जीवाश्म ईंधन औद्योगिक क्रांति और कई देशों की आर्थिक उन्नति का आधार रहे हैं लेकिन तेल, गैस और कोयला जलाने से ग्रीनहाउस गैसें पैदा होती हैं जो वातावरण को गर्म और धरती की जलवायु को खराब करती हैं. ऐतिहासिक रूप से, उन्नत औद्योगिक देशों ने मानव-प्रेरित जलवायु संकट में सबसे अधिक योगदान दिया है क्योंकि उन्होंने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को विकसित करने के लिए लंबे समय तक जीवाश्म ईंधन जलाया है.

 क्लाइमेट फाइनेंस या जलवायु वित्त के पीछे एक विचार यह है कि विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं को जलवायु तबाह करने वाले फॉसिल ईंधन से दूर ले जाने में सहायता की जाए. दूसरी बात यह है कि अमीर देशों को बदलती जलवायु के अनुरूप ढलने के लिएवैश्विक तापमान से सबसे अधिक प्रभावित गरीब देशों की मदद करनी चाहिए.

1992 के विश्व जलवायु सम्मेलन के वक्त से ही इन विचारों ने किसी ना किसी रूप में, जलवायु पर वैश्विक सौदेबाजी में केंद्रीय भूमिका निभाई है. लेकिन क्लाइमेट फाइनेंस आमतौर पर, 2009 के कोपेनहेगन यूएन जलवायु सम्मेलन में औद्योगिक देशों द्वारा किए गए इस वादे के साथ जुड़ा है कि वे 2020 तक वार्षिक 100 अरब डॉलर (95 अरब यूरो) जुटाएंगे. 2015 में पेरिस में, प्रतिनिधियों ने इस राशि को 2025 तक प्रतिवर्ष जारी रखने और फिर एक नई संख्या को स्थापित करने के लिए सहमति दी.

जलवायु वित्तीय सहायता कैसे लागू की जाएगी?

100 अरब डॉलर के वादे को लागू करने के लिए औद्योगिक रूप से उन्नत देशों ने मुख्यत: सार्वजनिक धन से पैसा देने की बात कही है. लेकिन उनका इरादा निजी निवेश के माध्यम से नकद जुटाना है. दाता देशों से आने वाले सार्वजनिक धन से क्लाइमेट फाइनेंस का बड़ा हिस्सा हासिल होता है. इसका लगभग 50 फीसदी हिस्सा, आर्थिक सहायता के तौर पर, दाता देशों से सीधे प्राप्तकर्ता देशों को मिलता है. दूसरा हिस्सा बहुपक्षीय धन है, जिसका मतलब है कि कई राज्य कई दूसरे राज्यों को धन देते हैं.

यह पैसा या तो मल्टीलैटरल यानी बहुपक्षीय बैंकों के माध्यम से चलाए जाने वाले जलवायु कार्यक्रमों से आता है, जैसे कि वर्ल्ड बैंक और अफ्रीकी और एशियाई विकास बैंक या फिर बहुपक्षीय जलवायु कोषों के माध्यम से दिया जाता है.

हरित जलवायु कोष (जीसीएफ)

बहुपक्षीय धन कोष में सबसे प्रमुख ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) है. ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) के संसाधनों का उपयोग करके जलवायु परिवर्तन की रफ्तारको कम करने की कोशिश हो सकती है. इन उपायों में अक्षय ऊर्जा का विस्तार, चरम मौसमी घटनाओं और ग्लोबल वॉर्मिंग को अपनाना शामिल है.

अब तक, दाता देशों ने लगभग 20 अरब डॉलर का वादा किया है. फिलहाल 12.8 अरब डॉलर की परियोजनाओं के लिए मंजूरीमिल चुकी है और 3 अरब से ज्यादा खर्च हो चुका है. अधिकतर योजनाएं अफ्रीका और एशिया में हैं, लेकिन कुछ योजनाएं लैटिन अमेरिका, कैरेबियन और पूर्वी यूरोप में भी हैं. हर चार वर्ष पर दाता देशों से यह आशा रहती है कि वे योजना को फिर लागू करेंगे.

