास की 'विलेज रॉकस्टार' का भी ख्याल आता है। यह सब इसलिए कि हिमालय की पृष्ठभूमि में र

ची-बसी 80 साल के दो बुजुर्गों की इस अनूठी प्रेम कहानी में भी किसी पेशेवर अभिनेता ने काम नहीं किया है।लेखक-निर्देशक विनोद कापड़ी ने जिन दो बुजुर्गों को इस फिल्म में कास्ट किया, उन्होंने इससे पहले जीवन में ना कभी कोई कैमरा देखा था ना ही कोई फ़िल्म। फिलहाल, 19 नवंबर को यूरोप के प्रतिष्ठित 28वें टैल्लिन ब्लैक नाइट्स इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल में इसका वर्ल्ड प्रीमियर होगा। इस फेस्टिवल में यह अकेली भारतीय फ़िल्म चुनी गई है।

        लंबे समय तक मीडिया में रहे विनोद कापड़ी ने इससे बहुत अलग-अलग विषयों पर फ़िल्में बनाई हैं। यह फ़िल्म उत्तराखंड में लगातार हो रहे पलायन के बाद वहां ख़ाली हो चुके गांव- जिन्हें भूतिया गांव भी कहा जाता है- की पृष्ठभूमि में एक बुजुर्ग दंपती की सच्ची कहानी से प्रेरित है। जिनसे विनोद 2017 में मुनस्यारी के एक गांव में मिले थे। मृत्यु का इंतज़ार कर रहे इस बुजुर्ग दंपति के एक दूसरे को लेकर प्यार ने विनोद के दिल में ऐसी गहरी छाप छोड़ी कि उन्होंने ये फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया।

