भारत में बहुत सी भाषाएं बोली या पढ़ी जाती हैं। लेकिन बीते कुछ समय से कई भाषाएं, विशेषकर आदिवासी भाषाएं, विलुप्त होने की कगार पर हैं। इनमें से एक भाषा गोंडी है, जो पिछले कुछ सालों से अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है। गोंडी एक व्यापक आदिवासी गोंड समुदाय की भाषा है, जो देश के विविध हिस्सों में रहते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, यह संभावित रूप से लुप्त भाषाओं की श्रेणी में शामिल है। यानी भविष्य में इसके लुप्त होने की प्रबल संभावना है।

इस भाषा को स्थानीय स्तर पर पुर्नजीवित करने के लिए भोपाल के कोटरा की गंगा नगर बस्ती में एक पहल की जा रही है। इसकी शुरुआत करने वाली गोंडी रंगमंच कलाकार मोना बाघमारे, मध्य प्रदेश के भोपाल में ‘गुल्लक’ रंगमंच के साथ बारह साल की उम्र से जुड़ी हुई हैं। मोना खुद ज्यादातर गोंडी भाषा में ही बात करती हैं। उनके अनुसार, आदिवासी भाषाएं न केवल सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं, बल्कि ये वन्यजीवों और जल-जंगल-ज़मीन को बचाने की भी एक अहम कड़ी हैं। इस बात की गंभीरता को समझते हुए मोना ने अपने समुदाय की भाषा को आधार बनाकर रंगमंच को अपनाया और ‘गुल्लक’ की शुरुआत हुई।

मोना बताती हैं कि गोंडी पर अब हिंदी धीरे-धीरे हावी होती जा रही है। बीते कुछ सालों में गोंडी समाज, ख़ासकर युवा, हिंदी शब्दों का अधिक इस्तेमाल करने लगे हैं। अपनी भाषा न बोलने के कारण ही आज देश में कई आदिवासी भाषाएं विलुप्ति की कगार पर हैं। मोना मानती हैं कि किसी अन्य भाषा का ज्ञान गलत नहीं है, बल्कि यह हमें समृद्ध करता है। लेकिन अपनी भाषा को त्यागने का अर्थ है कि आने वाली पीढ़ियां अपनी जड़ों से दूर हो जाएंगी। इसलिए अगर समय रहते इन्हें नहीं बचाया गया, तो भविष्य में गोंडी का वजूद ही मिट जाएगा।

मोना गुल्लक के मंच से अपने आस-पास के गोंडी समुदाय से आने वाले बच्चों को रंगमंच का प्रशिक्षण देती हैं। वह गोंडी बच्चों में समझ और जागरूकता पैदा करने के लिए उनकी भाषा में संवाद करती हैं, जिससे वह सहज रूप से नयी चीज़ें सीख पाते हैं। वह बच्चों को नाटक सिखाने, पढ़ाने के साथ-साथ स्क्रिप्ट लिखना भी सिखाती हैं। वह समुदाय के प्रचलित किस्से-कहानियों को स्टोरीटेलिंग के माध्यम से समझाती हैं। इनमें गोंडी भाषा की पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली लोककथाएं और लोकगीत शामिल होते हैं।

मोना, स्टेज को सजाने के लिए भी ज्यादा से ज्यादा आदिवासी जीवन से जुड़ी प्राकृतिक चीजों जैसे पत्तियां, साड़ियों की चिंदियां (परदे बनाने के लिए बारीक कटे हुए कपड़े), हंसिया (सब्जी काटने का औजार), सब्जियां व घर में इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तनों का इस्तेमाल करती हैं। इस पूरी प्रक्रिया में वह कुछ सवाल बच्चों के लिए छोड़ देती हैं। बच्चे इन सवालों पर सोच-विचार करते हैं और उनके उत्तर लिखकर लाते हैं।

मोना का मानना है कि आदिवासी जगत में, कुटुंब में बने रहने या झुण्ड में बने रहने की भावना अधिक होती है, जिससे आदिवासी संस्कृति को मजबूती मिलती है। इसलिए वह इस नाटक के जरिए न केवल अपनी भाषा, बल्कि आदिवासी समुदाय की संस्कृति को भी सशक्त कर रही हैं। ‘गुल्लक’ के माध्यम से इससे जुड़े आदिवासी गोंड बच्चे आज भोपाल के विभिन्न हिस्सों में नाटक कर चुके हैं।

धरातल से जुड़ी इस पहल में कई चुनौतियां शामिल हैं, जिनमें सबसे बड़ी समस्या फंडिंग से जुड़ी हुई है। उदाहरण के तौर पर, महंगा किराया, बच्चों के खाने-पीने का खर्च और नाटक से जुड़े उपकरण खरीदने में असमर्थता जैसी कई समस्याएं सामने आती हैं। ये सभी बाधाएं गुल्लक के निरंतर प्रयास और प्रगति में रुकावट डालती हैं। यही कारण है कि इस समूह से जुड़े लोगों को रंगमंच संबंधी क्षमता निर्माण की ज़रूरत भी महसूस होती है, ताकि बच्चे नए विचारों और कौशल के माध्यम से अपनी समझ को और भी गहरा कर सकें।

न्यूज़ सोर्स : वर्षा प्रकाश, एक स्वतंत्र लेखिका, अकादमिक अनुवादिका, शोधकर्ता और एजुकेटर हैं।