प्रेमा गोपालन स्वयं शिक्षण प्रयोग (एसएसपी) की संस्थापक हैं। एसएसपी पुणे में स्थित एक स्वयंसेवी संस्था है जो गांवों में महिलाओं द्वारा संचालित उपक्रमों से संबंधित काम करती है। खेती, पोषण, साफ ऊर्जा, स्वास्थ्य और साफ-सफाई जैसे क्षेत्रों में काम करते हुए एसएसपी ने बीते कुछ सालों में महिलाओं को इस तरह सशक्त बनाया है कि वे अपने समुदाय की समस्याओं को सुलझा सकें।

MEDIA के साथ अपने इस इंटरव्यू में प्रेमा गोपालन एक ऐसी व्यवस्था (इकोसिस्टम) बनाने की बात कर रही हैं जो महिलाओं को ज़िम्मेदारियां उठाने में सक्षम बनाता है। साथ ही उन्होंने स्थायी आजीविका के तौर पर कृषि की भूमिका पर भी बात की है। इसके अलावा गोपालन ने किसी आपदा को तेज़ी से होने वाले विकास (फ़ास्ट-फ़ॉर्वर्ड विकास) के अवसर के रुप में इस्तेमाल किये जा सकने की संभावनाओं का भी ज़िक्र किया है।

जब 2020 के मार्च में महामारी की पहली लहर आयी तब जिस इलाक़े मराठवाड़ा में हम काम करते हैं, वहां छोटे और पिछड़े किसान बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुए थे। इनमें से ज़्यादातर किसान अपनी फसलों की कटाई नहीं कर पाए थे। यहां तक कि जिनकी फसलें कट चुकी थीं वे भी लॉकडाउन और ट्रांसपोर्ट उपलब्ध न होने के चलते इसे बाज़ार तक नहीं ले जा सके थे।

महाराष्ट्र में ओस्मानाबाद, लातूर, सोलापुर और नांदेड़ ज़िले की औरतें किसान हैं। वे फसलें उगाती हैं लेकिन इन्हें मंडी (बड़े बाज़ार) ले जाकर फसल बेचने का काम पुरुष ही करते हैं। ये मंडियां अक्सर ज़िले के बड़े कस्बों में स्थित होती हैं। इसका सीधा मतलब है कि किसानों को न केवल अपनी फसल बेचने के लिए वहां जाना पड़ता है बल्कि अपने घर की ज़रूरत का सामान आदि भी वे यहीं से ख़रीदते हैं। समुदाय के लोग औरतों को इतनी दूर की यात्रा करने की इजाजत नहीं देते हैं। इस तरह वे अपने खेतों में तो काम करती हैं लेकिन वे ये ज़रूरी फ़ैसले नहीं ले सकती हैं कि क्या बेचना है, कहां बेचना है और कितने में बेचना है। महामारी के बाद एसएसपी ने इन औरतों को सामूहिक व्यवसाय शुरू करने और उन्हें उद्यमों का रूप देने में मदद की। यह सम्भव हो सका क्योंकि हम लोग आजीविका/उद्यमों के लिए एक लोकल इकोसिस्टम बनाने पर एक दशक से भी अधिक समय से काम कर रहे थे। हम लोग पिछले छह सालों से महाराष्ट्र की महिला किसानों के साथ काम कर रहे हैं। इस दौरान हमें महसूस हुआ कि महाराष्ट्र में महिलाओं को बड़े पैमाने पर खेतिहर मजदूर के रूप में काम पर रखा जाता है। राज्य में कुल खेतिहर मज़दूरों का 79 फीसदी महिलाएं हैं। खेती-किसानी का सारा काम करने के बावजूद ज़मीन का मालिकाना हक न होने के कारण सरकार इन्हें किसान नहीं मानती है।

एक बार जब महिलाएं किसान बन गईं तो उन्होंने खेती से संबंधित फ़ैसले लेने भी शुरू कर दिए।

