प्रख्यात हिंदी और खड़िया भाषा की लेखिका, कवयित्री, विचारक, शिक्षाविद्, और आदिवासी अधिकारों की प्रबल समर्थक डॉ. रोज केरकेट्टा का निधन 17 अप्रैल, 2025 को रांची में 84 वर्ष की आयु में हुआ। वे लंबे समय से बीमार थीं। उनके निधन से साहित्य, संस्कृति, और आदिवासी आंदोलन को अपूरणीय क्षति हुई है। झारखंड और पूरे देश में उनके निधन पर शोक की लहर दौड़ गई। थीं।

उनका जन्म झारखंड के सिमडेगा जिले के कसिरा सुंदरा टोली गांव में खड़िया आदिवासी समुदाय में हुआ। उन्होंने हिंदी में स्नातकोत्तर (एम.ए.) की शिक्षा प्राप्त की और आदिवासी भाषा, साहित्य, संस्कृति, और सामाजिक न्याय के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया। झारखंड में उन्हें प्यार से "रोज दी" के नाम से जाना जाता था। उनकी लेखनी और सामाजिक कार्यों ने जल, जंगल, जमीन, और महिला अधिकारों के मुद्दों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहचान दिलाई।

डॉ. रोज केरकेट्टा ने हिंदी और खड़िया भाषा में कई महत्वपूर्ण रचनाएँ लिखीं, जो आदिवासी संस्कृति, परंपराओं, और सामाजिक संघर्षों को उजागर करती हैं। उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं:

  • पगहा जोरी-जोरी रे घाटो: यह उनकी सबसे चर्चित रचनाओं में से एक है, जो एक आत्मकथात्मक शैली में आदिवासी समुदाय के संघर्ष, गरीबी, और सामाजिक अन्याय के खिलाफ जीत की कहानियों को प्रस्तुत करती है। यह पुस्तक आदिवासी संस्कृति और विरासत के संरक्षण पर जोर देती है।

  • स्त्री महागाथा की महज एक पंक्ति: इस कृति में उन्होंने महिलाओं के संघर्ष और उनकी सामाजिक स्थिति को काव्यात्मक ढंग से व्यक्त किया।

  • बिरुवार गमछा तथा अन्य कहानियाँ: यह कहानी संग्रह आदिवासी जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाता है।

  • अन्य रचनाएँ: उन्होंने कई कविताएँ, कहानियाँ, और निबंध लिखे, जो हिंदी और खड़िया साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उनकी रचनाएँ आदिवासी समाज के दैनिक जीवन, प्रकृति के साथ उनके रिश्ते, और सामाजिक मुद्दों को संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती हैं।

उन्होंने प्रेमचंद की कहानियों का खड़िया भाषा में अनुवाद भी किया, जिससे खड़िया भाषा के साहित्य को समृद्ध करने में योगदान मिला। उनकी लेखनी में हमेशा मधुरता और बौद्धिक गहराई झलकती थी, जो पाठकों को सामाजिक चेतना की ओर प्रेरित करती थी।

डॉ. रोज केरकेट्टा ने आदिवासी अधिकारों, विशेष रूप से जल, जंगल, और जमीन के मुद्दों पर सक्रिय रूप से काम किया। वे जनांदोलनों में अग्रिम पंक्ति में रहीं और आदिवासी समुदायों के लिए बौद्धिक नेतृत्व प्रदान किया। उनके प्रमुख सामाजिक योगदान निम्नलिखित हैं:

  • आदिवासी अधिकारों की वकालत: उन्होंने आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों और प्राकृतिक संसाधनों पर उनके हक की बात को राष्ट्रीय मंचों पर उठाया। वे कभी भी गैर-आदिवासियों के प्रति भेदभाव नहीं करती थीं, बल्कि समावेशी दृष्टिकोण अपनाती थीं।

  • महिला सशक्तिकरण: रोज केरकेट्टा ने महिला अधिकारों के लिए संघर्ष किया और आदिवासी महिलाओं की आवाज को साहित्य और सामाजिक मंचों पर बुलंद किया। उनकी रचनाओं में स्त्री सवालों को गहरी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया।

  • सांस्कृतिक संरक्षण: उन्होंने खड़िया भाषा और संस्कृति के संरक्षण के लिए कई पुस्तकें लिखीं और सांस्कृतिक संगठनों, जैसे प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, के माध्यम से कार्य किया।

  • शिक्षा और जागरूकता: एक शिक्षाविद् के रूप में, उन्होंने आदिवासी समुदायों में शिक्षा और सामाजिक चेतना को बढ़ावा दिया।

  • बरगद की विशेषता बताती हुई डॉ. रोज केरकेट्टा कहती  थी कि यह कई गांवों में बीचों बीच दिखाई देता है। गाँव के बुजुर्ग भी इस पेड़ की छांव का आनंद उठाते हैं। साथ हीअनेक भाई-बहन , छोटे बच्चे इस पेड़ की नीछे दिन भर खेलते रहते है। वे जिस प्रकार से सुखद अनुभव उठाते हैं। यह आनंद की भी बाजार या पैसों से मिलने वाला नहीं होता है। और इस पेड़ के ऊपर जो पंछियों की राँव छांव आवाज कानों को कितना मंत्रमुग्ध कर देती है। मैना, कौआ, बगुला, उल्लू, पेचा, गिलहरी जैसे पशु-पक्षिओं ने तो अपना घर ही इस बरगद के पेड़ पर बनाया है। इस लोकतांत्रिक पेड़ पर न कोई भूखा है न कोई प्यासा है। सब आनंद से उल्हासित होकर अपना जीवन जी रहे हैं। और वह भी गुलामी से आजाद होकर। कवयित्री का कहना है कि इस लोकतांत्रिक पेड़ में जो गतिविधियां हो रही है। वैसी  गतिविधियां यदि हमारे जीवन में होती तो कितना अच्छा होता। क्योंकि यहाँ पर सब खुशहाली दिखाई दे रही है और मनुष्य का जीवन देखें कितना बोझिल है। वह न शांति से जीता है न इज्जत से जीता है। बस वह अमीर और गरीबी की खाई में डूबा रहता है।

न्यूज़ सोर्स : ipm