खाद्य सुरक्षा में सुधार हेतु मशरूम की खेती है बेहतर विकल्प
विगत वर्षों में भारत में कृषि क्षेत्र का विकास मुख्य रूप से कृषि उत्पादन बढ़ाने और खाद्य सुरक्षा में सुधार लाने पर अधिक केंद्रित रहा है। इसके परिणामस्वरुप हमारे देश में प्रति व्यक्ति खाद्य उत्पादन में करीब 45 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इससे भारत न केवल खाद्य उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन गया बल्कि खाद्य निर्यातक देशों की पंक्ति में भी शामिल हो गया। लेकिन इस रणनीति ने किसानों की आय बढ़ाने तथा किसान कल्याण को बढ़ावा देने की दिशा में ज्यादा प्रयास नहीं किया, नतीजतन किसानों की आय कम होती रही। किसान और गैर – कृषि मजदूर की आय के मध्य बड़ा और बिगड़ता अंतर, 1990 के दशक से अधिक गंभीर होता गया। खेती से कम आय और अत्यधिक उतार – चढ़ाव वाली आय के कारण अधिकांश किसान, विशेष रूप से युवा किसान खेती छोड़ने के लिए भी मजबूर हो रहे हैं।
मशरूम की खेती कृषकों की आय बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। इसकी खेती के लिए अन्य फसलों के समान खेती की आवश्यकता नहीं होती। अत: यह छोटे एवं भूमिहीन किसानों तथा गृहणियों के लिए उपयुक्त व्यवसाय हो सकता है। इसे अपनाकर बढ़ती हुई बेरोजगारी एवं अपर्याप्त पोषण और औषधीय गुणों को जन – जन में प्रचारित करने की आवशयकता है। मशरूम का उत्पादन फसल काटने के बाद बचे हुए भूसे पर किया जाए जाता है। ऐसा अनुमान है कि भारत में प्रति वर्ष लगभग 30 से 35 मिलियन टन कृषि अवशेष उत्पन्न होता है तथा इसका लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा (17 मिलियन टन) खेतों में ही जलाने के लिए अथवा सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है।
मशरूम के स्पॉन तैयार करने की विधि
मशरूम का उत्पादन बीज द्वारा किया जाता है, लेकिन ये वास्तविक बीज नहीं होते हैं। मशरूम के बीज को स्पॉन कहा जाता है। इनका उत्पादन कीटाणुरहित अवस्था में वानस्पतिक प्रवर्धन तकनीक द्वारा छत्रक से प्राप्त कवक जाल से किया जाता है। इसके लिए तकनीकी जानकारी एवं एक अच्छी प्रयोगशाला का होना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए मशरूम बीज को किसी सरकारी या गैर सरकारी मशरूम बीज उत्पादक संस्थाओं से ही प्राप्त करना चाहिए।
मशरूम का बीज प्राय: गेंहू के दानों पर बनाया जाता है। गेहूं को उसके दोगुनी मात्रा में पानी डालकर 20 – 25 मिनट तक उबाला जाता है। इसके अतिरिक्त पानी निकालने के बाद उसे छाया में 2 – 3 घंटों तक सुखाया जाता है। इसके पश्चात् इन दानों में 2 प्रतिशत जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट) तथा 0.5 प्रतिशत चॉक पाउडर (कैल्शियम कार्बोनेट) अच्छी तरह मिला देते हैं अब इन दानों को कांच की बोतलों में लगभग 300 ग्राम प्रति बोतल की दर से भर बंद कर दिया जाता है। इन बोतलों को जीवाणुरहित करने के लिए 22 पौंड प्रति वर्ग इंच के दबाव पर ऑटोक्लेव में डेढ़ से 2 घंटे के लिए रखा जाता है। ऑटोक्लेव सेन निकाल कर बोतलों को ठंडा होने के बाद पहले से तैयार शुद्ध कवक जाल संवर्धन को इन बोतलों में डाल देते हैं और 250 सेल्सियस पर ऊष्मायंत्र में रख दिया जाता है। इस प्रकार लगभग टी सप्ताह में मास्टर संवर्धन तैयार हो जाता है।