हमने इस समस्या को सुलझाने के लिए महिलाओं के परिवार वालों से बातचीत की और महिलाओं के लिए पारिवारिक ज़मीन के एक छोटे से टुकड़े पर नक़दी फसल के बदले खाद्य फसलों को उगाने की अनुमति मांगी। अगर परिजन इसके लिए मान जाते थे तो हम महिलाओं को सलाह, तकनीकी प्रशिक्षण, बीज के लिए सरकारी सब्सिडी हासिल करना, खाद और पानी को बचाने के तरीक़े वगैरह सुझाते थे और उन्हें बाज़ार से जोड़ने का काम करते थे।

एक बार किसान बनने के बाद महिलाएं किसानी से जुड़े फ़ैसले भी लेने लग जाती हैं। वे तय करती हैं कि कौन सी फसल उगानी है, कितनी उगानी है, किसे बेचना है और किसे घर पर ही रखना है। वे खेती के बारे में पहले से ही सब कुछ जानती थीं। बस वे यह नहीं जानती थीं कि इन्हे बेचना कैसे है। सामाजिक प्रतिबंधों के चलते वे बेहतरीन किसान होने के बावजूद अपनी फसल को बाज़ार तक ले जाने में सक्षम नहीं थीं। और समझने वाली बात है कि एग्रीगेशन, ग्रेडिंग और प्रोसेसिंग के बग़ैर अनाज को बड़े बाज़ारों में बेचना सम्भव नहीं था।

महामारी के दौरान लॉकडाउन और आवागमन में लगी रोक के चलते बाज़ार के तौर-तरीक़े बदल गए। अब वे हाइपर-लोकल हो गए और वहां गांव के ही या ज़्यादा से ज़्यादा पड़ोसी गांव के लोग ख़रीद-बिक्री करने लगे। यह एक बड़ा बदलाव था। हमने यह देखना शुरू किया कि महिलाएं इस बदली हुई परिस्थिति का फ़ायदा कैसे उठा सकती हैं। हमने उन्हें इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि वे अपने एक-एकड़ ज़मीन पर की जाने वाली खेती से आगे बढ़कर पूरे गांव के लिए सब्ज़ी और अनाज उगाने के बारे में सोचना शुरू करें। एक एकड़ ज़मीन पर होने वाली फसल महामारी के दौरान उनके परिवार के लिए पर्याप्त थी। इनमें से कई महिलाएं पहले से ही बीजों के उत्पादन और बिक्री का काम कर रही थीं। अगर किसी किसान के पास बीज हों तो वह कई महीनों तक परिवार का भरण-पोषण कर सकती है और कुछ पैसे भी कमा सकती है। बीज उत्पादन की तरह ही इन्होंने पशुपालन पर भी ध्यान देना शुरू किया। इस काम के लिए उनकी वरीयता में छोटे जानवर जैसे बकरी और मुर्गियां होती हैं क्योंकि इनसे जल्दी कमाई होने लगती है।

इस स्थिति का और अधिक फ़ायदा उठाने के लिए हमने इन किसानों को सामूहिक-स्तर के व्यवसाय करने के लिए एकत्रित किया। महिलाओं ने 200 से अधिक औरतों वाले समूह बनाकर क्लस्टर इंटरप्राइज बनाए। ये अपनी उपज को इकट्ठा कर आस-पास के बाज़ारों में ऊंचे और उचित मूल्यों पर बेचते थे। चूंकि ये बाज़ार या तो साप्ताहिक थे या फिर उनके गांव से अधिकतम 20 किमी की दूरी पर ही स्थित थे इसलिए महिलाओं के परिवारों को इनके बाहर जाने पर आपत्ति नहीं थी।

बिक्री का अनुभव मिल जाने के बाद कुछ महिलाएं और कुशल उद्यमी बन गईं और अपनी उपज बेचने के लिए दूर के बाज़ारों में भी जाने लगी। इसके बाद उन्होंने दोबारा पीछे मुड़कर नहीं देखा।

