केन्द्र एवं प्रदेश सरकारें समुदाय के लिए अनेकों योजनाएं क्रियान्वित कर रहीं हैं लेकिन इसका सार्वजनिक स्तर पर व्यय हुआ या नहीं इस को लेकर स्थानीय गैर सरकारी संगठनों के सोशल आडिट को लेकर समझ विकसित किये जाने की आवश्यकता है। यह एक  तरह से हमारे देश की  गैरसरकारी संस्थाओं की विफलता के संकेत हैं। परंतु कुछ सालों में सरकार ने एवं समुदाय ने इस कार्य को लेकर संवेदनाएं जाहिर की है जो देश के सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने में सहयोगी हो सकती है। 

हाल ही में सोशल ऑडिट को लेकर गठित एक जॉइंट टास्क फोर्स ने अपनी रिपोर्ट में सोशल ऑडिट को प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करने का एक अहम माध्यम बताया है। विदित हो कि उच्चतम न्यायालय भी एक पीआईएल को लेकर चल रही सुनवाई के दौरान इस टास्क फोर्स के सुझावों पर गहनता से विचार कर रहा है। इस लेख में हम यह समझेंगे कि सोशल ऑडिट क्या है और इसके क्या लाभ हैं?

क्या है सोशल ऑडिट ?

  • कोई नीति, कार्यक्रम या योजना से वांछित परिणाम हासिल हो पा रहा है या नहीं? उनका क्रियान्वयन सही ढंग से हो रहा है या नहीं? इसकी छानबीन यदि जनता स्वयं करे तो उसे सोशल ऑडिट कहते हैं। यह एक ऐसा ऑडिट है जिसमें जनता, सरकार द्वारा किये गए कार्यों की समीक्षा ग्राउंड रियलिटी के आधार पर करती है।
  • दरअसल, पूरे विश्व में आजकल प्रातिनिधिक प्रजातंत्र की सीमाओं को पहचानकर नीति-निर्माण और क्रियान्वयन में आम जनता की सीधी भागीदारी की मांग जोर पकड़ रही है।
  • निगरानी के अन्य साधनों के साथ ही सामुदायिक निगरानी के विभिन्न साधनों के अनूठे प्रयोग हो रहे हैं। सोशल ऑडिट ऐसी ही एक अनूठी पहल है।
  • उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी अधिनियम, 2005 में सोशल ऑडिट का प्रावधान किया गया है।
  • इस कानून की धारा-17 के अनुसार साल में दो बार ग्राम सभा द्वारा सोशल ऑडिट किया जाना आवश्यक है।
  • ग्राम सभा, ग्राम पंचायत क्षेत्र में निवास करने वाले सभी पंजीकृत मतदाताओं का एक साझा मंच है। ग्रामीण क्षेत्र में प्रत्यक्ष लोकतंत्र की यह सबसे महत्त्वपूर्ण संस्था है।

कैसे किया जाता है सोशल ऑडिट ?

  • सर्वप्रथम ग्राम सभा एक सोशल ऑडिट समिति का चयन करती है, जिसमें आवश्यकतानुसार पाँच से 10 व्यक्ति हो सकते हैं। यह समिति, जिस कार्यक्रम या योजना की सोशल ऑडिटिंग करनी होती है, उससे संबंधित सभी दस्तावेज़ और सूचनाएँ एकत्र करती है।
  • एकत्रित दस्तावेज़ों की जाँच-पड़ताल की जाती है तथा उनका मिलान किये गए कार्यों तथा लोगों के अनुभवों एवं विचारों के साथ किया जाता है।
  • तत्पश्चात एक रिपोर्ट बनाई जाती है, जिसे पूर्व-निर्धारित तिथि को ग्राम सभा के समक्ष रखा जाता है। ग्राम सभा में सभी पक्ष उपस्थित होते हैं और अपनी बातें रखते हैं। यदि कहीं गड़बड़ी के प्रमाण मिलते हैं तो उनका दोष-निवारण किया जाता है।
  • यदि ग्राम सभा में ही सभी मसलों को नहीं निपटाया जा सकता है तो उसे उच्चाधिकारियों के पास भेज दिया जाता है। कार्यक्रम को और प्रभावी बनाने हेतु सुझाव भी ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा दिया जाता है।
  • विदित हो कि सोशल ऑडिट के लिये बुलाई गई ग्राम सभा की अनुशंसाओं का एक निश्चित अवधि के भीतर पालन किया जाता है और अगली ग्राम सभा में कार्रवाई का प्रतिवेदन भी प्रस्तुत किया जाता है।

