दीनदयाल उपाध्याय को सही मायनों में राष्ट्रीय पत्रकारिता का पुरोधा कहा जा सकता है। उन्होंने इस देश में उस समय राष्ट्रीय पत्रकारिता की पौध रोपी थी, जब पत्रकारिता पर कम्युनिस्टों का प्रभुत्व था। पंडित दीनदयाल उपाध्याय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। सादगी से जीवन जीने वाले इस महापुरुष में राजनीतिज्ञ, संगठन शिल्पी, कुशल वक्ता, समाज चिंतक, अर्थचिंतक, शिक्षाविद्, लेखक और पत्रकार सहित कई प्रतिभाएं समाहित थीं। ऐसी प्रतिभाएं कम ही होती हैं। पं. दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक व्यक्तित्व को सब भली प्रकार जानते हैं। उन्होंने जनसंघ का कुशल नेतृत्व किया, उसके लिए सिद्धाँत गढ़े और राजनीति में शुचिता की नई लकीर खींची। हम उन्हें 'एकात्म मानवदर्शन' के प्रणेता के तौर पर भी जानते हैं।

सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति पंडित दीनदयाल उपाध्याय बहुमुखी एवं विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। वे एक कुशल संगठक एवं मौलिक चिंतक थे। सामाजिक सरोकार एवं संवेदना उनके संस्कारों में रची-बसी थी। उनकी वृत्ति एवं प्रेरणा सत्ताभिमुखी नहीं, समाजोन्मुखी थी। एक राजनेता होते हुए भी उन्होंने जीवन के सभी पक्षों एवं प्रश्नों पर गहन चिंतन किया और उसका युगानुकूल चित्र खींचने और उत्तर देने का सार्थक प्रयास भी। इस नाते वे एक राजनेता से अधिक राष्ट्र-ऋषि थे।

आज भारतीय जनता पार्टी जिस विशिष्ट वैचारिक अधिष्ठान और मजबूत सांगठनिक आधार पर खड़े व टिके रहने का दावा करती है, उसके वास्तविक शिल्पी पंडित दीनदयाल उपाध्याय ही थे। बल्कि यह कहना चाहिए कि उन जैसे ध्येयनिष्ठ साधकों की साधना एवं समर्पण के बल पर ही भाजपा को सत्ता की सिद्धि प्राप्त हो सकी है। भारत की चिति एवं प्रकृति के मौलिक व सूक्ष्म द्रष्टा थे- पंडित दीनदयाल उपाध्याय।

विदेशी सत्ताएं तो परकीय दृष्टिकोण से संचालित थीं ही, स्वतंत्र भारत में भी ऐसे राजनीतिक नेतृत्व एवं दलों की कमी नहीं रही, जिनका दर्शन पश्चिम-प्रेरित रहा या जो भारत और इंडिया का फर्क नहीं जानते रहे और यदि जानते भी रहे तो उनका हित दोनों के अंतर को बनाए रखने में ही सधता रहा। वे भारत की समस्याओं का अध्ययन-अवलोकन पश्चिम के दृष्टिकोण से ही करते रहे। उन्होंने भारत और उसकी समस्याओं को खंड-खंड करके देखा, इस विखंडनवादी दृष्टिकोण के कारण ही वे भारत का समग्र चित्र प्रस्तुत करने में विफल रहे।

दीनदयाल जी का मानना था कि चाहे वह पूंजीवाद हो या साम्यवाद, समाजवाद हो या व्यक्तिवाद, इन सभी दर्शनों की अपनी-अपनी कुछ सीमाएं-लघुताएं हैं। क्योंकि ये वाद के संकीर्ण-संकुचित दायरे में आबद्ध रही हैं, इनकी जड़ें विदेशी हैं और इन सबने मनुष्य का चिंतन-विश्लेषण टुकड़ों में किया है। जब तक मनुष्य का समग्रता से चिंतन नहीं किया जाएगा, तब तक उसकी समस्याओं का भी समग्र समाधान नहीं किया जा सकेगा।