महामारी के पहले ज़्यादातर महिलाएं गांवों में रहकर ही ग़ैर-कृषि गतिविधियों जैसे किराने की दुकान, ब्यूटी पार्लर और स्टेशनरी की दुकान वग़ैरह चलातीं थीं। बीते दो दशकों से सरकार और वित्तीय संस्थानों द्वारा स्वयं-सहायता समूहों के लिए दिए जाने वाले सहयोग से यह धारणा प्रबल हो गई थी कि केवल खेती से इतर या ग़ैर-कृषि गतिविधियों से ही विकास हासिल किया जा सकता है। शुरूआत में एसएसपी ने भी इसी सोच पर चलते हुए महिलाओं को बड़े पैमाने पर ग़ैर-कृषि गतिविधियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया था। लेकिन कोविड-19 ने इस सोच और काम को बेमानी और ग़ैर-ज़रूरी बना दिया।

भोजन, राशन और स्वास्थ्य सुविधाएं लॉकडाउन के दौरान अनिवार्य सेवाओं में शामिल थे जबकि अन्य व्यवसायों को इससे बाहर रखा गया था। इसलिए आपदा में मिले इस अवसर का फ़ायदा उठाते हुए हमने डेयरी, दलहन और जैविक खाद का उत्पादन करने और उसे उपभोक्ता तक पहुंचाने सरीखे बड़े पैमाने के व्यवसायों की शुरुआत की। अकेले 2020 में ही हम लोगों ने खेती-किसानी करने वाली 10,000 से अधिक महिलाओं को बाज़ार का मुख्य हिस्सा बनने के लिए राज़ी कर लिया। दूध संग्रह केंद्रों की स्थापना हुई और इसके साथ ही महिलाओं को अपने फ़ोन पर इसकी क़ीमतों और भुगतान से जुड़ी जानकारियां मिलने लगीं। ऐसा होने से उनकी आय पर उनका नियंत्रण बढ़ने लगा।

और, कृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री की दुनिया में प्रवेश से इन गांवों की एग्रीकल्चरल वैल्यू चेन (कृषि उत्पादों को उपभोक्ता तक पहुंचाने की प्रक्रिया) में भी बदलाव आया।

महामारी की वजह से क्या बदल गया है? और महिलाएं इससे अब कैसे निपट रही हैं?

महामारी के पहले एसएसपी के पास भारत के विभिन्न राज्यों में भूकम्प, बाढ़ और सुनामी जैसी भीषण आपदाओं से निपटने का दो दशकों से ज़्यादा का अनुभव था। हमारे अनुभवों से हमने यह सीखा था कि कोई भी संकट विकास को तेज करने का एक अवसर होता है। महामारी से पुरुष और महिलाएं समान रूप से प्रभावित हुए थे इसलिए दोनों ही चीजों को अलग तरीक़े से करने के लिए तैयार थे। नतीजतन इस आपदा से महिलाओं को अगुआई करने का मौक़ा मिला क्योंकि उनके अंदर अपने समुदाय के प्रति सेवा और कार्य का भाव अधिक प्रबल होता है। जहां सामान्य परिस्थितियों में उन्हें पीछे रहने को बाध्य किया जाता है वहीं संकट की घड़ी में उनके काम को स्कूल के शिक्षकों या ग्राम पंचायत के सदस्यों जैसे समुदाय के सभी प्रभावशाली सदस्यों द्वारा सराहा जाता है।

 

महिलाएं तय करती हैं कि कौन सी फसल उगानी है, कितनी उगानी है, किसे बेचना है और किसे घर पर ही रखना है। | चित्र साभार: चंद्र शेखर कर्की/सीआईएफ़ओआर/फ़्लिकर

कोविड-19 की पहली और दूसरी लहर में कोई अंतर नहीं था। इस स्थिति ने हमें महिलाओं के नेतृत्व वाले बल सखी-टास्क फ़ोर्स बनाने के लिए प्रेरित किया। इन बलों ने ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर कोविड-19 से निपटने की तैयारियां और उसके असर से हुए आर्थिक नुक़सान से उबरने के लिए काम किया। हम 500 से अधिक गांवों में 5,000 सदस्यों को टास्क फ़ोर्स में शामिल कर सके। यह पहली बार था जब लोग महिलाओं की अगुआई को स्वीकार कर रहे थे।