बीजाई के लिए बीज बनाने हेतु गेहूं उबालने से लेकर रसायन मिलाने तक की प्रक्रिया समान ही होती है, परंतु कांच की बोतलों की जगह पॉलिप्रोपाइलिन की थैलियों का प्रयोग किया जाता है। इन थैलियों का प्रयोग किया जाता है। इन थैलियों में 500 ग्राम बीज भरकर मोटे प्लास्टिक के छल्लों में पिरो लिया जाता है और रूई के ढक्कन से थैलियों के मूंह को बंद कर दिया जता है। इसके बाद इन थैलियों को 22 पौंड प्रति वर्ग इंच के दबाव पर ऑटोक्लेव में डेढ़ घंटे तक जीवाणुरहित किया जाता है। ठंडा होने के बाद इन थैलियों को निजर्मीकृत कमरे में ले जाता है। पहले से बनाये गये मास्टर संवर्धन से लगभग 50 दाने प्रत्येक पॉलिप्रोपाइलिन की थैलियों में डाल दिए जाते हैं। इन थैलियों को 250 सेल्सियस तापमान पर ऊष्मायंत्र में 2 -3 सप्ताह के लिए रखा जाता है। यह शुद्ध संवर्धन अब बिजाई के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।
मशरूम की बुआई एवं छ्त्रकों का उत्पादन
ढिंगरी या आयस्टर मशरूम पश्चिमी राजस्थान क्षेत्र में सर्वाधिक लोकप्रिय मशरूम है। ढिंगरी के छत्रक आकर में सिप्पीनुमा, बड़े चम्मच, प्लेट या पंखनुमा होते हैं। इस मशरूम की विभिन्न प्रजातियों में छत्रक विभिन्न रंगों जैसे सफेद, भूरे, पीले, गुलाबी, कत्थाई आदि के होते हैं। विश्व में ढिंगरी की कई प्रजातियों का व्यावसायिक उत्पादन हो रहा है जिनमें प्लूरोटस सेपीडस, प्लूरोटस साजोर काजू, प्लूरोटस साईंट्रिनोपीलीएट्स, प्लूरोटस ऑस्ट्रिएट्स आदि प्रमुख हैं।
व्यावसायिक स्तर पर ढिंगरी की खेती गेहूं के उपचारित भूसे पर की जाती है। इसके लिए करीब 90 से 100 लीटर पानी में 10 से 12 किग्रा. सूखे भूसे को प्लास्टिक या लोहे के ड्रम में भिगो दिया जाता है। साथ ही 10 लीटर पानी में 7.5 ग्राम बाविस्टीन तथा 125 मिलीलीटर फार्मेलिन घोलकर इसे भूसे में मिला दिया जाता है। इसके तुरंत बाद ड्रम को धक देना चाहिए। लगभग 18 घंटे बाद गीले भूसे को एक साफ जाली पर रखा जाता है। इससे अधिक पानी निकल जाता है। फिर भूसे को तिरपाल पर निकल जाता है। फिर भूसे को तिरपाल पर निकालकर आधे घंटे के लिए सूखा लिया जाता है।