इसलिए उन्होंने मनुष्य का समग्र चिंतन करते हुए जिस दर्शन का प्रवर्तन किया, उसे पहले समन्वयकारी मानववाद और बाद में एकात्म मानववाद नाम दिया। चूंकि वाद की अवधारणा भारतीय मन एवं सनातन संस्कृति के अनुकूल नहीं, इसलिए आगे चलकर इसे ‘एकात्म मानव दर्शन’ कहा गया। पश्चिमी जगत व दर्शन जीवन के सभी क्रियाकलापों के केंद्र में ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’, ‘शक्तिशाली का ही अस्तित्व’, ‘प्रकृति का शोषण’ और ‘वैयक्तिक अधिकार भाव’ को सवरेपरि मानता आया है। जबकि दीनदयाल जी के मतानुसार अस्तित्व के लिए संघर्ष से अधिक सहयोग और समन्वय की आवश्यकता है। भारत की सनातन संस्कृति सर्वत्र सहयोग एवं सामंजस्य देखती आई है।

पश्चिम ने मनुष्य को केवल शरीर तक सीमित करके देखा। कतिपय चिंतक मन और बुद्धि तक स्थूल रूप से पहुंचे अवश्य, पर वे आत्मा तक नहीं पहुंच सके। दीनदयालजी के अनुसार मनुष्य केवल शरीर नहीं, अपितु शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समुच्चय है। वह समान रूप से इन सबके सुखी होने पर ही सुख की अनुभूति कर सकता है। उसके कार्यो की प्रेरणा एवं जीवन के लक्ष्य को केवल भौतिक एवं ऐंद्रिक सुखों तक समेट देना उसकी सूक्ष्म एवं विराट चेतना को बहुत कम करके आंकना होगा। संसार की सभी महानतम उपलब्धियों के पीछे कोई-न-कोई महान प्रेरणा या ध्येयनिष्ठा काम करती आई है। किसी एक क्षण की कौंध युगांतकारी बदलाव का कारण बनती है। चाहे वह भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद का संघर्ष, बलिदान एवं उत्सर्ग हो, चाहे छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह जी का साहस, शौर्य एवं पराक्रम हो- क्या इन सबके पीछे की दृष्टि एवं प्रेरणा भौतिक या स्वकेंद्रित थी?

आत्मवत सर्वभूतेषु’ का भाव ही दीनदयालजी के एकात्म मानव दर्शन का मूल मंत्र है। यही उनके चिंतन का भी आधार था। इसीलिए वे गांधी के ‘सवरेदय’ से आगे ‘अंत्योदय’ की बात कर पाए। विकास की दृष्टि से हाशिए पर खड़ा अंतिम व्यक्ति उनके आíथक चिंतन का केंद्रबिंदु था। उसके विकास में वे समाज एवं राष्ट्र का वास्तविक विकास देखते हैं। उनका दर्शन काल्पनिक नहीं, यथार्थपरक एवं व्यावहारिक है। हिंसा, कलह एवं आतंक से पीड़ित मानवता के लिए उनका दर्शन एक वैश्विक वरदान है, समाधनपरक उपचार है। विभिन्न राजनीतिक दलों, कार्यकर्ताओं, नेताओं के लिए उनका व्यक्तित्व एक ऐसा दर्पण है, जिसमें देखकर-झांककर वे अपना-अपना आंकलन कर सकते हैं।