महामारी ने डिजिटल तकनीक की अहमियत की ओर भी ध्यान दिलाया है। जहां कोविड-19 के दौरान महिलाएं राहत कार्य, सुरक्षा, जागरूकता और टीकाकरण जैसे कामों में जुड़ी थीं। वहीं लॉकडाउन वाले दिनों में उन्हें डिजिटल रूप से साक्षर होने का महत्व समझ में आया। महामारी के पहले हमने उन्हें डिजिटल उपकारणों के इस्तेमाल के लिए बहुत अधिक प्रोत्साहित किया था लेकिन तब वे इसके लिए तैयार नहीं थीं।

दस साल पहले हमने माइक्रोफ़ाइनांस, कौशल विकास और रूरल डिस्ट्रीब्यूशन और मार्केटिंग के लिए सामाजिक उपक्रम तैयार किया था। इस प्रक्रिया में हमने इन महिलाओं को उद्यमी और अगुआ बनने में सक्षम करने पर ध्यान दिया था। आर्थिक सशक्तिकरण और लीडरशिप तैयार करने में किया गया हमारा निवेश सार्थक रहा।

जब महामारी आई तो महिलाओं ने ज़िम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली। हम भले ही आगे की योजनाओं को लेकर आशंकित थे लेकिन महिलाएं नहीं। इन महिलाओं को अपने समुदायों की ज़रूरतें समझने, राहत कार्यों को शुरू करने, मनरेगा योजना के तहत अपने समुदाय के लोगों के लिए राशन और नौकरी जैसे सरकारी लाभ मुहैया करवाने के तरीक़ों की जानकारी थी और इसीलिए ये अपने लोगों की मदद कर पाईं। हमने सिर्फ़ एक इकोसिस्टम बनाया था लेकिन महिलाएं इसका इस्तेमाल जानती थीं और उन्होंने इसका ज़िम्मा ले लिया।

महिलाओं को ज़िम्मेदारी उठाने में सक्षम बनाने वाली व्यवस्था को बनाने में किन चीजों की ज़रूरत होती है?

जब एसएसपी ने आजीविका का काम शुरू किया तो अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं की तरह ही हम भी महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई, ब्यूटी सर्विस वग़ैरह का प्रशिक्षण देने पर ध्यान दे रहे थे। लेकिन जल्द ही हमें एहसास हो गया कि सिर्फ़ प्रशिक्षण मिलने से इन्हें कोई फ़ायदा नहीं होता है–इससे उन्हें अपना काम शुरू करने में मदद नहीं मिलती है। इसलिए एक दशक पहले हम लोगों ने अपना रास्ता बदला और महिलाओं के अंदर छिपे उद्यमियों की पहचान के लिए उनके गांवों में व्यावसायिक शिक्षण (रूरल बिज़नेस एजुकेशन) शुरू किया। व्यवसायी मानसिकता एक महत्वपूर्ण चीज है और महिलाओं को व्यवसायियों की तरह सोचने के लिए प्रेरित कर पाना, हमारे मामले में काम कर गया।

लगभग पांच साल पहले जब महिला किसानों की एक बड़ी संख्या ने कृषि के इस मॉडल को अपनाया तब हमने इन महिलाओं को एक बार फिर से कृषि को एक उपक्रम के तौर पर देखने के लिए प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे हमने ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि गतिविधियों के लिए प्रशिक्षण और माइक्रोफाइनेंस को कम कर दिया। अधिकांश स्वयंसेवी संस्थाएं और नबार्ड जैसी सरकारी एजेंसियां भी ग्रामीण और सुदूर इलाक़ों में ग़ैर-कृषि उद्यमों तक सीमित हो गई थीं। ये संस्थाएं इस विचार से प्रभावित थीं कि पैसा सिर्फ़ शहरों में है और कुशल लोग भी शहरों में ही मिलते हैं। इसलिए उन्होंने शहरी कौशलों और शहरी उपक्रमों के तरीकों की नक़ल की और उसे ग्रामीण भारत में लागू कर दिया। नतीजतन, खेती से जुड़ी अर्थव्यवस्था के महत्व का सही मूल्यांकन नहीं हुआ और इस क्षेत्र में निवेश में कमी आने लगी। हम सब जानते हैं कि खेती-किसानी की हालत बहुत नाज़ुक है और इसे सहारे की ज़रूरत है। लेकिन अपने काम के अनुभवों से हमने पाया कि यदि महिलाओं को आर्थिक सहयोगियों के रूप में गंभीरता से लिया जाए और कृषि और उससे जुड़े व्यवसायों को आजीविका का मुख्य साधन बनाया जाए तो हमारे पास अवसरों की कमी नहीं है।

