लीडरशिप सिर्फ पढ़ाई में ही नहीं प्रायोगिकता में भी है की सीख दे रही दुर्गा बाई व्योम
अगर आप रोज स्कूल-कॉलेज जा रहे हैं और बैगारा है तो यह शिक्षा नहीं हैं ,शिक्षा में कला संस्कृति एवं ज्ञान का समावेशन जरूरी है तो ही कोई बात बनें।
इसी बात को चरितार्थ कर रही हैं मध्य प्रदेश के डिंडोरी के छोटे से गाँव की दुर्गा बाई व्योम । दुर्गा बाई पढ़ी लिखी नहीं है फिर भी दुनिया की सबसे बड़े सर्च इंजन गुगल में बायोग्राफी जीवन वृत है,जबकी कई बड़े ओधे पर बैठे लोग भी यहा तक नहीं पहुंच से हैं। ऐसे मे युवाओं को सीखना चाहिए की शिक्षा को प्रायोगिक बनायें एवं जीवन के अनेकों क्षेत्र में अपना नाम कमाएं।
कौन हैं दुर्गा बाई
दुर्गा बाई व्याम वह भारतीय आदिवासी महिला कलाकारों में से एक है जो भोपाल में जनजातीय कला की गोंड शैली में काम करती है। दुर्गा का अधिकांश काम उनके जन्मस्थानए मध्य प्रदेश के मंडला जिले के एक गांवए बरबसपुर में निहित है। साल 1974 डिंडोरी जिले के एक छोटे से गांव बुरबासपुर में रहने वाले चमरू सिंह परस्ते के घर दुर्गा बाई व्योम ;क्नतहं ठंप टलवउद्ध का जन्म हुआ। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थीए इसलिए वो पढ़ नहीं पाई। लेकिन बचपन से ही आदिवासी गोंडी भित्ति चित्र बनाने में वो माहिर थीं। उन्होंने इस चित्रकारी को ही अपना मंजिल बनाया और आज पद्म श्री तक पहुंच गई हैं। देश.विदेश में आदिवासी कला को पहचान दिलाई है। उनके संघर्ष और सफलता की कहानी महिलाओं के लिए एक प्रेरणा है।
मिट्टी की दीवारों का कैनवास
दुर्गाबाई व्याम की कलात्मक कहानी डिंडोरी के साधारण परिवेश में शुरू हुई, जहाँ आर्थिक तंगी के कारण उन्हें औपचारिक शिक्षा से वंचित रहना पड़ा। हालाँकि, उनकी परवरिश ने उन्हें कुछ अमूल्य उपहार दिया - कला के साथ एक सहज जुड़ाव।
गांव में त्यौहार और शादियाँ सिर्फ़ जश्न मनाने के अवसर नहीं थे, बल्कि युवा दुर्गाबाई के लिए सफ़ेद, लाल और काली मिट्टी से मिट्टी की दीवारों पर खुद को अभिव्यक्त करने के अवसर भी थे। उनके घर की मिट्टी की दीवारों पर उनकी दादी द्वारा सजी जटिल पेंटिंग उनकी कलात्मक आकांक्षाओं के लिए प्रारंभिक कैनवास बन गईं।
परिवर्तन के उत्प्रेरक
गोंड चित्रकला के क्षेत्र में अग्रणी और दुर्गाबाई के चचेरे भाई जंगगढ़ सिंह श्याम ने उनकी कलात्मक दृष्टि को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गोंड मिथकों और मान्यताओं की उनकी अनूठी व्याख्या प्रेरणा का स्रोत बनी।
1996 में, उसी साल जब दुर्गाबाई भोपाल आईं, तो उन्हें गांव के एक घर की दीवार पर हनुमान की एक खूबसूरत पेंटिंग दिखी। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि यह उनके चचेरे भाई जंगगढ़ सिंह श्याम का काम था। यह रहस्योद्घाटन उनके खुद के कलात्मक अन्वेषण के लिए उत्प्रेरक बन गया।
उद्देश्यपूर्ण कला: रंगों के माध्यम से संदेश
दुर्गाबाई व्याम की कला केवल सौन्दर्यबोध से परे है; इसमें एक गहरा संदेश छिपा है। पेड़ों, पक्षियों और प्रकृति को दर्शाने वाले उनके जीवंत परिदृश्य पर्यावरण संरक्षण और परंपराओं के प्रति श्रद्धा जैसे आवश्यक विषयों को व्यक्त करने के लिए एक दृश्य माध्यम के रूप में काम करते हैं। उनके चरित्र, जो अक्सर मानवीय गुणों से संपन्न होते हैं, प्रकृति के साथ उनके गहरे जुड़ाव को दर्शाते हैं, जो डिंडोरी में उनके प्रारंभिक वर्षों के दौरान विकसित हुआ था।
भारत का सांस्कृतिक संरक्षक: डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की कहानी का चित्रण
अपने पति के साथ मिलकर दुर्गाबाई ने डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के जीवन का मार्मिक चित्रण 'भीमयान: अस्पृश्यता के अनुभव' को चित्रित करने में गर्व महसूस किया। उनकी कलात्मक यात्रा में बच्चों के उपन्यास, इतिहास कथा और जीवनी के लिए चित्रण शामिल हैं। 2008 में, व्याम को 'द नाइट लाइफ़ ऑफ़ ट्रीज़' में उनके चित्रण के लिए प्रतिष्ठित बोलोग्ना रागाज़ी पुरस्कार मिला।
वैश्विक मान्यता: पद्म श्री और उससे आगे
दुर्गाबाई व्याम की गोंड प्रतिमाओं को संरक्षित करने और बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक पद्म श्री से सम्मानित होने के साथ अपने चरम पर पहुंच गई। मुंबई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे और इंदिरा गांधी संग्रहालय जैसे प्रसिद्ध स्थानों पर प्रदर्शित उनकी कला स्थानीय मिट्टी की दीवारों से लेकर अंतरराष्ट्रीय पहचान तक उनके विकास को दर्शाती है। वैश्विक मंच ने उनकी विशिष्ट शैली को अपनाया है, जिससे गोंड कला की मंत्रमुग्ध करने वाली कहानियों को व्यापक दर्शकों तक पहुंचाया गया है।