दीनदयाल उपाध्याय ने जब विधिवत पत्रकारिता (1947 में राष्ट्रधर्म के प्रकाशन से) प्रारंभ की थी, तब तक पत्रकारिता मिशन मानी जाती थी। पत्रकारिता राष्ट्रीय जागरण का माध्यम थी। स्वतंत्रता संग्राम में अनेक राजनेताओं की भूमिका पत्रकार के नाते भी रहती थी। महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, मदन मोहन मालवीय, डॉ. भीमराव आंबेडकर, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अनेक नाम हैं, जो स्वतंत्रता सेनानी भी थे और पत्रकार भी। ये महानुभाव समूचे देश में राष्ट्रबोध का जागरण करने के पत्रकारिता का उपयोग करते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी पत्रकारिता कुछ समय तक मिशन बनी रही, उसके पीछे पंडित दीनदयाल उपाध्याय जैसे व्यक्तित्व थे। जिनके लिए पत्रकारिता अर्थोपार्जन का जरिया नहीं थी, अपितु राष्ट्र जागरण का माध्यम थी। उनके लिए राष्ट्रीय विचारों के प्रचार-प्रसार का माध्यम थी। पत्रकारिता जनता तक पहुँचने का माध्यम थी, क्योंकि वे जानते थे कि पत्रकारिता किसी विचार के पक्ष में जनमत का निर्माण कराने में बहुत सहयोगी हो सकती है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता का अध्ययन करने से पहले हमें एक तथ्य ध्यान में अवश्य रखना चाहिए कि वह राष्ट्रीय विचार की पत्रकारिता के पुरोधा अवश्य थे, लेकिन कभी भी संपादक या संवाददाता की भूमिका में नहीं रहे। वह जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूर्धन्य विचारक थे, अपने कार्यकर्ताओं के लिए उस संगठन का मंत्र है कि कार्यकर्ता को 'प्रसिद्धि परांगमुख' होना चाहिए। अर्थात् प्रसिद्धि और श्रेय से बचना चाहिए। प्रसिद्धि और श्रेय अहंकार का कारण बन सकता है और समाज जीवन में अहंकार ध्येय से भटकाता है। अपने संगठन के इस मंत्र को पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने आजन्म गाँठ में बांध लिया था। इसलिए उन्होंने पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित तो कराए, लेकिन उनके 'प्रधान संपादक' कभी नहीं बने। किंतु, वास्तविक संचालक, संपादक और आवश्यकता होने पर उनके कम्पोजिटर, मशीनमैन और सबकुछ दीनदयाल उपाध्याय ही थे। संचार की प्रभावी भूमिका को भली प्रकार समझने वाले दीनदयाल उपाध्याय ने जुलाई-1947 में लखनऊ से 'राष्ट्रधर्म' मासिक पत्रिका का प्रकाशन कर एक नई पत्रकारिता की नींव रखी और संपादक बनाया अटल बिहारी वाजपेयी और राजीव लोचन अग्निहोत्री को। किन्तु, पत्रिका प्रारंभ करके उससे हट नहीं गए। उसे स्थापित करने में भी अपना योगदान दिया।

राष्ट्रधर्म को सशक्त करने और लोगों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए उन्होंने प्राय: उसके हर अंक में विचारोत्तेजक लेख लिखे। इस पत्रिका में प्रकाशित होने वाली सामग्री का चयन भी दीनदयाल उपाध्याय स्वयं ही करते थे। इसी प्रकार मकर संक्राति के पावन अवसर पर 14 जनवरी, 1948 को उन्होंने 'पाञ्चजन्य' प्रारंभ कराया। राष्ट्रीय विचारों के प्रहरी पाञ्चजन्य में भी उन्होंने संपादक का दायित्व नहीं संभाला। इसके संपादक का दायित्व उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को सौंपा। पाञ्चजन्य में भी दीनदयालजी 'विचारवीथी' स्तम्भ लिखते थे। जबकि अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित ऑर्गेनाइजर में वह 'पॉलिटिकल डायरी' के नाम से स्तम्भ लिखते थे। इन स्तंभों में प्रकाशित सामग्री के अध्ययन से ज्ञात होता है कि दीनदयालजी की तत्कालीन घटनाओं एवं परिस्थितियों पर कितनी गहरी पकड़ थी। उनके लेखन में तत्कालीन परिस्थितियों पर बेबाक टिप्पणी के अलावा राष्ट्रजीवन की दिशा दिखाने वाला विचार भी समाविष्ट होता था। आजादी के बाद जब देश को साम्यवादी-समाजवादी ढांचे की ओर ले जाया जा रहा था, तब दीनदयाल उपाध्याय ने सरकार को पश्चिम के अंधानुकरण से बचने की सलाह देते हुए भारत को अपनी संस्कृति के अनुरूप विकास का बुनियादी ढांचा तैयार करने का संदेश दिया था। उन्होंने पाञ्चजन्य में लिखा था- 'आज देश में व्याप्त अभावों की पूर्ति के लिए हम सब व्यग्र हैं। अधिकाधिक परिश्रम आदि करने के नारे भी सभी लगाते हैं। परंतु नारों के अतिरिक्त वस्तुत: अपनी इच्छानुसार सुनहले स्वप्नों, योजनाओं तथा महत्वाकांक्षाओं के अनुकूल देश का चित्र निर्माण करने के लिए उचित परिश्रम और पुरुषार्थ करने को हममें से पिचानवे प्रतिशत लोग तैयार नहीं हैं। जिसके अभाव में यह सुंदर-सुंदर चित्र शेखचिल्ली के स्वप्नों के अतिरिक्त कुछ और नहीं।'