एसएसपी इससे कोई अलग नहीं था। जब 2015 में मराठवाड़ा में सूखा पड़ा तो महिलाओं ने हमसे कहा कि उनके पास खाने के लिए नहीं है। उस समय हमने सही मायनों में उनके साथ खेती से जुड़े काम करना शुरू किया। हम सबसे पहले परिवारों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन सिर्फ़ रसोई और घर के बगीचों पर ध्यान देने की बजाय हमने तय किया कि महिलाओं को खेतों में जाकर फसल उगाना चाहिए। उन्हें अपनी उगाई फसल ही खानी चाहिए और इसे जैविक, पानी के कम खर्च और कम लागत वाले तरीक़े से ही करना चाहिए। हम लगातार अपने काम के प्रभाव का आकलन कर रहे थे और हमने पाया कि पहले जहां केवल 10 प्रतिशत परिवार ही अपने खेतों में उगायी सब्ज़ियों और फसलों का इस्तेमाल करते थे वहीं अब यह आंकड़ा 70 प्रतिशत तक पहुंच चुका है। परिवार के लोगों को यह एहसास होने लगा कि वे पहले से अधिक स्वस्थ हो गए हैं। इसलिए साल दर साल लोगों के लिए खेती के इस मॉडल को अपनाना आसान हो गया। नतीजतन, 2016 से 2020 तक हमारे पास एक लाख से अधिक संख्या में ऐसे छोटे और पिछड़े किसान परिवार थे जिनमें महिलाएं खेती करती थीं।

हमें निजी क्षेत्र में उपलब्ध क्षमताओं का भी उपयोग करना चाहिए जिसमें महिला किसानों के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचा, प्रौद्योगिकी और अन्यक्षमताएं हैं।

हमारा शुरूआती उद्देश्य खाद्य सुरक्षा था। लेकिन जल्द ही हम इस बात को समझ गए थे कि एक बार अपने परिवारों के लिए खेती शुरू करने के बाद महिलाएं बड़े पैमाने पर इस काम को करने के साथ ही बाज़ारों के लिए भी उसी स्थाई तरीक़े से खेती कर सकती हैं। यही वह समय था जब हमने महिलाओं को सही मायनों में किसानों के रुप में देखना शुरू किया और उन्हें खेती और फ़ूड वैल्यू चेन में आगे बढ़ाया। यहां वे खेतिहर से आगे बढ़कर उत्पादकों में शामिल हो जाती हैं और खरीद, प्रोसेसिंग और मार्केटिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

अब अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं ने भी इस दृष्टिकोण को अपनाना शुरू कर दिया है। उन्हें लगने लगा है कि महिलाओं को संगठित करने के काम में उन्होंने जो प्रयास किया है, उसे अगले स्तर पर ले जाने का समय आ गया है। यहां से महिला किसान उत्पादक संगठन खेती और उससे जुड़े व्यवसाय जैसे मुर्गी पालन और डेयरी जैसे काम करना शुरू कर देंगे।

कोविड-19 ने कृषि से जुड़े उपक्रमों और अनिवार्य न होने वाले व्यवसायों के बीच की समझ और विभाजन को और साफ़ किया है। ऐसे उपक्रम जो खेती से जुड़े हुए नहीं थे, उन्हें भारी नुक़सान हुआ और वे बंद हो गए। सिर्फ़ कृषि-संबंधित उद्यम ही खुद को बचा पाए क्योंकि कृषि सिर्फ़ खाद्य सुरक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह एक स्थायी और टिकाऊ आजीविका है।