बिजाई के लिए 200 से 250 ग्राम तैयार बीज प्रति 10 से 12 किग्रा. गीले भूसे में मिलाया जाता है। बिजाई भूसा और बीज की परत बनाकर पॉलीथिन की थैली को भरकर बंद बंद कर्र दिया जाता है। इन थैलियों के दोनों कोने नीचे से काट दिए जाते हैं और बिजाई के बाद हर थैली में सूजे की सहायता से 25 से 30 छेद कर, एक बंद अँधेरे कमरे में 12 से 18 दिनों के लिए (24 – 270 सेल्सियस तापमान पर) कवक जाल को फैलने के लिए यानी स्पाननरन के लिए लोहे या बांस के रेकों में रख दिया जाता है। इस दौरान कवक जाल फैलकर थैलों में छत्रक की शुरूआत करने लगते हैं। जब मशरूम का कवकजाल पूरी तरह भूसे में फ़ैल जाये तब भूसे के थैले सफेद रंग के दिखाई देने लगते हैं। इस स्थिति में पॉलीथीन को पूरी तरह हटाकर भूसे के ब्लॉक को उत्पादन कक्ष में रेकों पर रख दिया जाता है और दिन में 2 -3 बार पानी का छिड़काव किया जाता है। स्वच्छ हवा के लिए कमरे की खिड़की को एक से आधे घंटे के लिए खोल देना चाहिए। पॉलीथीन हटाने के एक सप्ताह के बाद मशरूम के छोटे – छोटे छत्रक बनने लगते हैं.जो 4 से 5 दिनों से पूर्ण आकार ले लेते हैं।
राजस्थान की जलवायु में ढिंगरी की खेती प्राय: अक्टूबर से फरवरी माह तक आसानी से की जा सकती है। ठंडे मौसम में प्लूरोटस ऑस्ट्रीएट्स, प्लूरोटस फ्लोरीडा, प्लूरोटस कर्नूकोपिया तथा प्लूरोटस ऐरेन्जाई तथा गर्मियों में (20 – 280 सेल्सियस तापमान पर) प्लूरोटस सेपिड्स, प्लूरोटसफ्लेबीलेट्स, प्लूरोटस साजोर – काजू, प्लूरोटस साईंट्रिनोपीलीएट्स टाटा प्लूरोटस मैमब्रेनेसियम आसानी से उगायी जा सकती है।
मशरूम की गुणवत्ता
स्टार्च तथा शर्करा मशरूम, में नहीं के बराबर होता है। इस कारण यह मधुमेह के रोगियों व मोटापे के शिकार लोगों के लिए उत्तम भोजन है। मशरूम में कोलेस्ट्रोल विहीन गुणवत्ता वाली कम वसा होती है। इन गुणों के कारण हृदय रोगियों के लिए यह श्रेष्ठ आहार है। दूध, अंडा, मांस मछली, पालक, सामान्य सब्जियों एवं दालों की तुलना में मशरूम में बहुत ही अच्छी गुणवत्ता वाली प्रोटीन पायी जाती है। मशरूम प्रोटीन की गुणवत्ता मांसाहारी आहार के बराबर आंकी गयी है। मशरूम (ढिंगरी) और अन्य सूखे मशरूमों में 20 से 30 प्रतिशत तक प्रोटीन होती है। मशरूम में फॉलिक एसिड तथा विटामिन – बी काम्प्लेक्स के साथ आयरन भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। परिणामस्वरुप एनीमिया रोगियों के लिए यह दवाई का काम करता है। गर्भवती महिलाओं और बढ़ते हुए बच्चों को मशरूम खाने की सलाह दी जाती है। इसके अलावा मशरूम में पोटेशियम, सोडियम, मैग्नीशियम जैसे लवण प्रचुर मात्रा में होते हैं। विशिष्ट मशरूमों में कैंसर प्रतिरोधक क्षमता, खून में कोलेस्ट्रोल, रक्तचाप व ब्लड शूगर कम करने की क्षमता होती है। सभी वनस्पतियों में मशरूम ही वह खाद्य पदार्थ है, जिसमें विटामिन – डी पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। इन्हीं सब गुणों के कारण अंतर्राष्ट्रीय संस्थान, फ़ूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन (एफ. ए. ओ.) ने इसे संपूरक आहार की संज्ञा दी है। यदि हम इसे अपने आहार में शामिल करते हैं तो न केवल हमारे आहार की गुणवत्ता बढ़ेगी बल्कि इसका उत्पादन करने वाले छोटे, भूमिहीन किसानों एवं गृहणियों को भी आर्थिक लाभ होगा।
