हमारे सिर पर ना छत है ना रहने का कोई ठिकाना। कोई चोर-उचक्का कहता है, तो कोई धंधे वाली। हम नहीं चाहते हमारे यहां बेटी पैदा हो। बेटी होगी तो दिन-रात उसकी रखवाली में ही गुजर जाएगा। पिछले कुछ सालों से एक नई मुसीबत आई है। रात-बेरात पुलिस आती है और रोहिंग्या समझकर हमें उठा ले जाती है। ये दर्द है बंजारा कम्युनिटी का। देशभर में 13 करोड़ आबादी होने के बाद भी इनका अपना घर नहीं है। 

‘’सपेरा परिवार में मेरा जन्म हुआ। दादी ने कहा बेटी हुई है। जिंदा रहेगी तो लोग इसे उठा ले जाएंगे। उन्होंने आसपास की महिलाओं को बुलाया। गड्ढा खोदा और उसमें मुझे डालकर ऊपर से मिट्टी भर दिया। तब मां बेहोश थी। करीब 7 घंटे बाद मां को पता चला। वह दौड़ते हुए आई और मिट्टी हटाई। मुझे बाहर निकाला। मेरी सांस चल रही थी।

मैं बच तो गई, लेकिन लोगों ने मेरा जीना मुश्किल कर दिया। लोग मुझे डायन कहने लगे। जहां भी मुझे देखते मारने दौड़ पड़ते। डर की वजह से पापा ने डेरा बदल लिया। वे जहां भी जाते मुझे साथ लेकर जाते। वे गांवों में घुमकर बीन बजाते और मैं सांपों के साथ नाचती। इससे रोजी-रोटी का काम हो जाता।

फिर लोग नाच का भी विरोध करने लगे। मुझे नाचने से रोकने लगे, लेकिन पापा ने मुझे नहीं रोका। आगे चलकर यही नाच मेरी पहचान बनी।''

ये कहानी है गुलाबो सपेरा की। गुलाबो घूमंतू सपेरा कम्युनिटी से हैं। वे घूमर और कालबेलिया नृत्य करती हैं। दुनियाभर में उनका नाम है। उन्हें पद्मश्री पुरस्कार भी मिल चुका है।गुलाबो ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ-II के सामने परफॉर्म कर चुकी हैं। 2016 में उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया था।

तमाम मुश्किलों को पार करते हुए गुलाबो कामयाब हो गईं, लेकिन उनकी कम्युनिटी के लोग और महिलाओं का हाल आज भी जस का तस है। इन्हीं लोगों से मिलने मैं दिल्ली के बुराड़ी पहुंची।

दोपहर का वक्त। एक गंदे तालाब के पास 7-8 टेंट लगे हैं। पास ही 4-5 खच्चर चर रहे हैं। मटमैले कपड़े पहने बच्चे खेल रहे हैं। कुछ महिलाएं चटाई बना रही हैं, कुछ चूल्हे पर रोटियां सेंक रही हैं।

यहां मेरी मुलाकात सपेरा राजाराम से होती है। वे अपनी पत्नी और दो बहुओं के साथ यहां रहते हैं। राजाराम पहले सपेरा का काम करते थे। अब इधर-उधर मांगकर गुजारा करते हैं। मैं उनसे बंजारों की लाइफ के बारे में पूछती हूं, तो वे एक किस्सा सुनाते हैं-

'सात महीने पहले की बात है। शाम का वक्त था। अंधेरा हो गया था। महिलाएं खाना बनाने की तैयार कर रही थीं। तभी कुछ लोग लाठी-डंडे लेकर तंबू के अंदर घुस आए। हमारी चारपाई तोड़ दी। सामान फेंक दिए। चूल्हा तोड़ दिए और गंदी गालियां देने लगे।

महिलाओं के साथ बदतमीजी करने लगे। मैं रोने लगा, उनके हाथ-पैर पड़ने लगा कि हुजूर छोड़ दीजिए। हमने कुछ गलत नहीं किया है। इस पर वे कहने लगे कि तुम लोग रोहिंग्या मुसलमान हो। चोरी करते हो। भागो यहां से।

फिर उन लोगों ने पुलिस बुला ली। पुलिस को हमने आधार कार्ड दिखाया कि देखो साहब हम रोहिंग्या नहीं हैं, लेकिन पुलिस नहीं मानी। उसी रात हमें अपना डेरा और सामान छोड़कर भागना पड़ा। तब जाकर जान बची।'

