भारत में तीव्र आय असमानता चिंता का विषय बनी हुई है। सरकारी सामाजिक सुधार कार्यक्रमों के बीच व्यक्तिगत लाभ हेतु समुदाय को भड़काया जा रहा है। ग्रामीण भारत में बहुआयामी गरीबी को कम करना अपने आप में महत्वपूर्ण है और साथ ही देश के आगे के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए इसे संवैधानित तरीके से बढ़ाया जाना चुनौति भरा कदम दिख रहा है। 

वर्तमान में चल रहे  सामाजिक विकास के लिए सार्वजनिक सेवाओं  जैसे स्वच्छ भारत योजना, उज्ज्वला योजना, जनधन बचत खाते, महामारी के दौरान मुफ्त खाद्य वितरण आदि, के वितरण में उल्लेखनीय प्रदर्शन के उदाहरण सामने आए हैं,जो मुख्य रूप से इन चुनौतियों से निपटने के लिए एक ठोस   प्रयास  नहीं हैं ।

  विकास क्षेत्र में बाधाएँ  

  • लोगों में अज्ञानता और जागरूकता की कमी
  • ग्रामीण स्तर पर सामाजिक  तानाबाना, जिसमें अलग-अलग शक्तियों वाले  नेताओं के बीच सत्ता का खेल  
  •  योजना के कार्यान्वयन में शामिल प्रशासनिक प्रक्रियाओं में जटिलता
  • आपूर्ति प्रणाली में निष्ठा के मुद्दे
  • लाभार्थियों में जागरूकता की कमी

  इन बिन्दुओं पर ध्यान देना जरूरी 

प्रशिक्षित मानव संसाधनों की अनिच्छा 

ग्रामीण क्षेत्रों में रहने और काम करने के लिए शिक्षित और पेशेवर रूप से प्रशिक्षित मानव संसाधनों की अनिच्छा, खराब बुनियादी ढाँचा विकास, शामिल एजेंसियों के बिखरे हुए और खंडित जनादेश और सरकारी प्रणालियों के सामान्य धन प्रवाह के मुद्दे कुछ ऐसे कारक हैं जिन्हें विकास में देरी का कारण माना जाता है  लेकिन इस को लेकर समाज में सोच का विस्तार नहीं हो सका है। 

सामाजिक बदलाव के लिए समाजसेवियों की राय

माजसेवी सतेन्द्र यादव कहते हैं- समाज शब्द ही समान जन की भावना से बना है इसलिए जब तक समानता की पराकाष्ठा को ये प्राप्त नही कर लेता तब तक इसे अपने आप में कुछ परिस्थिति वश परिवर्तन आवश्यक रूप में करने होंगे। जिस प्रकार हर किसी स्मार्टफोन में हर माह या हर वर्ष कुछ अपडेट के द्वारा उसके सुरक्षा सॉफ्टवेयर्स को बदला जाता है क्यों जिस से वो और बेहतर काम कर सके। चीज़े कितनी भी अच्छी क्यों न हो उनमे समय के साथ परिवर्तन जरूरी है ये परिवर्तन उसे बेहतर बनाने के लिए हो ये जरूरी है, स्वार्थवश न हो, पाषाण काल से हर सभ्यता में परम्पराओ या नियमो का विकास परिस्थितियों व प्रकृति के अनुकलन के कारण हुआ है इसलिए आज जब परिस्थितिया भिन्न है और प्रकृति में कई बदलाव आरहे है तो क्यों एक नए अनुकूलन या सामंजस्य के लिए बदलाव उचित ढंग से करे। समाज बदलाव नैतिकए धार्मिक;सांस्कृतिक, पर्यावरण की भावना को ध्यान में रखकर ही हो तो अच्छा है क्यों समाज का निर्माण ही इन्ही तीनो के परिपेक्ष्य में नवपाषाण काल मे हुआ था। नेतिकताए सांस्कृतिकता व पर्यवारण ये सिर्फ शब्द भर नही है इनकी पहुँच काफी दूर तक है जिसमे शारीरिक भावना औऱ समाज की भावना व नियम अंतर्निहित है। ज्ञान व प्रगति का भी आधार परिवर्तन ही हैए उसके बिना कोई समाज जड़ता की जड़ में फस कर रह जायेगा जो उसे;समाजद्ध को पतन की राह की और अग्रसर कर देगा।

समाजसेवी सृष्टि सिंह का मानना है- जरूरी नहीं कि कैसा बदलाव मैं चाहती हूं ,सभी चाहते हो। , वैसे कुछ मुद्दे सबको समान रूप से विचलित करते है, जैसे आजकल बलात्कार ,खून खराबा,,चोरी की समस्या बढ़ रह है,तो उनको तो सब बदलना चाहेगे,महंगाई भी बढ़ रही है, बेरोजगारी भी बड़ रही है, हवा में पॉल्यूशन बढ़ रहा है

समाजसेवी निरंजना चौहान का मानना है- जीवन हमेशा एक.सा नहीं रहता। परिवर्तन को स्वीकार कर ही हम अपनी हताशा.निराशा से उबर सकते हैं और समय के साथ चलकर अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं।

समाजसेवी कुमार मुकुल मानते हैं- लोग पढने की आदत डालें खुद तमाम विषयों को जानें समझें। आजकल लोग दूसरों के सुने सुनाएं बगैर तत्यात्मक एवं अप्रत्यक्ष ज्ञान पर भी विश्वास कर अंधभक्ति कर रहे है। कानून को एवं अधिकारोंको  जानना जरूरी है। 

Sharp income inequality in India is a matter of concern, government should include this in community change

न्यूज़ सोर्स : IPM