मशरूम उत्पादन में रोग प्रबंधन
भूसे की थैलों में कवक जाल के विस्तार को नियमित रूप में देखते रहना चाहिए। इसके अलावा उसमे होने वाली किसी भी प्रकार के रंग परिवर्तन के लिए जागरूक रहना चाहिए। यदि थैलों में काले, नील या हरे रंग के धब्बे दिखाई दने तो ऐसे थैलों को उत्पादन कक्ष से बाहर निकाल कर दूर फेंक देना चाहिए। जिस कमरे में मशरूम का उत्पादन किया जा रहा है।, उसका तापमान 20 से 250 सेल्सियस होना चाहिए। अगर कमरे का तापमान 280 सेल्सियस से ज्यादा बढ़ जाये ओ उसकी दीवारों तथा छत पर दो – तीन बार पानी का छिड़काव करना चाहिए। इस दौरान यह ध्यान रखें कि थैलों पर पानी इकट्ठा न हो। थैले भरने के अगले दिन से एक दिन के अंतराल पर नुवान नामक दवा का छिड़काव करना चाहिए। थैलों में यदि इल्लियाँ दिखाई दें तो इसका छिड़काव दिन में 3 से 4 बार भी किया जा सकता है। किन्तु इसका ध्यान रखना चाहिए कि फसल लगाने के 15 दिनों तक ही नुवान का छिड़काव कर सकते हैं। इसके बाद छिड़काव नहीं करना चाहिए। मशरूम उत्पादन कक्ष के अवांछित कारकों की वृद्धि की रोकथाम के लिए डाइक्लोरोवास दवा के 76 प्रतिशत पानी के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
मशरूम की तुड़ाई
करीब 7 से 8 दिनों में ये छत्रक ऊपर की ओर मुड़ने लगते हैं। इस अवस्था में मशरूम तोड़ने लायक हो जाती है। इस प्रकार 4 से 5 बार नये छत्रक बनते हैं और पहली तुड़ाई के 8 से 10 दिनों के बाद फिर से हर ब्लॉक में नये छत्रक बनते हैं और बड़े होने पर तोड़ लिए जाते हैं। छत्रकों को हमेशा पानी का छिड़काव से तोड़ना चाहिए। एक फसल लगभग डेढ़ महीने तक चलती है। फसल की अंतिम तुड़ाई के बाद खेती के लिए प्रयुक्त सभी थैलों को एक गड्ढे में इकट्ठा कर लिया जाता है। ये थैले सड़कर कुछ दिनों में खाद बन जाते हैं, जिन्हें खेतों में खाद की तरह प्रयोग किया जा सकता है।
भंडारण
मशरूम के छ्त्रकों को तोड़ने के बाद इसे लगभग डेढ़ से दो घंटे के इए एक कपड़े पर फैला देना चाहिए, जिससे उस पर नमी समाप्त हो जाये। इन छ्त्रकों को ताजा ही बाजार में बेचा जा सकता है अथवा छ्त्रकों को मांग के अनुसार, छिद्रदार पॉलीथीन में इक्ट्ठा करके रेफ्रिजेटर में तीन से चार दिनों तक रखा जा सकता है। इसके अलावा छ्त्रकों को धूप में सुखाकर कई दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
मशरूम के व्यंजन