राजाराम की बहू कोकी और उनकी दोनों बेटियां।

राजाराम की बहू कोकी कहती हैं, 'बेटी 16 साल की हो गई। बस जल्दी से इसकी शादी करना चाहती हूं। दिन-रात इसी का डर लगा रहता है कि कोई इनके साथ गलत ना करे। कहीं मांगने जाती हूं तो इन्हें सास-ससुर के पास छोड़कर जाती हूं।'

​​​शादी में क्या रिवाज होते हैं, क्या दहेज देने-लेने की भी परंपरा है?

जवाब में कहती हैं- हमारे यहां 5 आदमी आते हैं बारात लेकर। दाल-भात और रसगुल्ला की दावत देनी होती है। आर्टिफिशियल ज्वेलरी और एक जोड़ी नए कपड़े पहनाकर बेटी को विदा कर दूंगी।

खुद के घर में रहने का मन नहीं करता?

इस सवाल पर कोकी मायूस हो जाती हैं। कहती हैं, 'पैदा होने से लेकर अब तक की उम्र ऐसे ही यहां से वहां मांगते गुजर गई। दुनिया कहां से कहां पहुंच गई, लेकिन हमारा घर नहीं बना। कोई ठिकाना नहीं मिला। बस जी रहे हैं, शायद इतना ही बहुत है।'

यहां से थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर मेरी मुलाकात गुलाबी सलवार कुर्ता पहनी गेंदली से होती है। वे अपने दो छोटे बेटियों के साथ आटा गूंथ रही हैं।

गेंदली बताती हैं, ‘हमारे यहां खुले आसमान के नीचे चारपाई की ओट में बच्चे पैदा होते हैं। मेरा भी जन्म चारपाई की ओट में ही हुआ। तंबू में खेलते-खाते बचपन बीता। कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा। 12-13 साल की हुई तो मां-बाप ने UP के बागपत जिले के एक लड़के से शादी करा दी।

जैसे ही ससुराल पहुंची सास-ससुर ने एक बुग्गी (बग्गी) और झोली देकर कह दिया- ‘जाओ कमाओ खाओ’। तब से जिंदगी ऐसे ही कभी यहां कभी वहां गुजर रही है।

बग्गी और झोली क्यों?

जवाब मिलता है- हमारे यहां ये रिवाज है। जब बेटे की शादी होती है तो उसे बग्गी और झोली देते हैं।

गेंदली आटा गूंथ रही हैं। पास में उनके बच्चे भी बैठे हैं।

कितने साल हो गए शादी के?

35-40 साल की दिख रहीं गेंदली कहती हैं, ‘मुझे तो अपनी उम्र पता नहीं है, शादी का क्या बताऊं। चार बच्चे हैं, दो बेटा और दो बेटी। बस इतना ही जानती हूं।’

पति कहां हैं?

जवाब मिलता है- अभी वे जंगल में गए हैं फूल-पत्तियां चुनने। वे सुरमा बनाने का काम करते हैं। पहले उनका बनाया सुरमा खूब बिकता था। अच्छे से घर-परिवार का गुजारा हो जाता था, लेकिन अब नहीं बिकता। लोग कहते हैं कि इससे आंख खराब हो जाती है।’

फिर कैसे रोजी-रोटी का इंतजाम होता है?

गेंदली बताती हैं, 'पहले गांव-गांव जाकर खेल दिखाते थे। उससे जो अनाज-आटा और पैसे मिलते, उससे परिवार का गुजारा होता था, लेकिन अब लोग बस्तियों में जल्दी से घुसने नहीं देते हैं। भगा देते हैं। गालियां देते हैं। कहते हैं- धंधा कर लो मर्द कुछ रुपए दे देंगे। लोग इतनी गंदी नजर से देखते हैं कि क्या बताएं।

गलती से किसी के घर का दरवाजा पीट दें या घंटी बजा दें, तो लोग पकड़कर पीटने लगते हैं। रोहिंग्या बता के पुलिस भी बुला लेते हैं। इसलिए हम लोग अपने घर के मर्दों को मांगने के लिए नहीं भेजते हैं।’

रात में डर नहीं लगता?