अडैप्टेशन फंड

कुल धनराशि में से कुछ हिस्सा अडैप्टेशन यानी जलवायु परिवर्तन के हिसाब से बदलाव लागू करने के लिए दिया जाता है. यह अपेक्षाकृत कम होता है और इसकी कोई नियमित साइकिल नहीं है. दाता देश जब दे सकें या देना चाहें तब धन देते हैं. इसका मकसद ऐसी परियोजनाओं को सपोर्ट करना है जो जलवायु संकट के नतीजों से जूझने के लिए देशों को अनुकूल स्थितियां पैदा करने में मदद करती हैं. इसमें बाढ़ से निपटना या गर्मी झेल सकने वाले पेड़ लगाना शामिल है.

विकासशील देशों को यह पैसा लोन के बजाए, सब्सिडी के तौर पर दिया जाता है. यह मददगार है क्योंकि अडैप्टेशन के लिए उठाए जा रहे कदमों से पैसे कमाने की संभावनाएं नहीं होती. जबकि पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े कदम जैसे बिजली पैदा करने के लिए पवन चक्कियां या सोलर पैनल बना कर बेचे जा सकते हैं.

प्लास्टिक कचरे को कैसे कम किया जा सकता है?

प्लास्टिक सस्ता है और हल्का भी. लेकिन पर्यावरण पर इसका बोझ बढ़ता ही जा रहा है. कैसे कम किया जा सकता है प्लास्टिक कचरे को? केन्या में एक शिखर सम्मेलन में इसके तरीके खोजने की कोशिश हो रही है.

ये ऐक्टिविस्ट केन्या की राजधानी नैरोबी में इकट्ठा हुए हैं वैश्विक प्लास्टिक उत्पादन में कटौती की मांग करने के लिए. बीते एक साल में 175 देशों के बीच इसे लेकर 2024 तक संयुक्त राष्ट्र की एक संधि के लक्ष्य को हासिल करने पर सहमति हुई है.

संयुक्त राष्ट्र का लक्ष्य है 2040 तक प्लास्टिक प्रदूषण को गंभीर रूप से कम करना. केन्या ने इस दिशा में अग्रणी भूमिका निभाते हुए 2017 में प्लास्टिक की थैलियों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया. प्लास्टिक को अलग करने के सिस्टम भी लगाए गए हैं, जैसे गीताथुरु नदी में लगा हुआ यह सिस्टम. लेकिन कचरे का बनना अभी भी जारी है.

प्लास्टिक की इन बोतलों को केन्या की गीताथुरु नदी से निकाला गया है. यूरोपीय प्लास्टिक उत्पादक संघ के मुताबिक, पिछले साल करीब 40 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ था. यह 2002 के मुकाबले दोगुना है. प्लास्टिक एक बार खुले में पहुंच जाए, उसके बाद वो पौधों और जानवरों के लिए गंभीर जोखिम बन जाता है.

पानी का प्रदूषण जर्मनी में भी एक समस्या है. 2021 में अनुमान लगाया गया था कि करीब 41,700 किलो प्लास्टिक सिर्फ एल्बे नदी से समुद्र में पहुंच गया था. पर्यावरणीय संगठन कचरे को कम करने की कोशिश कर रहे हैं. जैसे की ग्रीनकयाक एनजीओ कचरा इकट्ठा करने के लिए नदी में जाने वाले लोगों को मुफ्त में कयाक का इस्तेमाल करने देता है.

प्लास्टिक की उम्र लंबी होती है और इस वजह से एक बड़ी समस्या पैदा होती है. उसे नष्ट होने में सदियां लग सकती हैं. अब अनिवार्य नियम लाए जाएंगे जो प्लास्टिक के उत्पादों के डिजाइन से लेकर प्लास्टिक के कचरे के निपटान और रीसाइक्लिंग पर लागू हो सकते हैं. कुछ चीजों के उत्पादन की मात्रा पर नियंत्रण भी लगाया जा सकता है.

केन्या में स्थानीय लोग प्लास्टिक कचरे की कभी ना खत्म होने वाली समस्या का मुकाबला करने के लिए अलग अलग तरीके खोज रहे हैं. यह व्यक्ति एक "फ्लिपफ्लॉपी" बना रहा है, जो प्लास्टिक कचरे से बनी एक पारंपरिक नाव है. यह काम उस पहल का हिस्सा है जिसका लक्ष्य है उन नई संभावनाओं को दिखाना जो रीसाइक्लिंग से निकल सकती हैं.