सोशल ऑडिट के उद्देश्य

  • व्यवस्था की जवाबदेही सुनिश्चित करना।
  • जन-सहभागिता बढ़ाना।
  • कार्य एवं निर्णय प्रक्रिया में पारदर्शिता लाना।
  • जनसामान्य को उनके अधिकारों एवं हक के बारे में जागरूक करना।
  • कार्ययोजनाओं के चयन एवं क्रियान्वयन पर निगरानी रखना।

सोशल ऑडिट महत्त्वपूर्ण क्यों ?

  • सोशल ऑडिट की व्यवस्था को यदि भलीभाँति लागू किया जाए तो इससे कई लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं, जो सुशासन में मददगार साबित होंगे, जैसे:

• इससे लोगों को सहजतापूर्वक सूचना मिलेगी और शासन व्यवस्था पारदर्शी होगी।
• जवाबदेही बढ़ेगी, जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा।
• नीतियों और कार्यक्रमों की योजना-निर्माण में आम जनता की भागीदारी बढ़ेगी।
•सोशल ऑडिट से ग्राम सभा या शहरी क्षेत्रों में मोहल्ला-समिति जैसी प्रजातांत्रिक संस्थाओं को मज़बूती मिलेगी।

कैसे सोशल ऑडिट को और प्रभावी बनाया जाए ?

  • अगर हम अपने आस-पास नजर दौड़ाते हैं तो पाते हैं कि नीतियों का सही क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है, कहीं इसका कारण भ्रष्टाचार है तो कहीं प्रशासन की सुस्ती।
  • हालाँकि सबसे बड़ा सवाल यह है कि इनसे मुक्ति के उपाय कौन से हैं? दीर्घकालिक उपाय तो राष्ट्रीय और व्यक्तिगत चारित्रिक उत्थान ही है।
  • लेकिन, यदि हम शासन व्यवस्था में सोशल ऑडिट को प्रोत्साहित और स्थापित करने का प्रयास करें तो तात्कालिक परिणाम मिलने की संभावना है।
  • कई राज्यों की ग्राम-पंचायतों में सोशल ऑडिट किया जा रहा है, लेकिन इसे और अधिक व्यापक एवं प्रभावी बनाने के लिये इसके बारे में लोगों को बताना होगा, उन्हें जागरूक बनाना होगा और उन्हें प्रशिक्षण देना होगा।
  • इसके साथ ही सोशल ऑडिट की अनुशंसाओं को लागू करने के लिये समयबद्ध और उचित कार्रवाई पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष
जितना आवश्यक नीतियों का निर्माण करना है, उतना ही ज़रूरी अब तक हुई प्रगति का आकलन करना भी है। कागजों पर दिखने वाले विकास और वास्तविक धरातल पर होने वाले विकास के बीच की खाई पाटने का सोशल ऑडिट एक अचूक हथियार साबित हो सकता है।

किन किन योजनाओं का होता है सोशल ऑडिट- 

सर्वप्रथम सामाजिक अंकेक्षण मनरेगा में धारा 17 के अंतर्गत अनिवार्य किया गया था ।मनरेगा में सामाजिक अंकेक्षण की उपयोगिता ने सरकार को इसे अन्य विभागों में लागू करने के लिये मजबूर कर दिया।वर्तमान में सामाजिक अंकेक्षण निम्नलिखित कार्यक्रमों/योजनाओं में लागू है -

 