गंदेली बताती हैं, ‘हमारे पास है क्या जो डर लगेगा। बस इज्जत के लिए डरते हैं कि कहीं कोई महिलाओं और लड़कियों के साथ गलत हरकत ना कर बैठे। इसीलिए हम जहां भी रहते हैं, दो-तीन कुत्ते अपने पास रखते हैं।'

कभी किसी ने गलत हरकत की?

जवाब मिलता है- 'शहरों में सब कुछ होने के बाद भी लोग महिलाओं के साथ गलत काम कर देते हैं। जबरदस्ती कर देते हैं। हमारे पास ना तो घर है ना दरवाजे। इसी से आप समझ सकती हैं कि हमें क्या कुछ सहना पड़ता है और हमारे साथ क्या कुछ होता होगा।'

गेंदली के बाल बिखरे हैं। आसपास कपड़ों के ढेर रखे हैं। मैं पूछती हूं- कभी सजने-संवरने का मन नहीं करता?

जवाब मिलता है- 'मैडम कौन लड़की सजना-संवरना नहीं चाहती... मैं भी चाहती हूं बिंदी, सिंदूर लगाकर रंगीन साड़ी पहनूं, लेकिन लोगों की गलत नजरों से नहीं बच पाती। जरा सा चटक रंग का कपड़ा पहन लो तो लोग धंधे वाली बुलाने लगते हैं।'

यहां से आगे बढ़ती हूं। अमरीश बंजारन मिलती हैं। नारंगी रंग का सूट, रंग-बिरंगी चूड़ियां पहनी और शॉल में बेटी को लपेटे बैठी हैं। अभी 5 दिन पहले ही इन्होंने बेटी को जन्म दिया है।

अमरीश बताती हैं, ‘पहले से तीन बेटियां थीं और एक बेटा। दूसरे बेटे की आस थी, लेकिन एक और बिटिया हो गई। इसने हमारी मुसीबत बढ़ा दी।'

बच्चे कहां हैं? पूछने पर वहां खेल रहे बच्चों में से गिनती कराती हैं।

अमरीश गोद में बेटी को लेकर बैठी हैं। पास में उनका बेटा भी है।

बच्ची का नाम क्या रखा? जवाब मिलता है- हमारे यहां बच्ची का नाम मामा रखता है। भाई आ नहीं पा रहा है। जब वो आएगा तब इसका नाम रखेंगे।

पति कहां हैं, रोजी-रोटी का इंतजाम कैसे होता है?

पति जंगल में खच्चर चराने गए हैं। दो बेटियां मांगने गई हैं। अभी मैं कहीं नहीं जा पा रही हूं, तो वे ही खाने का इंतजाम करती हैं।'

जब मांगकर बेटियां लाती हैं तो फिर दूसरा बेटा क्यों चाहती थीं आप?

सपाट सा जवाब मिलता है- 'अगर बेटा नहीं होगा तो बहू कहां से आएगी। बुढ़ापे में कौन संभालेगा। पैसे नहीं हैं, इसलिए जब मैं खुद दो-दो साल अपने मायके वालों से नहीं मिल पाती हूं, तो क्या बेटियां शादी बाद मेरे पास आ पाएंगी!'

अंग्रेजों ने बंजारों को क्रिमिनल ट्राइब्स घोषित किया था

डॉ. अरुण ​इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट में रिसर्च एसोसिएट हैं। वे घुमंतू जनजातियों पर शोध कर चुके हैं। बताते हैं 'घुमंतू जनजातियों की हालत बदतर हो चुकी है। जब से एनिमल एक्ट लागू हुआ है, तब से सपेरा और कलंदर जैसी जनजातियों की कमाई बंद हो गई है।

बंजारे नाचकर और खेल दिखाकर पेट भरते थे, लेकिन अब इनके घर के पुरुष बाहर नहीं निकलते हैं। पुलिस चोर बताकर उठा ले जाती है। परिवार चलाने के लिए महिलाएं कमाने निकलती हैं, ऐसे में उनका शोषण भी होता है। अंग्रेजों ने नट, सपेरे, कलंदर और बंजारों को क्रिमिनल ट्राइब्स घोषित किया था। राजस्थान में बूंदी-कोटा समेत कई इलाकों में अब भी बोर्ड लगे हैं, जिन पर लिखा है- आगे क्रिमिनल ट्राइब्स रहते हैं, संभलकर जाएं।'

 

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