         'पायर' का विचार किस तरह आया इसकी भी एक दिलचस्प कहानी है। इस फिल्म के सह निर्माता और जाने-माने लेखक अशोक पांडे बताते हैं कि मुनस्यारी के नीचे गोविंद नदी बहती थी। उसके सामने एक और पहाड़ है। वहां से मुंशियारी दिखाई देता है। वहां कोविड से दो-तीन साल पहले तक कोई रोड नहीं थी। यानी दूसरी तरफ का हिस्सा बदलती हुई दुनिया से बिल्कुल अछूता था, भले वो नदी के उस पार बदलती हुई दुनिया देख रहे हों।
जब रोड खुली तो अशोक यूं ही घूमने-फिरने मुनस्यारी से उस तरफ गए। वहां उनको अचानक एक बहुत बूढ़ा व्यक्ति मिला। वह पूरे जीवन कभी मुनस्यारी नहीं गया था। इसी समय में जीते हुए भी उसे इस संसार की कोई खबर नहीं थी। उससे जब अशोक पांडे ने पूछा कि इस समय किसकी सरकार है तो उसने कहा पहले तो इंदिरा गांधी की थी, अब पता नहीं किसी है। बहरहाल एक ट्रैकिंग के दौरान अशोक के मित्र विनोद कापड़ी भी उन बुजुर्ग दंपती से मिले इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनके जीवन पर फ़िल्म बनाने का निश्चय कर लिया।
विनोद ने पहले इस फ़िल्म के लिए नसीरुद्दीन शाह और रत्ना पाठक शाह का चयन किया था। दोनों अभिनेता तैयार हो गए थे मगर नसीरुद्दीन शाह को संशय था कि इस कहानी में भौगोलिक परिवेश का बहुत महत्व है। हिमालय की कहानी में उन दोनों के होने से फ़िल्म की प्रामाणिकता पर असर पड़ सकता है। विनोद को यह बात ठीक लगी और उन्होंने फिर नए सिरे से फिल्म की कास्ट पर काम किया। हिमालय में दूर-दराज़ के दो दर्जन से ज़्यादा गांवों में तीन महीने तक भटकने के बाद विनोद को अपनी फ़िल्म के अभिनेता पदम सिंह और तुलसी देवी मिल ही गए।
दोनों ही उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले में बेरीनाग तहसील के रहने वाले हैं। पदम सिंह पहले भारतीय सेना में थे और रिटायरमेंट के बाद खेतीबाड़ी कर रहे थे। जबकि हीरा देवी घर में भैंस पालने और जंगल से लकड़ी और घास काटने का काम करती हैं। अब सबसे बड़ी मुश्किल ये थी कि दोनों ने अपनी ज़िंदगी में कभी भी कैमरे का सामना नहीं किया था। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के अनूप त्रिवेदी के मार्गदर्शन में दो महीने तक चली वर्कशॉप के बाद दोनों कलाकार शूटिंग के लिए तैयार किए गए।
अपनी पोस्ट में अशोक पांडे लिखते हैं, 'इस फिल्म को बिल्कुल शुरुआत से बनते हुए देखना किसी तिलिस्म को घटते देखना था। हर वक़्त नई कथाओं-किस्सों की तलाश में रहने वाले विनोद ने जब इस निपट अनछुए विषय को अपनी फिल्म का विषय बनाने का फ़ैसला किया तो एकबारगी मुझे भी अचरज हुआ था। फिर फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी गई। उसे हज़ार बार बदला-सुधारा गया। एक-एक डायलॉग पर कई-कई दिन काम हुआ।'
फ़िल्म के पोस्ट प्रोडक्शन में भी विनोद कापड़ी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। शूटिंग पूरी होने के बाद पर उन्होंने ऑस्कर विजेता संगीतकार माइकल डैना से इसके बैकग्राउंड स्कोर के लिए अनुरोध किया। उन्होंने पहले फ़िल्म की फुटेज़ देखने को कहा, और देखने के बाद वे इतने प्रभावित हुए कि तुरंत 'पायर' का संगीत करने को तैयार हो गए। माइकल डैना एक कनाडाई फिल्म और टेलीविजन स्कोर म्यूजीशियन हैं। उन्होंने 'लाइफ ऑफ पाई' (2012) में सर्वश्रेष्ठ ओरिजिलन स्कोर के लिए गोल्डन ग्लोब और ऑस्कर दोनों जीता था। वे दीपा मेहता, टेरी गिलियम, स्कॉट हिक्स, आंग ली, मीरा नायर, जोएल शूमाकर और डेनज़ल वाशिंगटन जैसे निर्देशकों के साथ काम कर चुके हैं।फ़िल्म एडिटर पैट्रिशिया रॉमेल ने इस फ़िल्म का संपादन किया है। उनका नाम मौजूदा दौर की कुछ चुनिंदा प्रतिभाशाली महिला फिल्म एडीटर्स में लिया जाता है। पैट्रिशिया कहती हैं, 'संपादन लेखन के समान ही है। एक लेखक के पास उसके विचार और उसके शब्द होते हैं। एक संपादक के रूप में मैं शॉट्स, ध्वनि, संगीत और अपने विचारों के साथ काम करती हूं। मैं शॉट्स को जोड़ते हुए समय के अंतराल के साथ खेलती हूं।' पैट्रिशिया ने 'द लाइफ़ ऑफ अदर्स' फ़िल्म को एडिट किया था, जिसे 2006 में सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म के लिए ऑस्कर मिला था। एंजेलीना जॉली की फ़िल्म 'फ़र्स्ट दे किल्ड माय फादर' (2017) का भी उन्होंने संपादन किया था।
हिंदी में अपने किस्म के विलक्षण गीतकार और 'जय हो' जैसे गीत लिख चुके गुलज़ार ने 'पायर' के लिए एक गीत लिखा है। विनोद ने बताया कि इस फ़िल्म में गीत लिखने के लिए गुलज़ार ने कोई पैसे नहीं लिए, उन्होंने कहा कि यह फिल्म में मुझे सत्यजीत राय के सिनेमा की परंपरा दिख रही है, मैं इसके लिए कोई फीस नहीं लूंगा। विनोद कहते हैं कि ये उनका सौभाग्य है कि विश्व सिनेमा की इन तीन महान हस्तियों ने पायर में अपना योगदान दिया है।

अशोक पांडे के शब्दों में एक फिल्म-निर्देशक के तौर पर विनोद ने हमेशा अपने विषय-चयन से हैरान किया है। 'पायर' एक इंडिपेंडेंट सिनेमा है और भारत में ही नहीं पूरे विश्व में इंडी सिनेमा को बाज़ार के दबावों के बीच अपनी जगह बनाने के लिए आज भी संघर्ष करना पड़ता है। पेशेवर अभिनेताओं के बिना इस फ़िल्म को बनाना भी आसान नहीं था। विनोद को जब फ़िल्म में पैसा लगाने के लिए कोई निर्माता नहीं मिला तो उन्होंने और उनकी लाइफ पार्टनर साक्षी जोशी ने इस फ़िल्म को बनाने का फ़ैसला किया। भागीरथी फ़िल्म्स की निदेशक साक्षी जोशी ने बताया कि कहानियों और किरदारों को लेकर विनोद के संकल्प पर उन्हें हमेशा से भरोसा रहा है। भारत में स्टूडियो के सहयोग के बिना स्वतंत्र फ़िल्म बनाना मुश्किल काम होता है लेकिन असंभव नहीं।

विनोद ने कहा कि 'पायर' को अभी भारतीय दर्शकों तक पहुंचने में वक्त लगेगा। टैल्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल में वर्ल्ड प्रीमियर के बाद कम से कम 7-8 महीने तक 'पायर' अलग अलग अंतराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में दिखाई जाएगी, जिसकी आधिकारिक सूचना समय-समय पर जारी की जाएगी। उसके बाद ही कहीं यह भारत में रिलीज़ हो सकेगी।

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