उच्च गुणवत्तायुक्त पोषक और औषधीय खाद्य पदार्थों के अलावा मशरूम को अतिरिक्त आय के स्रोत के रूप में भी प्रचारित किया जा सकता है, जो कि किसानों की आमदनी को दोगुनी करने में भारत सरकार के प्रयासों को बल देगा। मशरूम की खेती कृषि अवशेषों जैसे फसलों का भूसा, फलगटी, कुत्तर आदि पर की जाती है। इसे किसी खेत की आवश्यकता नहीं होती किसी बेकार पड़ी बंजर भूमि पर अथवा घर में मशरूम – फार्म बनाया जा सकता है। यदि प्रति इकाई उत्पादन की दृष्टिकोण से देखा जाये तो मशरूम की खेती से प्राप्त उत्पादन अन्य फसलों की तुलना में कई गुना होता है। इसलिए इसे आमदनी के अतिरिक्त साधन के रूप में देखा जा सकता है। एक अनुमान के अनुसार मशरूम के खेती से तीन महीने के अल्प समय में ही लागत की तुलना में दोगुनी आय प्राप्त की जा सकती है।
गांवों के छोटे एवं सीमांत किसानों के लिए इसकी खेती रोजगार एवं आय का प्रमुख साधन हो सकती है, क्योंकि गांवों में विभिन्न कृषि अवशेष मुफ्त अथवा बहुत ही कम कीमत पर प्राप्त हो जाते हैं। साथ ही गांवों के कच्चे मकान तुलनात्मक रूप से ठंडे होते हैं। खरीफ एवं रबी फसलों के बीच मिलने वाले समय के दौरान ये किसान अतिरिक्त आय अथवा स्वरोजगार के लिए मशरूम की खेती कर सकते हैं। घरेलू महिलाओं के आर्थिक स्वावलंबन के लिए भी इसके उत्पादन की प्रबल संभावनाएं हैं।
मशरूम की खेती पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है। इसकी खेती के बाद बचे हुए कम्पोस्ट और भूसे को जानवरों को खिलाया जा सकता है। इसके अलावा इसे पूरी तरह सड़ाकर कार्बनिक खाद बनाने के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।
मशरूम की खेती में लागत एवं लाभ का अनुपात
एक किग्रा. गेहूं के सूखे भूसे से लगभग 700 से 800 ग्राम तक मशरूम की पैदावार ली जा सकती है। एक किग्रा. स्पान से लगभग 10 थैल आसानी से भर जाते हैं। इस प्रकार इसकी खेती के लिए सूखा भूसा एवं गेहूं मुख्य सामग्री है। एक बार सभी आवश्यक सामग्री खरीदने के बाद मशरूम की खेती के लिए लागत एवं लाभ का अनुमान एक अनुपात दो से अधिक आता है अर्थात किसान भाई इसकी खेती करके दोगुना लाभ आसानी से कमा सकते हैं। इसके अलावा मशरूम के मूल्य संवर्धित उत्पादों जैसे अचार आदि का उत्पादन करके अथवा इसको सुखाकर बेचने से अधिक आय प्राप्त की सकती है।
सफलता गाथा
श्री जितेन्द्र सिंह सांखला द्वारा जोधपुर में ढिंगरी मशरूम की खेती की जा रही है। श्री सांखला एक शिक्षित एवं युवा किसान हैं, जो कम्प्यूटर विज्ञान में स्नातक भी हैं। श्री सांखला ने काजरी के वैज्ञानिकों से तकनीकी ज्ञान लेकर महाराणा प्रताप कृषि विश्वविद्यालय, उदय पुर से बीज प्राप्त करके गेहूं के भूसे पर ढिंगरी मशरूम की खेती करने में सफलता प्राप्त की है। उनके अनुसार पश्चिमी राजस्थान में मशरूम की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। अपने खेत से प्राप्त गेहूं के भूसे को उपयोग में लेकर किसान भाई ढिंगरी मशरूम की खेती की लागत को कम कर सकते हैं। इन्होंनें ढिंगरी मशरूम को बेचने हेतु स्थानीय बाजार के खरीददारों से संपर्क कर काफी सफलता हासिल की है। श्री सांखला का मानना है कि मशरूम की खेती अपनाकर इस क्षेत्र के किसान भाई लागत की अपेक्षा अपनी आय को आसानी से दोगुना कर सकते हैं।