  1. मनरेगा
  2. प्रधानमंत्री आवास योजना 
  3. स्वच्छ भारत मिशन
  4. सार्वजनिक वितरण प्रणाली
  5. किशोर न्याय बोर्ड

 2017 से मेघालय राज्य ने अपने सभी विभागों में सोशल ऑडिट को अनिवार्य कर दिया है।

सोशल ऑडिट की प्रक्रिया-

प्रत्येक वर्ष एक सोशल आडिट कलेंडर जारी किया जाता है जिसमे प्रत्येक ग्राम पंचायत में कब-कब सोशल ऑडिट होना है ,का उल्लेख होता है।

    कलेंडर के अनुसार ब्लॉक स्तर पर सोशल ऑडिट टीम तैयार होती है।ब्लॉक स्तर पर सोशल ऑडिट टीम के चयन के प्रत्येक राज्य में अलग अलग मानदण्ड हैं ।उत्तरप्रदेश में ब्लॉक स्तर पर सोशल ऑडिट टीम का चयन राष्ट्रीय आजीविका मिशन के अंतर्गत बने समूहों में से 40 वर्ष की उम्र की महिला /पुरुषों से किया जाता है।

जिस ग्राम पंचायत में सोशल आडिड होता है वहाँ ग्राम सभा के सदस्यों को 15 दिन पहले सोशल ऑडिट की जानकारी पम्फलेट या अन्य प्रचार प्रसार के माध्यम से दी जाती है । ततपश्चात सोशल ऑडिट टीम द्वारा उस योजना या कार्यक्रम का चयन किया जाता है जिसका सोशल ऑडिट किया जाना होता है।

कार्यक्रम या योजना के चयनोपरांत उस कार्यक्रम या योजना से सम्बंधित जरूरी दस्तावेज एकत्र किए जाते हैं फिर एकत्रित दस्तावेजों ,आंकड़ों का सरलीकरण किया जाता है ताकि जनसामान्य को सरकारी या तकनीकी शब्द आसानी से समझ आ जाएं ।

सरलीकरण के उपरांत सोशल ऑडिट टीम सर्वप्रथम कागजों का मिलान करती है फिर ग्राउंड पर जाकर योजना क्रियान्वयन की जांच करती है  व उन कार्यों का मिलान करती है जो कागजों में दर्शाये हैं।साथ ही सोशल आडिट टीम उन सभी कामगारों से भी प्रश्न करती है जिनका नाम मस्टर रोल में उल्लेखित है।

इस तरह ग्राउंड पर जाँच करने के पश्चात सोशल ऑडिट टीम एक रिपोर्ट तैयार करती है।यह रिपोर्ट सोशल ऑडिट टीम द्वारा ग्राम सभा की खुली बैठक में पढ़कर सुनाई जाती है।ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा जो आपत्तियां बताई जाती है उन्हें सोशल ऑडिट टीम द्वारा लिखा जाता है।

ग्राम सभा की बैठक के उपरांत ब्लॉक स्तर पर भी एक बैठक का आयोजन किया जाता है ततपश्चात सोशल ऑडिट टीम द्वारा  रिपोर्ट जमा कर दी जाती है।इस रिपोर्ट में जो आपत्तियां दर्ज होती हैं सक्षम अधिकारियों द्वारा उनका निराकरण किया जाता है।

  • सरकारी योजना या कार्यक्रम का चयन
  • योजना से सम्बंधित दस्तावेजों का एकत्रण
  • तथ्यों का सरलीकरण 
  • दस्तावेजों की जाँच करना
  • कार्यों की ग्राउंड स्तर पर जाँच करना 
  • दस्तावेजों और कार्यो  का मिलान करना
  • रिपोर्ट तैयार करना
  • रिपोर्ट ग्राम सभा मे पढ़कर सुनाना
  • आपत्तियों को लिखना
  • रिपोर्ट को जमा करना