पुर्तगाल के कमारा दे लोबोस में एक सील के इस म्यूरल को प्लास्टिक कचरे से बनाया गया है. शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि केन्या में होने वाली बातचीत से प्लास्टिक को लेकर व्यवहार में बदलाव आएगा. वार्ताकार जोर देते रहे हैं कि लक्ष्य प्लास्टिक के इस्तेमाल की निंदा करना या प्लास्टिक को बैन करना नहीं है बल्कि यह पता लगाना है कि अलग अलग तरह के प्लास्टिक के उत्पादन को कितना सीमित किया जा सकता है. 

 यह फंड दुनिया के 46 सबसे गरीब देशों को मिलने वाला पैसा है. यह पूरी तरह दान पर निर्भर फंड है जिसे वापिस लौटाना नहीं होता. इसका मकसद आपातकालीन क्लाइमेट अडैप्टेशन के उपायों में मदद करना है. अब तक इस फंड के जरिए 360 से ज्यादा परियोजनाओं में पैसे दिए गए हैं.

100 अरब डॉलर के क्लाइमेट फाइनेंस का क्या हुआ

यह वादा पूरा नहीं हुआ है. ओईसीडी के आंकड़ों के मुताबिक, 2020 तक केवल 83 अरब डॉलर ही अंतरराष्ट्रीय क्लाइमेट फाइनेंस में डाले गए. ऑक्सफैम जर्मनी में जलवायु परिवर्तन और जलवायु नीति की अधिकारी यान कोवालसिग कहती हैं, "पहले तो, 83 अरब डॉलर बहुत बड़ी रकम लगती है, लेकिन ग्लोबल साउथ में गरीब देशों की जरूरतें इससे कहीं ज्यादा है. अध्ययनों के जरिए, हमें मालूम है कि 2030 तक, जलवायु परिवर्तन के हिसाब से अडैप्ट करने की लागत 300 अरब डॉलर से ज्यादा होगी और इसमें जलवायु संकट से निपटने के कदम शामिल नहीं हैं."प्रशांत महासागर में स्थित द्वीप तुवालु जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे संवेदनशील देशों में से है. तुवालु ने जलवायु परिवर्तन और प्रशांत महासागर में चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए एक संधि पर हस्ताक्षर किए हैं.

तुवालु ऑस्ट्रेलिया और हवाई के ठीक बीच में स्थित है. यह मात्र 26 वर्ग किलोमीटर में फैला है और यहां करीब 11,200 लोग रहते हैं. समुद्र में जब ज्वार भाटाएं आती हैं तो इस द्वीप के मुख्य भूभाग का करीब 40 प्रतिशत इलाका समुद्र के नीचे डूब जाता है.

अनुमान है कि 2050 तक इसकी राजधानी फुनाफुटी का आधा हिस्सा डूब जाएगा. इन हालात की तैयारी करने के लिए तुवालु ने ऑस्ट्रेलिया के साथ "फलेपी यूनियन" संधि पर हस्ताक्षर किए हैं. इसके तहत समुद्र से जमीन लेकर फुनाफुटी के क्षेत्रफल को करीब छह प्रतिशत बढ़ाने के लिए 1.69 करोड़ ऑस्ट्रेलियाई डॉलर मिलेंगे. इस जमीन पर नए घर बनेंगे.

तुवालु उन 42 देशों के समूह का सदस्य है जिन पर समुद्र के बढ़ते जलस्तर का सबसे ज्यादा खतरा है. इस संधि के तहत ऑस्ट्रेलिया तुवालु की बड़ी प्राकृतिक आपदाओं, महामारी और सैन्य आक्रमणों के दौरान भी सहायता करेगा.

तुवालु के जोखिम भरे हालात ने उसे जलवायु परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में ला दिया है. 2021 में उस समय के विदेश मंत्री साइमन कोफे ने संयुक्त राष्ट्र के कोप26 सम्मेलन को ऐसी जगह पर घुटनों तक गहरे पानी में खड़े रह कर संबोधित किया था जो पहले पानी के ऊपर थी.