 

बहरहाल, पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने समाचार पत्र-पत्रिकाएं ही प्रकाशिन नहीं कराए, बल्कि उनकी प्रेरणा से कई लोग पत्रकारिता के क्षेत्र में आए और आगे चलकर इस क्षेत्र के प्रमुख हस्ताक्षर बने। इनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, देवेंद्र स्वरूप, महेशचंद्र शर्मा, यादवराव देशमुख, राजीव लोचन अग्निहोत्री, वचनेश त्रिपाठी, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, गिरीश चंद्र मिश्र आदि प्रमुख हैं। ये सब पत्रकारिता की उसी पगडंडी पर आगे बढ़े, जिसका निर्माण दीनदयाल उपाध्याय ने किया।

पत्रकारिता में नैतिकता, शुचिता और उच्च आदर्शों के दीनदयाल उपाध्याय कितने बड़े हिमायती थे, इसका जिक्र करते हुए दीनदयालजी की पत्रकारिता पर आधारित पुस्तक के संपादक डॉ. महेशचंद्र शर्मा ने लिखा है- संत फतेहसिंह के आमरण अनशन को लेकर पाञ्चजन्य में एक शीर्षक लगाया गया 'अकालतख्त के काल'। दीनदयालजी ने यह शीर्षक हटवा दिया और समझाया कि सार्वजनिक जीवन में इस प्रकार की भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए, जिससे परस्पर कटुता बढ़े तथा आपसी सहयोग और साथ काम करने की संभावना ही समाप्त हो जाए। अपनी बात को दृढ़ता से कहने का अर्थ कटुतापूर्वक कहना नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार का एक और उदाहरण है। जुलाई, 1953 के पाञ्चजन्य के अर्थ विशेषांक में संपादकीय में संपादक महेन्द्र कुलश्रेष्ठ ने अशोक मेहता की शासन के साथ सहयोग नीति की आलोचना करते हुए 'मूर्खतापूर्ण' शब्द का उपयोग किया था। दीनदयाल उपाध्याय ने इस प्रकार के शब्द उपयोग पर संपादक को समझाइश दी। उन्होंने लिखा- 'मूर्खतापूर्ण शब्द के स्थान पर यदि किसी सौम्य शब्द का प्रयोग होता तो पाञ्चजन्य की प्रतिष्ठा के अनुकूल होता।' इसी प्रकार चित्रों और व्यंग्य चित्रों के उपयोग में भी शालीनता का ध्यान रखने के वह आग्रही थे।

यह माना जा सकता है कि यदि पंडित दीनदयाल उपाध्याय को राजनीति में नहीं भेजा जाता तो निश्चय ही उनका योगदान पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में और अधिक होता। पत्रकारिता के संबंध में उनके विचार अनुकरणीय है, यह स्पष्ट ही है। यदि उन्होंने पत्रकारिता को थोड़ा और अधिक समय दिया होता, तब वर्तमान पत्रकारिता का स्वरूप संभवत: कुछ और होता। पत्रकारिता में उन्होंने जो दिशा दिखाई है, उसका पालन किया जाना चाहिए।

 

न्यूज़ सोर्स : ipm