सोशल ऑडिट के उद्देश्य-

  1. योजनाओं व कार्यक्रमों के क्रियान्वयन व निर्णय प्रक्रिया में पारदर्शिता लाना ।
  2. योजनाओं व कार्यक्रमो की जानकारी जनसामान्य को सुलभ कराना।
  3. अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना।
  4. योजनाओं व कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के प्रत्येक स्तर पर जन भागीदारी को बढ़ाना।
  5. योजनाओं में भ्रष्टाचार व अनियमितता की निगरानी रखना ।
  6. जनता में जागरूकता लाना।
  7. किसी योजना या कार्यक्रम का लाभार्थी पर क्या प्रभाव पड़ा इसकी समीक्षा करना।
  8. पंचायत में योजनाओं की निगरानी के लिए जनसामान्य को शिक्षित कर सामाजिक पूंजी तैयार करना।
  9. सरकारी योजनाओं में लीकेज को रोकना।
  10. पारदर्शिता ,जवाबदेही और जनभागीदारी को बढ़ाना ।

सोशल ऑडिट और पब्लिक ऑडिट में अंतर-  

सोशल  ऑडिट  व पब्लिक ऑडिट दोनों ही ऑडिट में  जनसामान्य की भागीदारी रहती है ।परंतु फिरभी दोनों में अंतर है।

  • सोशल ऑडिट सोशल ऑडिट निदेशालय द्वारा द्वारा जारी कलेंडर की तिथिनुसार होता है जबकि पब्लिक ऑडिट किसी भी समय जनता द्वारा किया जा सकता है।
  • सोशल ऑडिट  ,निदेशालय द्वारा चयनित सोशल ऑडिट टीम द्वारा जनसहभागिता के साथ किया जाता है जबकि पब्लिक ऑडिट में सरकारी टीम की कोई आवश्यकता नहीं होती है ।पब्लिक ऑडिट में जनता स्वयं कार्यों की जाँच करती है।
  • सोशल ऑडिट में सोशल ऑडिट टीम कार्यों के जांचोपरांत रिपोर्ट तैयार करती है और ग्राम सभा मे पढ़कर सुनाती है जबकि पब्लिक ऑडिट में जनता रिपोर्ट तैयार करती है उसे ग्राम सभा की बैठक में पढ़कर सुनाना आवश्यक नहीं होता है।

सोशल ऑडिट और सामान्य ऑडिट में अंतर- 

  • सोशल ऑडिट जन समुदाय की सहभागिता से किया जाता है जबकि सामान्य ऑडिट  समुदाय की जनसहभागिता के बिना किया जाता है।
  • सोशल ऑडिट सोशल ऑडिट टीम द्वारा जनता के साथ किया जाता है जबकि सामान्य ऑडिट बाहरी व्यक्ति द्वारा किया जाता है।
  • सोशल ऑडिट में दस्तावेजों के साथ उनका भौतिक सत्यापन किया जाता है व उनका मिलान किया जाता है जबकि सामान्य ऑडिट में केवल दसतवेज़ों को देखा जाता है।
  • सोशल ऑडिट में सामाजिक जवाबदेही सुनिश्चित होती है जबकि सामान्य ऑडिट में सामाजिक जवाबदेही सुनिश्चित नहीं होती है।
  • सोशल ऑडिट में पारदर्शिता के साथ जनकल्याण की भावना निहित होती है जबकि सामान्य ऑडिट में पारदर्शिता नहीं होती है।
  • सोशल ऑडिट में योजनाओं के क्रियान्वयन का समुदाय व  क्षेत्र पर असर देखा जाता है जबकि सामान्य ऑडिट में केवल यह देखा जाता है कि कार्य नियमानुसार हुए हैं या नहीं।

सोशल आडिट का महत्व - 

  • उन संस्थानों में जहां कैग द्वारा आडिट नहीं किया जाता है वहाँ सोशल आडिट महत्वपूर्ण एवं कारगर  है।
  • सोशल आडिट की प्रक्रिया में जनसामान्य की प्रशासन के साथ सहभागिता होती है जिसके कारण प्रजातन्त्र को और अधिक मजबूती मिलती है।
  • अधिकारी व जनप्रतिनिधि जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं।
  • योजनाओं व कार्यक्रमों के क्रियान्वयन व निर्णय प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ती है।
  • अनिमितताओं पर नियंत्रण लगता है।
  • भ्रष्टाचार पर अंकुश लगता है।
  • कार्यों का भौतिक सत्यापन किया जाता है जिसके कारण सोशल आडिट की प्रक्रिया और अधिक प्रभावी हो जाती है।

