राजस्थान। एक समय तक दिहाड़ी मजदूरी करने वाले सत्यप्रकाश भार्गव को आज अपनी पत्नी पर नाज़ है। वो कहते हैं, "जब तक मेरी पत्नी ने अपना व्यवसाय नहीं शुरू किया था, तब तक हमारे पास अपना कोई घर तक नहीं था, बड़ी मुश्किल से घर चल पाता था। दोनों बेटों की पढ़ाई किसी सपने से कम नहीं था।" “चहूँओर पत्नी के काम की तारीफ सुनने को मिलती है तो बहुत अच्छा लगता है, उसकी मेहनत और काम से मेरी भी किस्मत बदल गई है। अब मैं भी उसके काम में हाथ बँटाता हूँ।" राजस्थान के भरतपुर ज़िले के खानवा गाँव के सत्यप्रकाश  बताते हैं - ब्रजेश ने केवल नौवीं कक्षा तक पढ़ाई की है और अपना छोटा व्यवसाय शुरू किया है, जूट से 250 अलग तरह के घरेलू सामान बनाती हैं। जैसे बैग, मैट, टेबलमैट, हैंडपर्स (पुरुषों और महिलाओं के लिए), और प्लांटर्स। उन्हें दिल्ली, जयपुर और आगरा जैसे शहरों से थोक ऑर्डर मिलते हैं। हाल ही में महिलाओं के कपड़ों की सिलाई भी शुरू की है। Also Read: स्वयं सहायता समूह: महिलाओं की एकजुटता से मिली आत्मनिर्भरता, लेकिन अभी और जागरूक होना होगा ब्रजेश गाँव कनेक्शन को बताती हैं, "मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी खुद कमा भी पाऊंगी। एक समय था जब सुबह का खाना बनाने के बाद नहीं मालूम रहता था कि हमारे पास रात में खाना होगा या नहीं। लेकिन, अब और नहीं। " उन्होंने कहा। स्वयं सहायता कई साल की कड़ी मेहनत के बाद, ब्रजेश और उनके परिवार के लिए चीजें तब शुरू हुईं जब 2016 में राजस्थान ग्रामीण आजीविका विकास परिषद (आरजीएवीपी) के सदस्य स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) बनाने के लिए खानवा गाँव आए। गैर-लाभकारी संस्था ने महिलाओं को आजीविका के बारे में बताया और समझाया कि कैसे वे घर से काम करके कुछ पैसे कमा सकती हैं। उन्होंने ग्रामीण महिलाओं को बैग बनाने और सिलाई का प्रशिक्षण भी दिया। एनजीओ राजस्थान में ग्रामीण गरीबों के आर्थिक अवसरों और सशक्तिकरण को बढ़ाने के लिए कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के क्षेत्रों में छोटे और सूक्ष्म उद्यमों को बढ़ावा देता है। राजस्थान के धौलपुर में लगती है अनोखी पाठशाला, जिसमें शामिल होते हैं सिर्फ बकरी पालक ब्रजेश इन महिलाओं को ट्रेनिंग देती हैं और उन्हें पर्याप्त काम देती हैं, जिससे उन्हें हर रोज़ करीब 600 रुपये कमाने में मदद मिलती है। राजस्थान ग्रामीण आजीविका विकास परिषद के अलावा, उद्योग विभाग ने भी राज्य में कई प्रदर्शनियों में हाथ से बने उत्पादों को ले जाकर मदद की। महिलाओं ने वहाँ अपने उत्पाद बेचे और तब से पीछे मुड़कर नहीं देखा। “पिछले आठ साल में ऑर्डर के साथ ही हमारी कमाई भी बढ़ी है। प्रदर्शनियों और मेले में एक साल में लगभग 25-30 लाख कमाई हो जाती है। कच्चे माल की लागत और वेतन काटने के बाद मेरे हाथ में आठ से 12 लाख हैं।” ब्रजेश ने कहा। उनके मुताबिक़, नवंबर से मार्च में उनके उत्पादों की अच्छी खासी माँग रहती है।उनके पति सत्यप्रकाश अलग-अलग जगहों से कच्चा माल लाते हैं। जूट पश्चिम बंगाल में कोलकाता से आता है जबकि कपड़ा गुजरात में सूरत से आता है। उन्होंने कहा कि हर कदम पर ध्यान रखना होता है, कच्चे माल से लेकर आख़िर में बने उत्पादों पर ध्यान रखना होता है। “हम आपस में काम बाँट लेते हैं। और अंत में हम उत्पादों को सावधानी से पैक करने से पहले फिनिशिंग की बारीकी से जाँच करते हैं।" दो बच्चों की माँ ब्रजेश बताती हैं। दिखने लगा है असर ब्रजेश की साथी गाँव की सुशीला शुरू से ही उनके साथ काम कर रही हैं । “मैं घर से बँधी हुई थी और सिर्फ घर का काम करती थी, और कुछ नहीं। लेकिन ब्रजेश के साथ काम करके अब मैं परिवार की आय में योगदान देती हूँ, जो एक बड़ी मदद है।   खानवा की एक अन्य निवासी कुसुमा ने  बताया, "पैसे के अलावा, ब्रजेश के साथ काम करने से मुझे आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और मेरे रिश्तेदार मुझे अधिक सम्मान की दृष्टि से देखते हैं।"  कभी लोग ‘कचरा बीनने वाली’ कहकर मजाक उड़ाते थे, आज 40 महिलाओं को दे रहीं है रोजगार 

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