2021 में तुवालु ने कहा था कि बढ़ता समुद्र अगर पूरे देश को ही निगल गया तो वो एक राष्ट्र के तौर पर अपनी मान्यता और अपने आर्थिक समुद्री इलाके को बरकरार रखने के तरीके तलाश रहा है. अब इस संधि के तहत ऑस्ट्रेलिया एक विशेष वीजा कार्यक्रम के तहत हर साल इस द्वीप राष्ट्र के 280 लोगों को ऑस्ट्रेलिया प्रवास करने की इजाजत देगा.

2019 में तुवालु ने कृत्रिम द्वीप बनाने के चीनी कंपनियों के प्रस्तावों को ठुकरा दिया था. यह उन 13 देशों में से थे जिनके ताइवान के साथ आधिकारिक रूप से कूटनीतिक रिश्ते हैं, जिस वजह से चीन से उसके रिश्ते अच्छे नहीं हैं. प्रधानमंत्री कौसेया नतानो पिछले साथ ताइवान गए थे और वहां "मजबूती से" चीन के साथ खड़े होने का वादा किया था. (रॉयटर्स)

हालांकि इंटरनेशनल डेवलपमेंट संस्थाओं का कहना है कि यह आंकड़ा भी ज्यादा ही लगता है. ऑक्सफैम के आंकड़े बताते हैं कि 2020 में, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी आर्थिक सहायता में, ज्यादा से ज्यादा 24.5 अरब डॉलर दिए गए. इसकी वजह यह है कि जिन परियोजनाओं को लिस्ट किया गया, उनका असर काफी कम होगा.

क्लाइमेट फाइनेंस का विवादास्पद पहलू

दशकों से, विकासशील, नव औद्योगिक और औद्योगिक देशों के बीच यह बहस चल रही है कि हीटवेव और सूखे के चलते जलवायु संकट की वजह से हो रहे नुकसान की भरपाई की जिम्मेदारी किसकी है. विकासशील देश इस दिशा में काम करने के लिए अतिरिक्त फंड चाहते हैं. दाता देशों को डर है कि उन्हें इस भरपाई के लिए, इंटरनेशनल क्लाइमेट फाइनेंसिंग के मौजूदा दायरे से कहीं ज्यादा देना पड़ा सकता है.प्लास्टिक से बेहाल है अफ्रीका की सबसे बड़ी ताजे पानी की झील

इसी वजह से डोनर देश चाहते हैं कि सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वालेचीन जैसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों को भी यह खर्च उठाना चाहिए. कुल मिलाकर नुकसान और जिम्मेदारी की इस बहस में बहुत सारे सवालों के जवाब अब भी बाकी हैं.

जलवायु जोखिमों के खिलाफ ग्लोबल शील्ड

साल 2022 में कॉप 27 के दौरान अमीर देशों के समूह जी7 और वी20 देशों के गुट ने जलवायु जोखिमों के खिलाफ ग्लोबल शील्ड की शुरुआत की थी. वी20 में वह 70 देश शामिल हैं जो जलवायु संकट से सबसे ज्यादा खतरे में हैं. इस शील्ड के मुताबिक, किसी प्राकृतिक आपदा के वक्त एक निश्चित राशि तुरंत दी जाएगी. जर्मनी इस फंड में 17 करोड़ यूरो का योगदान दे रहा है. यह उस स्थिति में मददगार होगा जब कहीं से कोई सहायता ना मिल रही हो.

इस शील्ड से क्लाइमेट रिस्क इंश्योरेंस में भी पैसे देने का प्रावधान है, जिसका इस्तेमाल करके छोटे किसान बीमा ले सकते हैं ताकि फसल नष्ट होने की स्थिति से बच सकें. हालांकि, विकास संगठनों का मत है कि जलवायु से जुड़े जोखिमों के खिलाफ इंश्योरेंस हमेशा सही उपाय नहीं है. ऐसा इसलिए क्योंकि इंश्योरेंस पॉलिसी अक्सर ऐसी स्थितियों के लिए कवर देती है, जो आसामान्य हों, लेकिन तेजी से गर्म होती दुनिया में इस तरह की आपदाएं आम होती जा रही हैं. इसका मतलब है कि चरम घटनाएं होती रहेंगी.

न्यूज़ सोर्स : ipm