सोशल आडिट के समक्ष आने वाली चुनौतियां- 

  • अधिकारियों का सोशल आडिट की प्रक्रिया में रुचि न रखना ।अधिकारियों द्वारा सिर्फ औपचारिकताओं की ही खाना पूर्ति किया जाना।
  • सोशल आडिट टीम के सदस्यों का अपने कार्य के प्रति ईमानदार न रहना ।
  • सोशल आडिट टीम के सदस्य व ब्लाक कॉर्डिनेटर का प्रधान या रोजगार सेवक से सांठगांठ कर लेना।
  • जागरूक ग्रामीणों का सोशल आडिट प्रक्रिया में रुचि न लेना ।
  • जागरूक ग्रामीणों का पंचायत के कार्यों के प्रति उदासीन रहना।
  • ग्रामीणों में जागरूकता का अभाव ,अशिक्षा आदि।

सोशल आडिट को और कारगर कैसे बनाया जा सकता है-

सोशल आडिट की प्रक्रिया ग्रामीण भारत मे कुछ हदतक भ्रस्टाचार पर अंकुश लगाने में कारगर सिद्ध हुई है पर यह अभी अपने लक्ष्य से कोसों दूर है।

   सरकार  ने सोशल आडिट के महत्व को समझा है इसीलिए वह इसको और अधिक कारगर बनाने के लिए प्रयासरत है

  जबतक योजनाओं व कार्यक्रमों में और अधिक पारदर्शिता नहीं बढ़ेगी ,अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों में और अधिक जवाबदेही नहीं बढ़ेगी और जब तक जनसमुदाय की और अधिक भागीदारी नहीं बढ़ेगी तब तक सोशल आडिट अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हो सकता।

 आज जरूरत है कि जनसमुदाय  जागरूक एवं शिक्षित हो तभी वह अपने अधिकारों एवं योजनाओं के बारे में जान सकता ।प्रश्न कर सकता है और उनके क्रियान्वयन की ,उनके प्रभाविकता की जांच एवं मूल्यांकन कर सकता है।

 सरकार  व स्वैच्छिक संगठनों द्वारा जनसामान्य में   सोशल आडिट के महत्व के प्रचार प्रसार की जरूरत है ताकि अधिक से अधिक लोग सोशल आडिट की प्रक्रिया में शामिल हों। 

उत्तर प्रदेश सोशल आडिट संगठन- 

जमीनी हकीकत-

1990 के दशक में किसान मजदूर शक्ति संगठन द्वारा अपना पैसा अपना हिसाब का आंदोलन चलाया इसी से आंदोलन से सोशल ऑडिट की अवधारणा का जन्म हुआ ।सरकार ने इस अवधारणा की महत्ता को समझा और इसे ग्रामीण भारत की तमाम योजनाओं के लिये आवश्यक कर दिया ताकि ऊपर से जो योजना या पैसा  भेजा जा रहा है वह समाज के आखिरी छोर पर खड़े व्यक्ति तक पहुँच रहा है या नहीं।ग्राम पंचायत में सम्पदाओं का निर्माण हो रहा है या नहीं ।कितनी सुंदर व्यवस्था हमारे नीतिकारों ने की है पर जमीनी हकीकत कुछ और ही है

 जितनी ज्यादा निगरानी उतना अधिक भ्रष्टाचार की कहावत सही चरितार्थ होती लगती है।सरकार ने सोशल आडिट को ग्रामीण भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए एक महत्वपूर्ण अस्त्र समझा पर सरकार के मुलाजिमों ने सुचिता से कार्य न करके इसकी आत्मा की हत्या कर दी।

न्यूज़ सोर्स : ipm