अब हम उस स्तर पर पहुंच चुके हैं जहां हमने ऐसे चार किसान उत्पादक कंपनियां बनाई हैं जिनकी कर्ताधर्ता महिलाएं हैं। महिलाएं दाल और अनाज सरीखे स्थानीय उत्पादों का महत्व बढ़ाने के लिए प्रोसेसिंग इकाइयों की स्थापना भी कर रही हैं। उन्होंने वर्मीकम्पोस्ट जैसे उत्पादन भी शुरू कर दिये हैं। अब हम इन कामों की जटिलता को बढ़ा रहे हैं। इसमें अब हम पानी का मुद्दा भी जोड़ रहे हैं जिसके तहत उन्हें यह सुनिश्चित करना होता है कि उनके समुदायों में जल के स्त्रोत और उनका प्रबंधन स्थायी है। अब हमारा ध्यान इस पर ही है।

हमें निजी क्षेत्र में उपलब्ध क्षमताओं का भी उपयोग करना चाहिए। इसमें ऐसा बुनियादी ढांचा, प्रौद्योगिकी और अन्य क्षमताएं हैं जो महिला किसानों के लिए महत्वपूर्ण हैं। एसएसपी में हम लोग 2006 से ही टेक कम्पनियों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं ताकि हम बायोगैस तकनीकों, सौर प्रकाश की मार्केटिंग जैसे मामलों में महिलाओं की मदद कर सकें। हालांकि हमने पहले से स्थापित और नई शुरू होने वाली (स्टार्ट-अप्स), दोनों ही तरह की कंपनियों के साथ साझेदारी की है। लेकिन हम स्टार्ट-अप को ज़्यादा प्राथमिकता देते हैं क्योंकि इनके साथ मिलकर हम लोग क़ीमत, फ़ंडिंग और उत्पाद की खूबियों को ध्यान में रखकर ग्रामीण समुदायों के लिए नए उत्पाद तैयार कर सकते हैं।

महिलाओं और आजीविका के लिए काम करने वाले अन्य संगठनों को एसएसपी में से क्या सीखना चाहिए?

एसएसपी आजीविका के लिए इकोसिस्टम तैयार करने का तरीक़ा अपनाता है। इसका मतलब यह है कि हम महिलाओं को प्रशिक्षण देने के जाल में नहीं फंसते हैं। सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाओं दोनों में ही प्रशिक्षण पर बहुत अधिक ध्यान देने का चलन है। संगठनों को यह समझना चाहिए कि केवल प्रशिक्षण से कुछ नहीं होता है। आपको फाइनेंशियल और मार्केट लिंक भी मुहैया करवाने की ज़रूरत है। इसके बिना किसी तरह की उद्यम क्षमता नहीं पैदा की जा सकती है।

इसके बाद अगला महत्वपूर्ण कदम महिलाओं को उनकी ज़मीन का मालिकाना हक़ दिलवाना है ताकि लोग उन्हें उत्पादक और किसान के रूप में देख सकें। ज़मीन पर मालिकाना हक़ मिल जाने से महिलाओं को उन मुख्य सरकारी योजनाओं का लाभ मिलने लगता है जिनके हक़दार केवल ज़मीन के मालिक होते हैं। महिलाओं को किसानों और उत्पादकों के रूप में स्वीकार किए जाने की ज़रूरत है। फसल के चुनाव आदि का फ़ैसला उन्हें ही लेने दिया जाना चाहिए।

आजीविका से उद्यम तक ग्रामीण महिलाओं ने एक लम्बा सफ़र तय किया है। उन्हें मुख्य पड़ावों पर समुदायिक सहायता प्रणाली (कम्युनिटी सपोर्ट सिस्टम) से लाभ मिलेगा जिसमें उनका परिवार, साथ काम करने वाले उद्यमी और संस्थाएं शामिल हैं। दानकर्ताओं और सुविधा प्रदाताओं को भी इसका श्रेय जाता है क्योंकि वे भी इस महत्वपूर्ण और समावेशी इकोसिस्टम के सह-निर्माता हैं। ये इसलिए महत्वपूर्ण है ताकि महिलाओं को केवल आय अर्जित करने वाले, छोटे स्तर का कर्ज़ लेने वाले या स्वरोजगार करने वालों के रूप में न देखा जाए बल्कि अर्थव्यवस्था के भावी सहायकों और जिम्मेदारों के रूप में देखा जाए। वह वक्त आ गया है जब हमें अपनी सोच बदल लेनी चाहिए।

न्यूज़ सोर्स : देबोजीत दत्ता, स्मरिणीता शेट्टी